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सयोगकेवली
तेरहवें गुणस्थान का वर्णन (दोहा) छीनमोह पूरन भयौ, करि चूरन चित-चाल । अब सजोगगुनथान की, वरनौं दसा रसाल ||१०५|| अर्थ - चित्त की वृत्ति को चूर्ण करनेवाले क्षीणमोह गुणस्थान का कथन समाप्त हुआ। अब परमानन्दमय सयोगगुणस्थान की अवस्था का वर्णन करता हूँ।।१०५ ।।
तेरहवें गुणस्थान का स्वरूप (सवैया इकतीसा) जाकी दुखदाता-घाती चौकरी विनसि गई,
चौकरी अघाती जरी जेवरी समान है। प्रगट भयौ अनंतदंसन अनंतग्यान,
वीरजअनंत सुख सत्ता समाधान है। जामै आउ नाम गोत वेदनी प्रकृति अस्सी,
इक्यासी चौरासी वा पचासी परवान है। सो है जिन केवली जगतवासी भगवान,
ताकी जो अवस्था सोसजोगीगुनथान है।।१०६ ॥ शब्दार्थ :- चौकरी = चार । विनसि गई = नष्ट हो गई। अनंतदंसन = अनंतदर्शन । समाधान = सम्यक्त्व । जगतवासी = संसारी, शरीर सहित ।
अर्थ :- जिस मुनि के दुःखदायक घातिया चतुष्क अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय नष्ट हो गये हैं और अघातिया चतुष्क जरी जेवरी के समान शक्तिहीन हुए है। जिसको अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख - सत्ता और परमावगाढ़सम्यक्त्व प्रगट हुए हैं। जिसकी आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की मात्र अस्सी, इक्यासी, चौरासी वा पचासी प्रकृतियों की सत्ता रह गई है, वह केवलज्ञानी प्रभु संसार में सुशोभित होता है और उसी की अवस्था को सयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं। १. यहाँ मन-वचन-काय के सात योग होते हैं, इससे इस गुणस्थान का नाम सयोगकेवली है।
सयोगकेवली गुणस्थान
विशेष - तेरहवें गुणस्थान में जो पचासी' प्रकृतियों की सत्ता कही गई है, सो यह सामान्य कथन है। १. किसी-किसी को तो तीर्थंकर प्रकृति, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारक बन्धन, आहारक संघात सहित पचासी प्रकृतियों की सत्ता रहती है। २. किसी को तीर्थंकर प्रकृति का सत्व नहीं होता तो चौरासी प्रकृतियों की सत्ता रहती है। ३. किसी को आहारक चतुष्क का सत्व नहीं रहता और तीर्थंकर प्रकृति का सत्व रहता है तो इक्यासी प्रकृतियों की सत्ता रहती है। ४. तथा किसी को तीर्थंकर प्रकृति और आहारक चतुष्क पाँचों का सत्व नहीं रहता, मात्र अस्सी प्रकृतियों की सत्ता रहती हैं।।१०६ ।।
केवलज्ञानी की मुद्रा और स्थिति (सवैया इकतीसा) जो अडोल परजंक मुद्राधारी सरवथा,
अथवा सु काउसग्ग मुद्रा थिरपाल है। खेत सपरस कर्म प्रकृति कै उदै आयै,
बिना डग भरै अंतरीच्छ जाकी चाल है। जाकी थिति पूरख करोड़ आठ वर्ष घाटि,
अतरमुहरत जघन्य जग-जाल है। सो है देव अठारह दूषन रहित ताकौं,
बानारसि कहै मेरी वंदना त्रिकाल है।।१०७|| शब्दार्थ :- अडोल = अचल । परजंक मुद्रा = पद्मासन। काउसग्ग = (कायोत्सर्ग) खड़े आसन। अंतरीच्छ = अधर । त्रिकाल = सदैव ।
अर्थ :- १. जो केवलज्ञानी भगवान् पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा धारण किये हुए हैं। २. जो क्षेत्र-स्पर्श नामकर्म की प्रकृति के उदय से बिना कदम रक्खे अधर गमन करते हैं। ३. जिनकी संसार स्थिति उत्कृष्ट आठ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। ४. वे सर्वज्ञदेव अठारह दोष रहित हैं।
पं. बनारसीदासजी कहते हैं कि उन्हें मेरी त्रिकाल वन्दना है।।१०७।। १. पचासी प्रकृतियों के नाम आगे ४७ पेज पर दिये हैं. देखें। २. मोक्षगामी जीवों की उत्कृष्ट आयु चौथे काल की अपेक्षा एक कोटि पूर्व की है, और
आठ वर्ष की उमरतक केवलज्ञान नहीं जागता।
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