Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 27
________________ ज्ञानवाद : एक परिशीलन ३०३ है। इन कर्मों के क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं। आगम-साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए "जाणइ" और दर्शन के लिए "पासइ" शब्द व्यवहृत हुआ है। __ दिगम्बर आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है। आचार्य वीरसेन षट्खण्डागम की धवला टीका में लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है। दर्शन और ज्ञान में यही अन्तर है कि दर्शन सामान्य-विशेषात्मक आत्मा का उपयोग है-स्वरूप-दर्शन है जबकि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है। जिनका यह मन्तव्य है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है वे प्रस्तुत मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान के मत से अनभिज्ञ हैं। सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। केवल सामान्य और केवल विशेष का ग्रहण करने वाला ज्ञान अप्रमाण है। इसी तरह विशेष-व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन मिथ्या है।८१ प्रस्तुत मत का प्रतिपादन करते हुये द्रव्यसंग्रह की वृत्ति में ब्रह्मदेव ने लिखा है-ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से चिन्तन करना चाहिये। तर्कदृष्टि से और सिद्धान्तदृष्टि से । दर्शन को सामान्यग्राही मानना तर्कदृष्टि से उचित है। किन्तु सिद्धान्तदृष्टि से आत्मा का सही उपयोग दर्शन है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान है । व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है, पर-नैश्चयिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है । ८२ सामान्य और विशेष के आधार से ज्ञान और दर्शन का जो भेद किया गया है, उसका निराकरण अन्य प्रकार से भी किया गया है। यहां अन्य दार्शनिकों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग किया गया है। किन्तु जो जैन तत्त्वज्ञान के ज्ञाता हैं उनके लिए आगमिक व्याख्यान ही ग्राह्य है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार आत्मा और इतर का भेद ही वस्तुतः सार- || पूर्ण है। उपर्यक्त विचारधारा को मानने वाले आचार्यों की संख्या अधिक नहीं है। अधिकांशतः दार्शनिक आचार्यों ने साकार और अनाकार के भेद को स्वीकार किया है। दर्शन को सामान्यग्राही मानने का तात्पर्य इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म प्रतिबिम्बित होता है और ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म झलकता है। वस्तु में दोनों धर्म हैं पर उपयोग किसी एक धर्म को ही मुख्य रूप से ग्रहण कर पाता है । उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद होता है किन्तु वस्तु में नहीं। __ काल की दृष्टि से दर्शन और ज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? जरा इस प्रश्न पर भी चिन्तन करना आवश्यक है। छद्मस्थों के लिए सभी आचार्यों का एकमत है कि छद्मस्थों को दर्शन और ज्ञान क्रमशः होता है, युगपद् नहीं। केवली में दर्शन और ज्ञान का उपयोग किस प्रकार होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्यों के तीन मत हैं-प्रथम मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। द्वितीय मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं । तृतीय मान्यतानुसार ज्ञान और दर्शन में अभेद है अर्थात्-दोनों एक हैं। ८१ षट्खण्डागम, धवला वृत्ति ११११४ ८२ द्रव्यसंग्रह वृत्ति गा० ४४ । ८३ द्रव्यसंग्रह वृत्ति ४४ । AMARRITAINARAAMAJamaAJANAanandnainaamaverinaamanaubAANAMIKANAKIALALA RAMANANJARITAIKARANJABANANA maramniweMINYorrrrrrrrrrrrrry Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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