Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ १० सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान का वर्णन (चौपाई) कहौं दसम गुनथान दुसारखा । जहाँ सूछम सिव की अभिलारवा ॥ छलोभ दसा जहँ लहिये । सूछमसांपराय सो कहिये ॥ ९९ ॥ अर्थ- अब दस गुणस्थान का वर्णन करता हूँ, जिसमें आठवें और नववें गुणस्थान के समान उपशम और क्षायिक ऐसे श्रेणी के दो भेद हैं। जहाँ मोक्ष की अत्यन्त सूक्ष्म अभिलाषा मात्र है, यहाँ सूक्ष्म लोभ का उदय है; इससे इसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं ।। ९९ ।। (११ उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थान का वर्णन (चौपाई ) अब उपशांतमोह गुनथाना । कौं तासु प्रभुता परवांना ॥ जहाँ मोह उपशमै न भासै । यथाख्यातचारित परगासै ॥ १०० ॥ अर्थ - अब ग्यारहवें गुणस्थान उपशांतमोह की सामर्थ्य कहता हूँ । यहाँ मोह का सर्वथा उपशम है - बिलकुल उदय नहीं दिखता और जीव का औपशमिक यथाख्यातचारित्र प्रगट होता है ।। १०० ।। पुनः (दोहा) जाहि फरस कै जीव गिर, परै करै गुन रद्द | सो एकादसमी दसा, उपसम की सरहद्द ॥ १०१ ॥ अर्थ - जिस गुणस्थान को प्राप्त होकर जीव अवश्य ही गिरता है। और प्राप्त हुए गुणों को नियम से नष्ट करता है; वह उपशम चारित्र की चरम सीमा प्राप्त करनेवाला ग्यारहवाँ गुणस्थान है ।। १०१ ।। ... (21) (१२ क्षीणमोह बारहवें गुणस्थान का वर्णन (चौपाई) केवलग्यान निकट जहँ आवै । तहाँ जीव सब मोह खिपावै ॥ प्रगटै यथाव्यात परधाना । सोद्वादस वीनगुनठाना ॥ १०२ ॥ अर्थ - जहाँ जीव मोह का सर्वथा क्षय करता है वा केवलज्ञान बिलकुल समीप रह जाता है और क्षायिक यथाख्यातचारित्र प्रगट होता है; वह क्षीणमोह नामक बारहवाँ गुणस्थान है ।। १०२ ।। उपशमश्रेणी की अपेक्षा गुणस्थानों का काल (दोहा) षट सातैं आवैं नवें, दस एकादस थान । अंतरमुहूरत एक वा, एक समै थिति जान ॥ १०३ ॥ अर्थ - उपशम श्रेणी की अपेक्षा छठवें, सातवें, आठवें, नववें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त वा जघन्य काल एक समय है ।। १०३ ॥ क्षपकश्रेणी में गुणस्थानों का काल (दोहा) छपक श्रेनि आठ नवैं, दस अर वलि बार' । थिति उत्कृष्ट जघन्य भी, अंतरमुहूरत काल ॥। १०४ ।। अर्थ - क्षपकश्रेणी में आठवें, नववें, दसवें और बारहवें गुणस्थान की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त तथा जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त है ।। १०४ ।। ... १- २. यह प्रास र और ल की कहीं कहीं सवर्णता की नीति से निर्दोष है- “रलयोः सावर्ण्य वा वक्तव्यं" सारस्वत व्याकरण ।

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