Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 18
________________ CAAGAMANACAAJAAAAAJAS प्रय अभियाआनन्द श्रीआनन्द Nivrrivaare २६४ धर्म और दर्शन EGA ERON AMI बहु का अर्थ अनेक और अल्प का अर्थ एक है। अनेक वस्तुओं का ज्ञान बहुग्राही है । एक वस्तु का ज्ञान अल्पग्राही है। अनेक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान बहुविधग्राही है। एक ही प्रकार की वस्तु का ज्ञान अल्पविधग्राही है। बहु और अल्प इनका सम्बन्ध संख्या से है। बहुविध या अल्पविध इनका सम्बन्ध जाति से है । अवग्रह आदि ज्ञान जो शीघ्र होता है वह क्षिप्र कहलाता है और जो विलम्ब से होता है वह अक्षिप्र कहलाता है । हेतु के बिना होने वाला वस्तुज्ञान अनिश्चित है । पूर्वानुभूत किसी हेतु से होने वाला ज्ञान निश्चित है । निश्चित ज्ञान असंदिग्ध है और अनिश्चित ज्ञान संदिग्ध है। अवग्रह और ईहा के अनिश्चित से इसमें भेद है। इसमें यह पदार्थ है-इस प्रकार निश्चय होने पर भी उसके विशेष गुणों के प्रति संदेह रहता है। अवश्यम्भावी ज्ञान ध्रुव व उसके विपरीत अध्रुव है। इन बारह भेदों में से चार भेद प्रमेय की विविधता पर अवलम्बित हैं और शेष आठ भेद प्रमाता के क्षयोपशम की विविधता पर आश्रित हैं। दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में इन नामों में कुछ अंतर है, उन्होंने अनिश्चित और निश्चित के स्थान पर अनिःसृत और निःसृत शब्द का प्रयोग किया है । अनिःसृत का अर्थ है असकल रूप से आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण और निःसृत का अर्थ है-सकल आविर्भूत पुद्गलों का ग्रहण । इसी प्रकार असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त शब्द का प्रयोग हुआ है । अनुक्त का अर्थ है-अभिप्राय मात्र से जान लेना और उक्त का अर्थ है कहने से जानता ।५१ उपर्युक्त २८ भेदों में से प्रत्येक के १२ भेद करने से कुल २८x१२=३३६ भेद होते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के ३३६ भेद हैं। श्वेताम्बर परम्परा में भी इन नामों के विषय में सामान्य मतभेद पाया जाता है। ve FVEER श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् जो चितन-मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान होने के लिए शब्द-श्रवण आवश्यक है। शब्द-श्रवण मति के अन्तर्गत है क्योंकि वह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्द-श्रवण रूप जो प्रवृत्ति है वह मतिज्ञान है, उसके पश्चात् शब्द और अर्थ के वाच्य-वाचकभाव के आधार पर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान कदापि सम्भव नहीं है। श्रुतज्ञान का अंतरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है। मतिज्ञान उसका बहिरंग कारण है। मतिज्ञान होने पर भी यदि श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम नहीं हुआ तो श्रुतज्ञान नहीं हो सकता । यह श्रुतज्ञान का दार्शनिक विश्लेषण है। प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है-वह ज्ञान जो श्रुत से अर्थात् शास्त्र से सम्बद्ध हो। आप्त पुरुष रचित आगम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रतज्ञान के दो भेद हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगबाह्य के अनेक भेद हैं । अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं ।५२ अंगप्रविष्ट उसे कहते हैं जो साक्षात् तीर्थङ्कर द्वारा प्रकाशित होता है और गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध किया जाता है । आयु, बल, बुद्धि आदि के क्षीण होते हए देखकर बाद में आचार्य सर्व ५१ (क) सर्वार्थसिद्धि १११६ (ख) राजवार्तिक ११६ ५२ श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् । -तत्त्वार्थसूत्र ११२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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