Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 5
________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८१ जैनेतर सभी दार्शनिकों ने नोइन्द्रिय-जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। परन्तु उसे यहाँ पर प्रत्यक्ष नहीं माना है। यह योजना स्थानांगसूत्र में है। भगवती सूत्र की प्रथम योजना में और इस योजना में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ पर ज्ञान के मुख्य दो भेद किये हैं, पांच नहीं। पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों के प्रभेद के रूप में गिना है। इस प्रकार स्पष्ट परिज्ञान होता है कि यह प्राथमिक भूमिका का विकास है । जो इस प्रकार है ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष केवल नोकेवल आभिनिबोधक श्रुतज्ञान अवधि मनःपर्यव भवप्रत्ययिक, क्षायोपशमिक ऋजुमति, विपुलमति श्रुतनिःसृत अश्रुतनिःसृत अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह i अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आवश्यक आवश्यक-व्यतिरिक्त कालिक उत्कालिक द्वितीय भूमिका में इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का परोक्ष के अन्तर्गत समावेश किया है। तृतीय भूमिका में और भी कुछ परिवर्तन आया है। इन्द्रियजन्य मतिज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद ६ स्थानाङ्गसूत्र ७१ आचार्यप्रवाभिम आचार्यप्रवर आभा श्रीआनन्दा श्रीआनन्द somvivNNEymwarenewsindiaNevermire Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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