Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान विनयवान, पापाचरण से रहित ऐसे इक्कीस पवित्र गुण श्रावकों को ग्रहण करना चाहिये ।।५४ ॥ २४ - बाईस अभक्ष्य (कवित्त ) ओरा घोरबरा निसिभोजन, बहुबी बैंगन संधान | पीपर बर ऊमर कठूबर, पाकर जो फल होइ अजान ॥ कंदमूल माटी विष आमिष, मधु माखन अरु मदिरापान । फल अति तुच्छ तुसार चलित रस, जिनमत ए बाईस अवान ॥५५ ॥ शब्दार्थ :- घोरबरा = द्विदल' । निसिभोजन = रात्रि में आहार करना । संधान = अथाना, मुरब्बा। आमिष = मांस । मधु = शहद। मदिरा = शराब । अति तुच्छ = बहुत छोटे । तुषार = बर्फ । चलित रस = जिनका स्वाद बिगड़ जाय। अखान अभक्ष्य । अर्थ :(१) ओला (२) द्विदल (३) रात्रिभोजन (४) बहुबीजा (५) बैंगन (६) अथाना, मुरब्बा (७) पीपर फल (८) बड़फल (९) ऊमर फल (१०) कठूमर (११) पाकर फल (१२) अजान फल (१३) कंदमूल (१४) माटी (१५) विष (१६) मांस (१७) शहद (१८) मक्खन (१९) शराब (२०) अतिसूक्ष्म फल (२१) बर्फ (२२) चलित रस - ये बाईस अभक्ष्य जैनमत में कहे हैं ।। ५५ ।। प्रतिज्ञा (दोहा) अब पंचम गुनथान की, रचना बरनौं अल्प | जामैं एकादस दसा, प्रतिमा नाम विकल्प ||५६ || अर्थ - अब पाँचवें गुणस्थान का थोड़ा सा वर्णन करते हैं, जिसमें ग्यारह प्रतिमाओं का विकल्प है ।। ५६ ।। १. जिन अन्नों की दो दालें होती हैं, उन अन्नों के साथ बिना गरम किया हुआ अर्थात् कच्चा दूध, दही, मठा आदि मिलाकर खाना अभक्ष्य है । २. जिन बहुबीजन के घर नाहिं, ते सब बहुबीजा कहलाहिं। 'क्रियाकोश' ३. जिन्हें पहिचानते ही नहीं है। (13) देशविरत गुणस्थान ग्यारह प्रतिमाओं के नाम (सवैया इकतीसा ) दर्सनविसुद्धकारी बारह विरतधारी, सामाइकचारी पर्वप्रोषध विधि वहै । सचित कौ परहारी दिवा अपरस नारी, आठौं जाम ब्रह्मचारी निरारंभी है रहै ॥ पाप परिग्रह छंडै पाप की न शिक्षा मंडै, कोऊ या निमित्त करै सो वस्तु न गहै। ऐते देसव्रत के धरैया समकिती जीव, ग्यारह प्रतिमा तिन्हैं भगवंतजी कहै ॥ ५७ ॥ अर्थ :- (१) सम्यग्दर्शन में विशुद्धि उत्पन्न करनेवाली दर्शन प्रतिमा है। (२) बारह व्रतों का आचरण व्रत प्रतिमा है। (३) सामायिक की प्रवृत्ति सामायिक प्रतिमा है। (४) पर्व में उपवास - विधि करना, प्रोषध प्रतिमा है। (५) सचित्त का त्याग सचित्तविरत प्रतिमा है । (६) दिन में स्त्री-स्पर्श का त्याग, दिवामैथुनव्रत प्रतिमा है। (७) आठों पहर स्त्री मात्र का त्याग ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। (८) सर्व आरंभ का त्याग, निरारंभ प्रतिमा है। (९) पाप के कारणभूत परिग्रह का त्याग, सो परिग्रहत्याग प्रतिमा है। (१०) पाप की शिक्षा का त्याग अनुमतित्याग प्रतिमा है । (११) अपने वास्ते बनाये हुए भोजनादि का त्याग, उद्देशविरति प्रतिमा है । ये ग्यारह प्रतिमा देशव्रतधारी सम्यग्दृष्टि जीवों की जिनराज ने कही हैं ।। ५७ ।। प्रतिमा का स्वरूप (दोहा) संजम अंस जग्यौ जहाँ, भोग अरुचि परिनाम | उदै प्रतिग्या कौ भयौ, प्रतिमा ताकौ नाम ॥ ५८ ॥ अर्थ - चारित्र गुण का प्रगट होना, परिणामों का भोगों से विरक्त होना और प्रतिज्ञा का उदय होना; इसको प्रतिमा कहते हैं ।। ५८ ।। दर्शन प्रतिमा का स्वरूप (दोहा) आठ मूलगुण संग्रह, कुविसन क्रिया न कोइ । दरसन गुन निरमल करें, दरसन प्रतिमा सोइ ॥ ५९ ॥

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