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ज्ञानवाद : एक परिशीलन
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३. काल की दृष्टि से-असंख्यात काल तक का (पल्योपम का असंख्यातवां भाग) अतीत का और भविष्य । ४. भाव की दृष्टि से-मनोवर्गणा की अनन्त अवस्थाएँ।
अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान की विशेषताएं अवधि और मनःपर्याय ज्ञान ये दोनों ज्ञान आत्मा से होते हैं। इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु ये दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक ही सीमित हैं। इसलिए अपूर्ण अर्थात् विकलप्रत्यक्ष हैं। जबकि केवलज्ञान रूपी-अरूपी सभी द्रव्यों को जानने के कारण सकलप्रत्यक्ष है। अवधि और मनःपर्याय में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इन चार दृष्टियों से | अन्तर है। मनःपर्यायज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशद रूप से जानता है।
IT इसलिए वह उससे अधिक विशुद्ध है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं है । विषय की सुक्ष्मता पर अवलम्बित है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि अधिक मात्रा में पदार्थों को जाना जाय, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि ज्ञेय पदार्थ की सूक्ष्मता का परिज्ञान हो । मनोवर्गणाओं की मन के रूप में परिणत पर्याय अवधिज्ञान का भी विषय बनती हैं। तथापि मनःपर्याय उन पर्यायों का स्पेशलिस्ट (विशेषज्ञ-सूक्ष्मज्ञ) है। एक डाक्टर वह होता है जो सम्पूर्ण शरीर की चिकित्सा-विधि साधारण रूप से जानता है, और एक डाक्टर वह होता है जो आँख का, कान का, दाँत का, एक अवयव विशेष का पूर्ण निष्णात होता है । यही बात अवधि और मनःपर्याय की है।
अवधिज्ञान के द्वारा रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जितना जाना जाता है उससे अधिक सूक्ष्म अंश मनःपर्यायज्ञान के द्वारा जाना जाता है।
अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक के रूपी पदार्थ हैं किन्तु मनःपर्याय का क्षेत्र मनुष्यलोक ही है।
अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले जीव हैं। किन्तु मनःपर्याय का स्वामी केवल चारित्रवान् श्रमण ही हो सकता है।
अवधिज्ञान का विषय सम्पूर्ण रूपी द्रव्य है (सब पर्याय नहीं), किन्तु मनःपर्यायज्ञान का विषय केवल मन है। जो कि रूपी द्रव्य का अनन्तवां भाग है।
केवलज्ञान केवल शब्द का अर्थ एक या असहाय है।७२ ज्ञानावरणीयकर्म के नष्ट होने से ज्ञान के अवान्तर भेद मिट जाते हैं और ज्ञान एक हो जाता है, उसके पश्चात् इन्द्रिय और मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती, एतदर्थ वह केवल कहलाता है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति में गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! केवली इन्द्रिय और मन से जानता है और देखता है ?
भगवान् ने समाधान करते हुए कहा-गौतम ! वह इन्द्रियों से जानता व देखता नहीं है। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-भगवान् ! ऐसा क्यों होता है ?
भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! केवली पूर्व दिशा में मित को भी जानता है और अमित को भी जानता है । वह इन्द्रिय का विषय नहीं है ।७३
७२ केवलमेगं सुद्धं, सगलमसाहारणं अणंतं च ।
-विशेषावश्यक भाष्य ८४ ।
७३ व्याख्याप्रज्ञप्ति ६।१०
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