Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान नियत एक विवहार सौं, जीव चतुर्दस भेद । रंग जोग बहु विधि भयौ, ज्यौं पट सहज सुफेद ॥७ ॥ शब्दार्थ : संछेप सौं= थोड़े में। जोग (योग) = संयोग । पट = वस्त्र । अर्थ :- यह सोचकर पण्डित बनारसीदासजी शिव-मार्ग खोजने में कारणभूत गुणस्थानों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं ।। ६ ।। जीव पदार्थ निश्चयनय से एकरूप है और व्यवहारनय से गुणस्थानों के भेद से चौदह प्रकार का है। जिसप्रकार श्वेत वस्त्र रंगों के संयोग से अनेक रंग का हो जाता है, उसीप्रकार मोह और योग के संयोग से संसारी जीवों में चौदह अवस्थाएँ पायी जाती हैं ।॥ ७ ॥ चौदह गुणस्थानों के नाम (सवैया इकतीसा ) प्रथम मिथ्यात दूजौ सासादन तीजौ मिश्र, चतुर्थ अव्रत पांचमौ विरत रंच है। छट्टौ परमत्त नाम सातमो अपरमत्त, आठमो अपूरवकरन सुखसंच है। म अनिवृत्तिभाव दशमो सूच्छम लोभ, एकादशमो सु उपसांत मोहबंच है। द्वादशमो रवीनमोह तेरहो सजोगी जिन, च चौदह अजोगी जाकी थिति अंक पंच है ॥ ८ ॥ शब्दार्थ :- रंच = किंचित् । सुखसंच = आनन्द का संग्रह । ( वंचकता) = ठगाई - धोखा । थिति = स्थिति । अंक पंच = पाँच अक्षर । अर्थ :- पहला मिथ्यात्व, दूसरा सासादन, तीसरा मिश्र, चौथा अव्रतसम्यग्दृष्टि, पाँचवाँ देशव्रत, छठवाँ प्रमत्त मुनि, सातवाँ अप्रमत्त मुनि, आठवाँ अपूर्वकरण, नौवाँ अनिवृत्तिकरण, दसवाँ सूक्ष्मलोभ, ग्यारहवाँ उपशांतमोह, बारहवाँ क्षीणमोह, तेरहवाँ सयोगी-जिन और चौदहवाँ अयोगी जिन जिसकी स्थिति अ इ उ ऋ लृ इन पाँच हस्व अक्षरों के उच्चारणकाल के बराबर है ।।८ ॥ ... (5) १ मिथ्यात्व (दोहा) र सब गुनथान के नाम चतुर्दस सार । अब बनौं मिथ्यात के, भेद पंच परकार ॥ ९ ॥ अर्थ – गुणस्थानों के चौदह मुख्य नाम बतलाये । अब पाँच प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन करते हैं ।। ९ ।। मिथ्यात्व गुणस्थान में पाँच प्रकार के मिथ्यात्व का उदय होता है। (सवैया इकतीसा ) प्रथम एकांत नाम मिथ्यात अभिगृहीत, दूजौ विपरीत अभिनिवेसिक गोत है। तीज विनै मिथ्यात अनाभिग्रह नाम जाकौ, चौथो संसै जहाँ चित्त भौंर कौसौ पोत है ॥ पांचमी अग्यान अनाभोगिक गहलरूप, जाकै उदै चेतन अचेत सी होत है। एई पाँचौं मिथ्यात जीव कौ जग मैं भ्रमावैं, इनको विनास समकित कौ उदोत है ॥ १० ॥ शब्दार्थ :- गोत = नाम भौंर = भँवर । पोत = जहाज। गहल = अचेतता । उदोत = प्रगट होना। अर्थ :- पहला अभिग्रहीत अर्थात् एकान्त मिथ्यात्व है। दूसरा अभिनिवेशिक अर्थात् विपरीत मिथ्यात्व है। तीसरा अनाभिग्रह अर्थात् विनय मिथ्यात्व है। चौथा चित्त को भँवर में पड़े हुए जहाज के समान डाँवाडोल करनेवाला संशय मिथ्यात्व है । पाँचवाँ अनाभोगिक अर्थात् अज्ञान मिथ्यात्व सर्वथा असावधानी की मूर्ति है । ये पाँचों मिथ्यात्व जीव को संसार में भ्रमण कराते हैं और इनके नष्ट होने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है ।। १० ।।

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