________________ समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान गुणस्थानाधिकार का सार गुणस्थान का सार जिसप्रकार सफेद वस्त्र पर नाना रंगों का निमित्त लगने से वह अनेकाकार होता है। उसीप्रकार शुद्ध-बुद्ध आत्मा पर अनादि काल से मोह और योगों का सम्बन्ध होने से उसकी संसारी दशा में अनेक अवस्थाएँ होती हैं, उन्हीं का नाम गुणस्थान है। यद्यपि वे अनेक हैं पर शिष्यों के सम्बोधनार्थ श्रीगुरु ने 14 बतलाये हैं। ये गुणस्थान जीव के स्वभाव नहीं हैं, पर अजीव में नहीं पाये जाते, जीव में ही होते हैं, इसलिये जीव के विभाव हैं, अथवा यों कहना चाहिये कि व्यवहार नय से गुणस्थानों की अपेक्षा संसारी जीवों के चौदह भेद हैं। पहले गुणस्थान में मिथ्यात्व, दूसरे में अनन्तानुबन्धी, तीसरे में मिश्र मोहनीय का उदय मुख्यतया रहता है। चौथे गुणस्थान में मिथ्या, अनन्तानुबन्धी और मिश्रमोहनीय का, पाँचवें में अप्रत्याख्यानावरणीय का, छठे में प्रत्याख्यानावरणीय का अनुदय रहता है। सातवें-आठवें और नववे में संज्वलन का क्रमशः मन्द, मन्दतर, मन्दतम उदय रहता है। दसवें में संज्वलन सूक्ष्मलोभ मात्र का उदय और सर्वमोह का क्षय है। ग्यारहवें में सर्वमोह का उपशम और बारहवें में सर्वमोह का क्षय है। यहाँ तक छद्मस्थ अवस्था रहती है, केवलज्ञान का विकास नहीं है। तेरहवें में पूर्णज्ञान है; परन्तु योगों के द्वारा आत्मप्रदेश सकम्प होते हैं और चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञानी प्रभु के आत्म-प्रदेश भी स्थिर हो जाते हैं। सभी गुणस्थानों में जीव सदेह रहता है। सिद्ध भगवान, गुणस्थानों की कल्पना से रहित हैं। इसलिये गुणस्थान जीव के निज-स्वरूप नहीं हैं, पर हैं, परजनित हैं - ऐसा जानकर गुणस्थानों के विकल्पों से रहित शुद्ध बुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिये। 1. विग्रह गति में कार्माण तैजस शरीर का सम्बन्ध रहता है। (25)