Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ समयसारनाटक- गर्भित गुणस्थान अर्थ :- १. जिसके मुख का दर्शन करने से भक्तजनों के नेत्रों की चंचलता नष्ट होती है और स्थिर होने की आदत बढ़ती है अर्थात् एकदम टकटकी लगाकर देखने लगते हैं । २. जिस मुद्रा के देखने से केवली भगवान का स्मरण हो पड़ता है । ३. जिसके सामने सुरेन्द्र की सम्पदा भी तिनके के समान तुच्छ भासने लगती है । ४. जिसके गुणों का गान करने से हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है और ५. जो बुद्धि मलिन थी, वह पवित्र हो जाती है। ६ पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि जिनराज के प्रतिबिम्ब की प्रत्यक्ष महिमा है। जिनेन्द्र की मूर्ति साक्षात् जिनेन्द्र के समान सुशोभित होती है ॥२॥ जिन - मूर्ति पूजकों की प्रशंसा (सवैया इकतीसा ) जाके उर अंतर, सुद्रिष्टि की लहर लसी, विनसी मिथ्यात मोहनिद्रा की ममारखी ॥ १ ॥ सैली जिनशासन की फैली जाकै घट भयौ, गरब को त्यागी षट दरब कौ पारखी ॥२॥ आगम कै अच्छर परे हैं जाके श्रवन मैं, हिरदै-भंडार मैं समानी वानी आरखी । कहत बनारसी अलप भवथिति जाकी, सोई जिन प्रतिमा प्रवांने जिन सारखी ॥३॥ शब्दार्थ :- सुद्रिष्टि = सम्यग्दर्शन । ममारखी = मूर्छा - अचेतना । सैली (शैली) = पद्धति । गरब (गर्व) = अभिमान । पारखी = परीक्षक । श्रवन = कान। समानी प्रवेश कर गई। आरखी (आर्षित) = ऋषि प्रणीत । अलप (अल्प) = थोड़ी । अर्थ :- पण्डित बनारसीदासजी कहते हैं कि - १. जिनके अंतरंग में सम्यग्दर्शन की तरंग उठकर मिथ्यात्व मोहनीयजनित निद्रा की असावधानी नष्ट हो गई है। २. जिनके हृदय में जैनमत की पद्धति प्रगट हुई है। (4) भूमिका ३. जिन्होंने मिथ्याभिमान का त्याग किया है। ४. जिन्हें छह द्रव्यों के स्वरूप की पहिचान हुई है। ५. जिन्हें अरहंत कथित आगम का उपदेश श्रवणगोचर हुआ है। ६. जिनके हृदयरूप भंडार में जैन ऋषियों के वचन प्रवेश कर गये हैं। ७. जिनका संसार निकट आया है, वे ही जिन-प्रतिमा को जिनराज सदृश मानते हैं ।। ३ ।। प्रतिज्ञा (चौपाई) जिन - प्रतिमा जन दोष निकंदै । सीस नमाइ बनारसि बंदै ॥ फिरि मन मांहि विचारै ऐसा । नाटक गरंथ परम पद जैसा ||४ || परम तत्त परचै इस मांही। गुनथानक की रचना नांही ॥ मैं गुनथानक रस आवै । तो गरंथ अति शोभा पावै ॥५ ॥ शब्दार्थ :- निकंदै = नष्ट करे। गुनथानक = गुणस्थान । मोह और योग के निमित्त से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्मा के गुणों की तारतम्यरूप अवस्था विशेष को गुणस्थान कहते हैं । यामैं इसमें रस = चर्चा / भाव । अर्थ :- जिनराज की प्रतिमा भक्तों के मिथ्यात्व को दूर करती है। इस जिनप्रतिमा को पण्डित बनारसीदासजी ने नमस्कार करके मन में ऐसा विचार किया कि यह नाटक समयसार ग्रंथ परमपदरूप है और इसमें आत्मतत्त्व का व्याख्यान तो है; परन्तु गुणस्थानों का वर्णन नहीं है। यदि इसमें गुणस्थानों की चर्चा सम्मिलित हो तो ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हो सकता है ।।४-५ ।। (दोहा) इह विचारि संछेप सौं, गुनथानक रस चोज । वरन करै बनारसी, कारन सिव-पथ खोज ||६ ॥

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