Book Title: Gunsthan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 3
________________ संपादकीय 'गुणस्थान' विषय का विशेष सूक्ष्म अध्ययन करने की भावना से मैंने समयसार नाटक का गुणस्थान अधिकार देखा। मुझे अच्छा लगा। इससे पूर्व इतनी महिमा मुझे इस अधिकार की नहीं आयी थी। मैंने सोचा इस गुणस्थान अधिकार को स्वतंत्ररूप से संपादित करके छोटी पुस्तक बनायी जाय तो जिज्ञासु लोग इस विषय का अध्ययन करने में और विशेष रुचि लेंगे। पण्डित बनारसीदासजी ने गुणस्थान के वर्णन में चरणानुयोग की दृष्टि से अच्छा कथन किया है। पंचम देशविरत गुणस्थान के ११ प्रतिमाओं के प्रकरण में प्रत्येक प्रतिमा का भिन्न-भिन्न कथन किया है। यह कथन अन्यत्र दुर्लभ है। २२ अभक्ष्य, श्रावक के २१ गुण, मिथ्यात्व के भेद आदि कथन भी विशेष है। कर्मसापेक्षा सम्यक्त्व के नौ भेद भी एक दृष्टि से नया कथन लगा। कर्म के क्षयोपशम आदि का जटिल कथन भी छंदबद्ध करना वास्तव में ही टेडी खीर है; तथापि पण्डितजी इस कार्य में विशेष सफल सिद्ध हुए हैं। मैंने संपादन के कार्य में कुछ नया विशेष काम किया नहीं; तथापि जो बन चुका है, उसका ज्ञान करना चाहता हूँ। १. अधिकार के प्रारम्भ में भूमिका विभाग स्वतंत्र दिया है। २. वर्तमानकाल में प्रचलित नाटक समयसार के पूर्व प्रकाशित प्रति के माध्यम से छन्दों को शुद्ध बनाने का प्रयास किया है। ३. छंद, हैडिंग, कठिन शब्द, शब्दार्थ, सबका टाईप अलग-अलग किया है। ४. विशेष विषय को बड़े अक्षरों में दिया है। ५. छन्द के अर्थ में भी अनुच्छेद बनाये हैं। ६. जहाँ आवश्यकता लगी वहाँ अर्थ में १,२,३ आदि अंक बड़े अक्षरों में दिये हैं। इसकारण अध्ययन करने में अनुकूलता होगी। ७. फोलिओ में भी गुणस्थान के अनुसार स्पष्ट विभाजन किया है, जो पहले नहीं था। इसकारण से अपेक्षित गुणस्थान का ज्ञान करना सुलभ हो गया है। ८. गुणस्थान को क्रमांक देकर एक-दूसरे से स्पष्टरूप से अलग दिखाया है। - ब्र. यशपाल जैन कविवर पंडित बनारसीदासजी विरचित समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान भूमिका मंगलाचरण (दोहा) जाकी भक्ति प्रभाव सौं, कीनौ ग्रन्थ निवाहि । जिन-प्रतिमा जिन-सारखी, नमै बनारसि ताहि॥१॥ शब्दार्थ - सारखी = सदृश । निवाहि = निर्वाह । अर्थ - जिसकी भक्ति के प्रसाद से यह ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हुआ, ऐसी जिनराज सदृश जिन-प्रतिमा को पण्डित बनारसीदासजी नमस्कार करते हैं।।१।। जिन-प्रतिबिम्ब का माहात्म्य (सवैया इकतीसा) जाके मुख दरस सौं भगत के नैननि कौं, थिरता की बानि बदै चंचलता विनसी। मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद आवै जहाँ, जाके आगै इंद्र की विभूति दीसै तिनसी।। जाकौ जस जपत प्रकास जगै हिरदे मैं, सोइ सुद्धमति होइ हुती' जु मलिनसी। कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सोहै जिन की छबि सुविद्यमान जिनसी ॥२॥ शब्दार्थ :- बानि = आदत । बिनसी = नष्ट हुई। विभूति = सम्पत्ति । तिनसी (तृणसी) = तिनका के समान । मलिनसी (मलिन सी) = मैली सरीखी। जिनसी = जिनदेव सदृश । १. 'कुमति मलिनसी' ऐसा भी पाठ है। (3)

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