Book Title: Ghasilalji Maharaj ka Jivan Charitra Author(s): Rupendra Kumar Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना जैनचार्य जैनधर्मदिवाकर साहित्य महारथी आचार्यवर्य परम श्रध्देय पूज्यश्री घासीलालजी महाराज स्थानकवासी जैन समाज के एक प्रसिद्ध विद्वान थे । आचार विचार में उच्चकोटी के थे । सहिष्णुता, दया, वैराग्य, चारित्रनिष्ठा, साहित्यसेवा तथा समाजसेवा के अक्षय निधि थे । आपकी जीवन सम्बन्धी अनेक विध गुण सम्पदाओं की ओर नजर डालते हैं तब निस्संकोच कहा जा सकता है कि आप आध्यात्मिक जगत के चमकते सितारे थे। वैसे तो हमारे चरित्रनायक श्री के सभी गुण अनुपम थे हि किन्तु जैन आगम साहित्य विषयक आपका अमयादित प्रयास अनुपमेय था । आपके जीवन का अधिकांश भाग आगमों की टीका एवं की रचनाओं में ही व्यतीत हुआ। आपका साहित्य निर्माण विषयक जो भगीरथ प्रयत्न रहा स्थानकवासी समाज के निकटवर्ती इतिहास में वह किसी अन्य मुनि का नहीं रहा । स्थानकवासी समाज में ऐसा भी युग था जब कि मुनिराजों को संस्कृत पढना हेय माना जाता था। किन्तु महान आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज ने इस दिशा में महानक्रान्तीकारी कदम उठाए । आपने अपने योग्य शिष्य पं. रत्नश्री घासीलालजी महाराज को संस्कृत प्रकाण्ड पण्डित बनाकर समाज की अपूर्व सेवा की । गुरुदेव से शिक्षा प्राप्तकर आपने अपना समस्त जीवन साहित्य के निर्माण में लगा दिया । एक विचारक का कथन है कि प्रायः जन-समाज के चित्त में चिन्तन का प्रकाश ही नहीं होता । कुछ ऐसे भी विचारक होते हैं जिनके चित्त में चिन्तन को ज्योति तो जगमगा उठती है परन्तु उसे वाणी के द्वारा प्रकाशित करने को क्षमता ही नहीं होती । और कुछ ऐसे भी होते हैं जो चिन्तन कर सकते हैं अच्छी तरह बोल भी सकते हैं परन्तु अपने चिन्तन एवं वक्तव्य को चमत्कार पूर्ण शैली से लिखकर साहित्य का रूप नहीं दे सकते । पूज्यश्री ने तोनों हो भूमिकाओं में अपूर्वसिद्धि प्राप्त की थी। जहां आपका चिन्तन और प्रवचन गम्भीर था वहां आपकी साहित्यिक रचनाए भी अतीव उच्चकोटि की है। पूज्यश्री के साहित्य में पूज्यश्री की आत्मा बोलती है । इनकी रचनाएँ केवल रचना के लिए नहीं हैं, अपितु उनमें इनके शुद्ध पवित्र एव संयमी जीवन का अन्तर्नाद मुखरित है । साहित्य समाज का दर्पर्ण होता है, ठीक है, परन्तु इतना ही नहीं, वह स्वयं लेखक के अन्तर्जिवन का भी दर्पण होता है, पूज्यश्री का साहित्य आत्मानुभूति का साहित्य है, व्यक्ति एवं समाज के चरित्र निर्माण का साहित्य है । पूज्यश्री की साहित्य गंगा में कहीं सैद्धान्तिक तत्त्व चर्चा की गहराई है, तो कहीं चरित्र ग्रन्थों की उत्तगं तरंगे हैं, कहीं स्तुति, भजन, और उपदेश पदों का भक्ति प्रवाह है तो कहीं अध्यात्मिक भावना का मधुर घोष है । आपके द्वारा रचित अनेक विध स्फुट अध्यात्मपद आज भी सहस्र जनकण्ठों से मुखरित होते रहते हैं । पूज्यश्री के द्वारा लिखित साहित्य का अधिकांश भाग अभी अप्रकाशित पडा है । आपके द्वारा रचित साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं आगम साहित्य१-ग्यारह अंग सूत्र टीका के नाम १-आचारांग आचारचिंतामणि २-सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी ३-स्थानांग सुधाख्या ४-समवायांग भावबोधनो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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