Book Title: Gyanvad Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf

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Page 12
________________ आचार्यप्रवभिन Raआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दान्थश्राआनन्द W WWMVWITY ra २८८ धर्म और दर्शन COM वात्स्यायन भाष्यकार का अभिमत है कि स्मृति आदि ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है और विभिन्न इन्द्रिय तथा उसके विषयों के रहते हुए भी एक साथ सबका ज्ञान नहीं होता, इससे मन का अस्तित्व अपने आप उतर आता है।333 ___अन्नभट्ट ने सुख आदि की प्रत्यक्ष उपलब्धि को मन का लिङ्ग माना है । ३४ जैनदर्शन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्न, ज्ञान, वितर्क, सुख, दुःख, क्षमा, इच्छा आदि अनेक मन के लिङ्ग हैं । ३५ ___अब हम अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करेंगे। क्योंकि ये चारों मतिज्ञान के मुख्य भेद हैं। अवग्रह इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है।३६ इस ज्ञान में निश्चित प्रतीति नहीं होती कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ है। केवल इतना-सा ज्ञात होता है कि यह कुछ है । इन्द्रिय और सामान्य का जो सम्बन्ध है वह दर्शन है। दर्शन के पश्चात् उत्पन्न होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह है। अवग्रह में केवल सत्ता (महासामान्य) का ही ज्ञान नहीं होता है किंतु पदार्थ का प्रारम्भिक ज्ञान (अपर सामान्य का ज्ञान) होता है कि यह कुछ है । ३७ अवग्रह के व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ये दो भेद हैं। अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह है। उपर्युक्त पंक्तियों में जो अवग्रह की परिभाषा दी गई है वह वस्तुतः अर्थावग्रह की है। प्रस्तुत परिभाषा से व्यंजनावग्रह दर्शन की कोटि में आता है। प्रश्न है कि अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह है तब दर्शन कब होगा ? समाधान है कि व्यंजनावग्रह से पूर्व दर्शन होता है। व्यंजनावग्रह रूप जो सम्बन्ध है वह ज्ञानकोटि में आता है और उस से भी पहले जो एक सत्ता-सामान्य का भान है, वह दर्शन है। अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो इन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होता है और क्रमशः पुष्ट होता जाता है वह व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह ज्ञान अव्यक्त है। व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह किस प्रकार बनता है ? इसे समझाने के लिए आचार्यों ने एक रूपक दिया है। एक कुम्भकार अवाड़ा में से एक सकोरा निकालता है। वह उस पर पानी की एक-एक बूंद डालता है। पहली, दूसरी, तीसरी बंद सूख जाती है, अन्त में वही सकोरा पानी की बूंदें सुखाने में असमर्थ हो जाता है और धीरे-धीरे पानी से भर जाता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति सोया है। उसे पुकारा जाता है। कान में जाकर शब्द चुपचाप बैठ जाते हैं, वे अभिव्यक्त नहीं हो पाते, दोचार बार पुकारने पर उसके कान में अत्यधिक शब्द एकत्र हो जाते हैं तभी उसे यह परिज्ञान होता है कि मुझे कोई पुकार रहा है। यह ज्ञान प्रथम शब्द के समय इतना अस्पष्ट और अव्यक्त होता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं लगता कि मुझे कोई पुकार रहा है। जलबिन्दुओं की तरह या ३३ वात्स्यायन भाष्य १११।१६ ३४ सुखाद्य पलाब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः । -तर्कसंग्रह ३५ संशयप्रतिभास्वप्नज्ञानोहासुखादिक्षमेच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि । -सन्मतिप्रकरण टीका काण्ड-२ ३६ प्रमाणमीमांसा ११११२६ ३७ सर्वार्थ सिद्धि ११५३१११, ज्ञानपीठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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