________________
२८७
ज्ञानवाद : एक परिशीलन रस आदि का विशेष रूप से निरीक्षण, परीक्षण करता है, तब वह इन्द्रिय-सापेक्ष होता है । इन्द्रिय की गति पदार्थ तक सीमित है किन्तु मन की गति इन्द्रिय और पदार्थ दोनों में है 1
मानसिक चिंतन के ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, आगम आदि विविध पहलू हैं ।
मन का स्थान
वैशेषिक २५ नैयायिक २६ और मीमांसक २७ मन को परमाणु रूप मानते हैं इसलिए उनके मन्तव्यानुसार मन नित्यकारण रहित है । सांख्यदर्शन, योगदर्शन, और वेदान्तदर्शन उसे अणुरूप और जन्य मानकर उसकी उत्पत्ति प्राकृतिक अहंकार तत्त्व से या अविद्या से मानते हैं । बौद्ध, जैन दृष्टि से मन न तो व्यापक है और न परमाणु रूप ही है । किन्तु मध्यम परिमाणवाला है । न्याय-वैशेषिक- बौद्ध आदि कितने ही दर्शन मन को हृदय प्रदेशवर्ती मानते हैं । सांख्य, योग व वेदांत दर्शन के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं है किन्तु मन सूक्ष्म लिङ्ग शरीर में जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकाय रूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान सम्पूर्ण स्थूल शरीर है । २६ इसलिए मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर है। जैनदर्शन के अनुसार भावमन का स्थान आत्मा है किंतु द्रव्यमन के सम्बन्ध में एकमत नहीं है । दिगम्बर परम्परा द्रव्यमन को हृदय प्रदेशवर्ती मानती है किंतु श्वेताम्बर परम्परा में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है । पं० सुखलाल
जी का अभिमत है कि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्यमन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है । ३०
मन का एकमात्र नियत स्थान न भी हो, तथापि उसके सहायक कई विशेष केन्द्र होने चाहिए । मस्तिष्क के संतुलन पर मानसिक चिंतन अत्यधिक निर्भर है, एतदर्थ सामान्य अनुभूति के अतिरिक्त अथवा इन्द्रिय साहचर्य के अतिरिक्त उसके चिंतन का साधनभूत किसी शारीरिक अवयव को मुख्य केन्द्र माना जाय, इसमें आपत्ति प्रतीत नहीं होती ।
विषयग्रहण की दृष्टि से इन्द्रियां एकदेशी हैं । अतः वे नियत देशाश्रयी कहलाती हैं किन्तु ज्ञानशक्ति की दृष्टि से इन्द्रियां सर्वात्मव्यापी हैं । इन्द्रिय और मन क्षायोपशमिक शक्ति आवरणविलय-जन्य विकास के कारण से है । आवरणविलय सर्वात्मप्रदेशों का होता है । 31 मन विषयग्रहण की दृष्टि से भी शरीरव्यापी है ।
मन का अस्तित्व
न्याय सूत्रकार का मन्तव्य है कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते । इस अनुमान वे मन की सत्ता स्वीकार करते हैं । ३२
२५ वैशेषिकसूत्र ७।१।२३
२६ न्यायसूत्र ३।२।६१
२७ प्रकरण प० पृ० १५१
२८ माठरकारिका २७
२६ मनो यत्र मरुत तत्र, मरुद् यत्र मनस्ततः । अतस्तुल्यक्रियावेतौ, संवीतौ क्षीरनीरवत् ॥ ३० दर्शन और चिंतन, पृ० १४० हिन्दी ३१ सव्वेणं सव्वे निज्जिण्णा ॥
३२ न्यायसूत्र १|१|१६
आचार्य प्रवर
Jain Education International
- योगशास्त्र ५।२
For Private & Personal Use Only
- भगवती १३
ॐ
316230 27319-10 अभिन
ग्रन्थ
www.jainelibrary.org