Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 17
________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २६३ HERONECH अपनी समयमर्यादा है, उसके बाद वह नष्ट हो जाती है और फिर नया ज्ञान उत्पन्न होता है। एक ज्ञान के पश्चात् दूसरे ज्ञान की परम्परा चलती रहती है। वादिदेवसूरि का प्रस्तुत अभिप्राय तर्क की दृष्टि से वजनदार प्रतीत होता है ।४६ नन्दीसूत्र में धारणा के लिए धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा, कोष्ठा शब्दों का प्रयोग हुआ है। उमास्वाति ने प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध शब्द प्रयोग किये हैं। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार भेदों का निरूपण किया जा चुका है । अवग्रह के दो भेद हैं-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र का व्यंजनअवग्रह होता है। व्यंजन के तीन अर्थ हैं-(१) शब्द आदि पुद्गल द्रव्य । (२) उपकरण-इन्द्रियविषय ग्राहक इन्द्रिय । (३) विषय और उपकरण इन्द्रिय का संयोग । व्यंजन-अवग्रह अव्यक्त ज्ञान होता है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं इसलिए इन दोनों से व्यंजनावग्रह नहीं होता है । बौद्धदर्शन श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी मानता है। नैयायिक-वैशेषिकदर्शन चक्षु और मन को अप्राप्यकारी नहीं मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन की विचारधारा इन दर्शनों से भिन्न है। श्रोत्र व्यवहित शब्द को नहीं जानता। जो शब्द श्रोत्र से संपृक्त होता है, वही उसका विषय बनता है, एतदर्थ श्रोत्र को अप्राप्यकारी नहीं कह सकते । चक्षु और मन व्यवहित पदार्थ को जानते हैं, एतदर्थ वे दोनों प्राप्यकारी नहीं हो सकते । क्योंकि दोनों का ग्राह्य वस्तु के साथ सम्पर्क नहीं होता। वैज्ञानिक दृष्टि से-चक्षु में दृश्य वस्तु का तदाकार प्रतिबिम्ब पड़ता है। जिससे चक्षु अपने विषय का ज्ञान करती है । नैयायिक मानते हैं कि चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि चक्षु की सूक्ष्म रश्मियाँ पदार्थ से संपृक्त होती हैं। विज्ञान इस बात को नहीं मानता। वह आँख को बहुत बढ़िया केमरा मानता है। उसमें दूर की वस्तु का चित्र अंकित हो जाता है। इससे जैनदृष्टि की अप्राप्यकारिता में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती। क्योंकि विज्ञान के अनुसार भी चक्षु का पदार्थ के साथ सम्पर्क नहीं होता । काच निर्मल है। उसके सामने जो वस्तुएँ आती हैं उनका प्रतिबिम्ब उसमें गिरता है। ठीक इसी प्रकार की प्रक्रिया आँख के सामने किसी वस्तु के आने पर होती है । काच में वस्तु का प्रतिबिम्ब गिरता है। किन्तु वस्तु और प्रतिबिम्ब एक नहीं होते । एतदर्थ काच उस वस्तु से संपृक्त नहीं कहलाता । ठीक यही बात आंख के लिए भी है। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों पाँच इन्द्रियों और मन इन छः से होते हैं। अतः इनके ४४६-२४ भेद होते हैं। व्यंजनावग्रह मन और चक्षु को छोड़कर शेष चार इंद्रियों से होता है, इसलिए उसके चार भेद होते हैं। कुल २४--४=२८ । इस प्रकार इन ज्ञानों में श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार प्रत्येक ज्ञान के फिर १. बहु, २. बहुविध, ३. अल्प, ४. अल्पविध, ५. क्षिप्र, ६. अक्षिप्र, ७. अनिश्चित, ८. निश्चित, ६. असंदिग्ध, १०. संदिग्ध, ११. ध्र व, १२. अध्र व ये बारह भेद होते हैं । DETA A CHETTO ४६ देखिए-जैनदर्शन, डा. मोहनलाल जी मेहता पृ० २३२ ५० धारणाप्रतिपत्तिरवधारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् । -तत्त्वार्थभाष्य १११५ تغییر می نامزه M आपाप्रवन अभिभाचार्यप्रवर अभिः श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्द Namailo viry Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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