Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 26
________________ MARJAAAAAAww. JanmaavaamaHIAsanmaamananM anchhainaCADAIADRASARALAM आचार्यप्रवर अभिभाचार्यप्रव श्रीआनन्दान्थ श्राआनन्द अन्य | ३०२ धर्म और दर्शन PriyyNMM NTYMIRRY या hai केवल शब्द का दूसरा अर्थ शुद्ध है।७४ ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से ज्ञान में किञ्चिन्मात्र भी अशुद्धि का अंश नहीं रहता है। इसलिए वह "केवल' कहलाता है। केवल शब्द का तीसरा अर्थ सम्पूर्ण है ।७५ ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से ज्ञान में अपूर्णता नहीं रहती है, इसलिये वह "केवल' कहलाता है। केवल शब्द का चौथा अर्थ-असाधारण है । ७६ ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट होने पर जैसा ज्ञान होता है, वैसा दूसरा नहीं होता, इसलिए वह "केवल" कहलाता है । केवल शब्द का पांचवाँ अर्थ अनन्त है । ७७ ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह फिर कदापि आवृत नहीं होता, एतदर्थं वह 'केवल' कहलाता है। "केवल" शब्द के उपर्युक्त अर्थ-"सर्वज्ञता" से सम्बन्धित नहीं हैं। आवरण के पूर्ण रूप से क्षय होने पर ज्ञान एक शुद्ध असाधारण और अप्रतिपाती होता है। इस में किसी भी प्रकार का विवाद नहीं है। विवाद का मुख्य विषय ज्ञान की पूर्णता है। कितने ही तार्किकों का मन्तव्य है कि ज्ञान की पूर्णता का अर्थ बहुश्रु तता है। कितने ही आचार्य ज्ञान की पूर्णता का अर्थ सर्वज्ञता करते हैं। जैन परम्परा में केवलज्ञान का अर्थ सर्वज्ञता है। केवलज्ञानी केवलज्ञान पैदा होते ही लोक और अलोक दोनों को जानने लगता है।७८ केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय हैं।७६ कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे केवलज्ञानी नहीं जानता हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं जो केवलज्ञान का विषय न हो। छहों द्रव्यों के वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं, सभी केवलज्ञान के विषय हैं। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास केवलज्ञान है। जब पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब अपूर्ण ज्ञान स्वतः नष्ट हो जाता है। इसके सम्बन्ध में पूर्व लिख चुके हैं। दर्शन और ज्ञान विषयक तीन मान्यताएँ उपयोग के दो भेद हैं-साकार और अनाकार । साकार उपयोग को ज्ञान कहते हैं और अनाकार उपयोग को दर्शन ।८० साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प है। जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प है। और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह निविकल्प है। ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को आवत करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाले कर्म का नाम दर्शनावरण ७४ शुद्धम्-निर्मलम्-सकलावरणमलंकविगमसम्भूतत्त्वात् ।। -विशेषावश्यक भाष्यवृत्ति ८४ ७५ वही-८४ ७६ असाधारणम्-अनन्य-सदृशम् तादृशापरज्ञानाभावात् । -विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति ८४ ७७ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति ८४ । ७८ जया सव्वत्तगं नाणं दसणं चाभिगच्छई। तथा लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ।। -दशवकालिक ४१२२ ७९ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य। -तत्त्वार्थसूत्र १॥ ३० ८० तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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