Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान (८) सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार (दोहा) लोक हास भय भोग रुचि, अग्र सोच तिथि मेव। मिथ्या आगम की भगति, मृषा दर्सनी सेव ||३८॥ अर्थ :- १. लोक-हास्य का भय अर्थात् सम्यक्त्वरूप प्रवृत्ति करने में लोगों की हँसी का भय, २. इन्द्रियों के विषय भोगने में अनुराग, ३. आगामी काल की चिन्ता, ४. कुशास्त्रों की भक्ति और ५. कुदेवों की सेवा - ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं ।।३८ ।। (चौपाई) अतीचार ए पंच परकारा। समल करहिं समकित की धारा।। दूषन भूषन गति अनुसरनी। दसा आठ समकित की वरनी॥३९॥ अर्थ :- ये पाँच प्रकार के अतिचार सम्यग्दर्शन की उज्ज्वल परिणति को मलिन करते हैं। यहाँ तक सम्यग्दर्शन को सदोष व निर्दोष दशा प्राप्त कराने वाले आठ विवरण वर्णन किये ।।३९ ।। मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के अनुदय से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। (दोहा) प्रकृति सात अब मोह की, कहूँ जिनागम जोई। जिनकौ उदै निवारिकै, सम्यग्दरसन होइ||४०।। अर्थ :- मोहनीयकर्म की जिन सात प्रकृतियों के अनुदय से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उन्हें जिनशासन के अनुसार कहता हूँ ।।४० ।। मोहनीयकर्म की सात प्रकृतियों के नाम (सवैया इकतीसा) चारित मोह की च्यारि मिथ्यात की तीन तामैं, प्रथम प्रकृति अनंतानुबंधी कोहनी। बीजी महा-मान रस भीजी मायामयी तीजी, _ चौथी महालोभ दसा परिग्रह पोहनी।। १. देखकर अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान पाँचईं मिथ्यामति छट्ठी मिश्रपरनति, सातईं समै प्रकृति समकित मोहनी। एई षट विगवनितासी एक कुतियासी, सातौं मोहप्रकृति कहावै सत्ता रोहनी ||४१ ॥ शब्दार्थ :- चारितमोह = जो आत्मा के चारित्र गुण का घात करे । अनन्तानुबंधी = जो आत्मा के स्वरूपाचरण चारित्र को घाते-अनन्त संसार के कारणभूत मिथ्यात्व के साथ जिनका बन्ध होता है। कोहनी = क्रोध। बीजी = दूसरी । पोहनी = पुष्ट करनेवाली। विगवनिता = व्याघ्रनी। कुतिया = कूकरी - अथवा कर्कशा स्त्री। रोहनी = ढंकनेवाली। अर्थ :- सम्यक्त्व की घातक चारित्रमोहनीय की चार और दर्शनमोहनीय की तीन - ऐसी सात प्रकृतियाँ हैं। उनमें से पहली अनन्तानुबंधी क्रोध, दूसरी अभिमान के रंग से रंगी हुई अनंतानुबंधी मान, तीसरी अनन्तानुबंधी माया, चौथी परिग्रह को पुष्ट करनेवाली अनंतानुबंधी लोभ, पाँचवीं मिथ्यात्व, छट्ठी मिश्र मिथ्यात्व और सातवीं सम्यक्त्वमोहनीय है। इनमें से छह प्रकृतियाँ व्याघ्रनी के समान सम्यक्त्व के पीछे पड़कर भक्षण करनेवाली हैं और सातवीं कुतिया अर्थात् कुत्ती वा कर्कशा स्त्री के समान सम्यक्त्व को सकंप वा मलिन करने वाली है। इसप्रकार ये सातों प्रकृतियाँ, सम्यक्त्व के सद्भाव को रोकती हैं ।।४१ ।। सम्यक्त्वों के नाम (छप्पय छन्द) सात प्रकृति उपसमहि, जासु सो उपसम मंडित। सात प्रकृति क्षय करन-हार छायिकी अखंडित।। सात मांहि कछु खपैं, कछुक उपसम करि रक्वै। सो क्षय उपसमवंत, मिश्र समकित रस रक्खै ।। षट प्रकृति उपसमै वा खपैं, अथवा क्षय उपसम करै। सातईं प्रकृति जाके उदय, सो वेदक समकित धरै।।४२ ।। शब्दार्थ :- अखंडित = अविनाशी । चक्खै = स्वाद लेवे । खपैं = क्षय करें। (10)

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