Book Title: Hirsundaramahakavyam Part 1
Author(s): Devvimal Gani, Ratnakirtivijay
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 310
________________ परिशिष्ट-१ (भूमिका) (पण्डित श्री देवविमलगणिना पोताना स्वहस्ते खरडारूपे लखायेली 'हीरसुन्दर'- महाकाव्यनी प्रति उकेलीने अत्रे रजू करी छे. प्रति कुल छ पत्रनी छे. बनता प्रयत्ने सम्पूर्ण सर्ग-पाठान्तरो साथे उकेलवा प्रयत्न कर्यो छे. मूळ श्लोको व्यवस्थित अने सुघड होई उकेली शकाया छे. ते श्लोकोना ज पाठान्तरो तरीके हांसियामां चारे बाजु लखाण छे. प्रतिना पत्रनी जमणी बाजुना हांसियाना अक्षरो कपायेला होवाथी तेनी नकल थई शकी नथी. ते सिवाय पण ज्यां सम्पूर्ण स्पष्टता थई नथी त्यां जग्या खाली राखीने अथवा प्रश्नचिह्न मूकीने जेवू ऊकल्युं तेवू मूक्युं छे. अमारी पासे प्रतिनी झेरोक्षमात्र छे. पण मूळ प्रति तपासतां आथी पण वधु सारुं परिणाम नीपजे तेवी शक्यता छे. पाठान्तरोमां कर्ताए नंबर आप्या छे. पण ते मूळ श्लोकोनी साथे बंधबेसता आवता नथी. घणा बधा श्लोको, कोनां पाठान्तर छे ? ते निश्चित थई शक्युं नथी. कदाच एकज वात ने सविस्तर कहेवा माटे श्लोको बनाव्या होय एवं समजाय छे. प्रतिना पत्र ३/२ सुधी पाठान्तरोमां ६४थी आगळ सुधी अंको आप्या छे. वच्चे क्यांक-क्यांक घणा श्लोकोमा १-२, एवा पण अंको आप्या छे. पछी पत्र ३/२ थी आगळ १ थी ३६ अने १ थी २२ एम सळंग श्लोकांक आप्या छे. ए श्लोकोमां पण घणां मूळ श्लोकोनां पाठान्तर तरीके मेळवी शकाया छे. शेष तो अर्थ विस्तार होय एम ज समजाय छे. ___ मूळ श्लोकोमां शब्दो उपर पण क्यांक-क्यांक कर्ताए टिप्पण करी छे. ते, ए ज पत्रमा टिप्पणरूपे मूकी छे. प्रथम सर्ग पूर्ण थया बाद १८ पङ्क्ति मां १ थी २३ श्लोको छे. तेनो छंद बदलाय छे तेथी अने आ पुस्तकमां मुद्रित हीरसुन्दरना द्वितीयसर्गना छंद अने एना श्लोकोमा समानता छे तेथी घणे भागे ते बीजा सर्गनो अंश होवानुं समजी शकाय छे. हीरसौभाग्य-मुद्रित, हीरसुन्दर, हीरसौभाग्य उपरनी लघु टीका अने खरडारूप आ प्रत-आ चारनी समानता तथा तरतमतानी एक तालिका बीजा विभागमा मूकवानो अत्यारे ख्याल छे.) ईडरसत्कहीरसुन्दरकाव्यप्रतिगतवाचना श्रेयांसि पुष्णातु स पार्श्वदेवो विश्वत्रयीकल्पितकल्पशाखी । पिण्डीभवद्यस्य विभासते स्म यशःप्रतापद्वयमिन्दुभानू ॥१॥ "उदीतपीयूषमयूखलेखे-वाजीहूदद्या कविदृक्चकोरान् । तमस्तिरस्कारकरी सुरीं तां नमस्कृतेर्गोचरयामि वाचम् ॥२॥ यददृष्टिपातादपि मन्दमौलि-विशेषवित्शेखरतामवाप्य । गुरुं सुराणामधरीकरोति 'मयि प्रसन्ना गुरवो भवन्तु ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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