Book Title: Gathasahastri
Author(s): Samaysundar, 
Publisher: Zaveri Mulchand Hirachad Bhagat Mumbai

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Page 65
________________ गाथासहस्त्री। सु पुच्छा य विंझस्स ।। ७३० ॥ पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समन्नोइ । एवं पुट्ठमबद्धं, जीवं कम्मं समन्नेह [इ] ॥ ७३१ ॥ [इति गोष्ठामाहिलः सप्तमो निहवः॥७॥1 छवास सयाई नवुत्तराहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो बोडिआण दिट्ठी, रहबीरपुरे समुप्पना ॥७३२॥ [इति दिगम्बरमतप्रवर्तकः सहस्रमल्लनामा सर्वविसंवादी अष्टमो निहवः ॥ ८॥ आ. चू. पृ. ४२७] एताः षोडश गाथाः श्रीआवश्यकचूर्णितो लिखिताः सन्ति । आसां व्याख्या सम्बन्धसहिता मत्कृत विशेषसवहतो ज्ञेया ॥ ___ हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं, देशान्तरे विधिवशागणिकाऽस्मि जाता। पुत्रस्य संगमधिगम्य चितां प्रविष्टा, शोचामि गोपगृहिणी कथमच तक्रम् ॥ ७३३ ॥ ___ आहाकम्मपरिणओ, फासुअभोईवि बंधओ होइ । सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मेवि सो सुद्धो ।। ७३४ ॥ [इति पिण्डनियुक्तौ २०७ गाथेयम् ७४ पत्रे ॥ ] जह जह पएसिणी जाणुगंमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुं डरायरस ।। ७३५ ॥ [इति पिण्डनियुक्तौ ४९८ गाथासम्बन्धः श्रीमलयगिरिकृत वृत्तौ पृ० १४२] मिक्तं पविटेण मएऽज दिटुं, पमयामुहं कमलविलासनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुटु नायं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३६ ॥ फलोदएणं मि गिहे पविट्ठो, तत्थासणत्था पमया मि दिहा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नाय, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३७ ॥ मालाविहारंमि मएऽज्ज दिट्ठा उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुह नायं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३८ ॥ खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पओगे गयमाणसस्स । किं मज्झ एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३९ ॥ उल्लो सुक्को अ दो छूढा, गोलया मट्टिआमया । दोऽवि आवडिआ [कुहे] भित्ते, जो उल्लो तत्थ [सोध्थ] लग्गई ॥७४०॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥ ७४१॥ [आचाराशनियुक्तौ चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकमान्ते १७० पत्रे गाथाषट्कम् ॥] नेसप्पे १ पंडुयए २, पिंगलए ३ सपरयण ४ महपउमे ५ । काले अ६ महाकाले ७, माणवग ८ महानिहीं संखे ९ ॥ ७४२ ॥ [इति नवनिधिनामानि ॥] चकहपइठ्ठाणा, अहुस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारस दीहा मंजूससंठिआ जण्हवीए मुहे ॥ ७४३॥ [इति याभ्यः सकाशामव निधानानि निस्सरन्ति तास मञ्जूषाणां मानम् ॥] वेरुलिअमणिकवाडा, कणयमया विविहरयणसंपुण्णा । ससिसूर 'चकलक्षण अणुसमवयणो ववत्तीया ॥ ७४४ ॥ [इति मञ्जूषास्वरूपम् प्रवचने ५०६ ॥] [अंतमुहत्तं, जहनिओ किहिओ असंखिजं । सेवंति विसयसेवा, नायचा सवदेवाणं ॥ १ ॥ एवं देवाणु खलु, उज्जअ हाणी उ जइवि संभवइ । तइआओ रूवसंपय, अखंखगुणयाओ देवाणं ॥ २ ॥ वक्खोए वेमाणिय, कंठे तह होइ जोइसाणं तु। भुइमा भवणयराणं, सीसट्ठाणेसु भुवणाई ॥ ३ ॥ सामन्ना य तायत्तीसा य, पारयियारक्खलोअपाला य । अणीयपइनभिओगा, किनिसिय "Aho Shrut Gyanam"

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