Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 23
________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन २९६ ASPAad నాలో देशावधि के तीन भेद होते हैं । जघन्य देशावधिक क्षेत्र उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग है। उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। अजघन्योत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र इन दोनों के मध्य का है। जिसके असंख्यात प्रकार हैं। जघन्य परमावधि का क्षेत्र एक प्रदेश से अधिक लोक है। उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्योत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र इन दोनों के मध्य का है । ६२ सर्वावधि एक प्रकार का होता है। उसका क्षेत्र उत्कृष्ट परमावधि के क्षेत्र से बाहर असंख्यात क्षेत्रप्रमाण है। क्षेत्र की अधिक-से-अधिक मर्यादा लोक है। लोक से बाहर कोई पदार्थ नहीं है। जो लोक से अधिक क्षेत्र का निर्देश किया गया है, उसका तात्पर्य ज्ञान की सूक्ष्मता से है। देशावधि चारों गतियों में होता है किन्तु परमावधि और सर्वावधि मनुष्यों में मुनियों के ही होते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन सात निक्षेपों से अवधिज्ञान को समझने का सूचन किया है।४ मनःपर्यायज्ञान यह ज्ञान मनुष्यगति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता। मनुष्य में भी संयत मनुष्य को देता है, असंयत मनुष्य को नहीं। मनःपर्यायज्ञान का अर्थ है-मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषयविशेष का विचार करता है तब उसके मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है। मनःपर्यायज्ञानी मन की उन विविध पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार से वह यह जानता है कि व्यक्ति इस समय में यह चिन्तन कर रहा है। केवल अनुमान से यह कल्पना करना कि अमुक व्यक्ति इस समय अमुक प्रकार की कल्पना कर रहा होगा, इस प्रकार अनुमान को मनःपर्याय ज्ञान नहीं कहते। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो-मन के परिणमन का आत्मा के द्वारा साक्षात् प्रत्यक्ष करके मानव के चिन्तित अर्थ को जान लेना मनःपर्यायज्ञान है। यह ज्ञान मनपूर्वक नहीं होता, किन्तु आत्मपूर्वक होता है। मन तो उसका विषय है। ज्ञाता साक्षात् आत्मा है । ६५ दो विचारधाराएँ मनःपर्यायज्ञान के सम्बन्ध में आचार्यों की दो विचारधाराएँ हैं। आचार्य पूज्यपाद एवं आचार्य अकलंक का मन्तव्य है कि मनःपर्यायज्ञानी चिन्तित अर्थ का प्रत्यक्ष करता है। अर्थात् मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम न मानकर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष मान ६२ विभिन्न वस्तुओं के नापने के लिए विभिन्न अंगुल निश्चित किये गये हैं। मुख्यरूप से उसके तीन भेद हैं-उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल, और आत्मांगुल । ६३ तत्त्वार्थसार, अमृतचन्द्र सुरि, पृ० १२ -गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला ६४ विशेषावश्यक भाष्य ६५ मणपज्जवणाणं पुण, जणमणपरिचितियत्थ पागडाणं । माणुसखेत्तनिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ ॥ -आवश्यक नियुक्ति ७६ manorankarinaamarriandiaramremiumAnasunitanatanAmarnarmercadorial आचार्यप्रवभिआपाप्रवआभः श्रीआन्दा अन्शनाआनन्दमयन ANIMNamariwwwnarayanawwmanomenorrenewanawimilaiaml Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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