Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
RST
-
CELL શ્રેય જીર્ણોદ્ધાર
-: સંયોજક :શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવના હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫.
મો. ૯૪૨૬૫ ૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૦૭૯-૨૨૧૩૨૫૪૩
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
“અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર ૧૦૦
ગાથાસહસ્ત્રી
: દ્રવ્ય સહાયક:
પૂજ્ય આગમોદ્ધારક આનંદસાગરસૂરીશ્વરજી સમુદાયના
પૂ. સાધ્વીજી શ્રી નિરંજનાશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂ. સાધ્વીજી શ્રી નિત્યાનન્દશ્રીજી મ.સા.ના શિષ્યા પૂ. સાધ્વીજી શ્રી કીર્તીપૂર્ણાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી આશાપૂરણ ફ્લેટની આરાધક શ્રાવિકાઓના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
સંયોજક શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-380005
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૭ ઈ.સ. ૨૦૧૧
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
"Aho Shrut Gyanam"
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
પૃષ્ઠ
238
286
54
007
810
850
322
280
162
302
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૫ (ઈ. ૨૦૦૯- સેટ નં-૧ ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
કર્તા-ટીકાકાસંપાદક 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
पू. विक्रमसूरिजीम.सा. 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
पू. जिनदासगणिचूर्णीकार । | 003 श्री अर्हद्रीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणिम.सा. 004 श्री अर्हच्चूडामणिसारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामीम.सा. 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
| पू. पद्मसागरजी गणिम.सा. 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजीम.सा. अपराजितपृच्छा
| श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्पस्मृति वास्तु विद्यायाम्
| श्री नंदलाल चुनिलालसोमपुरा 009 शिल्परत्नम्भाग-१
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 010 | शिल्परत्नम्भाग-२
| श्रीकुमार के. सभात्सवशास्त्री 011 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे 013 प्रासादमञ्जरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारतीगोसाई 015 शिल्पदीपक
| श्री गंगाधरजी प्रणीत | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 017 दीपार्णव उत्तरार्ध
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई જિનપ્રાસાદમાર્તડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા | जैन ग्रंथावली
| श्री जैन श्वेताम्बरकोन्फ्रन्स 020 હીરકલશ જૈનજ્યોતિષ
શ્રી હિમ્મતરામમહાશંકર જાની न्यायप्रवेशः भाग-१
| श्री आनंदशंकर बी.ध्रुव 022 | दीपार्णवपूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग
पू. मुनिचंद्रसूरिजीम.सा. | अनेकान्तजयपताकाख्यं भाग२
| श्री एच. आर. कापडीआ 025 | प्राकृतव्याकरणभाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराजदोशी तत्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट बी. भट्टाचार्य | 027 शक्तिवादादर्शः
श्री सुदर्शनाचार्यशास्त्री
156
352
120
88
110
018
498
019
502
454
021
226
640
452
024
500
454 188
026
214
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
028
414
192
824
288
520
578
278
252
324
302
038
196
190
202
| क्षीरार्णव
| श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 029 वेधवास्तुप्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई | 030 શિલ્પપત્રીવાર
| श्री नर्मदाशंकरशास्त्री 031. प्रासाद मंडन
पं. भगवानदास जैन 032 | શ્રી સિદ્ધહેમ વૃત્તિ વૃતિ અધ્યાય પૂ. ભવિષ્યમૂરિનમ.સા. 033 श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्यायर पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 034 | શ્રીસિમ વૃત્તિ ચૂક્યાસ અધ્યાય છે પૂ. ભાવસૂરિનીમ.સા. 035 | શ્રસિહમ વૃત્તિ ચૂદાન અધ્યાય (ર) (૩) પૂ. ભવિષ્યમૂરિનીમ.સા. 036 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृति बृहन्न्यास अध्याय५ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. | 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા તિલકમન્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 | તિલકમન્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 040 તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી 042 સપ્તભીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 | સામાન્ય નિયુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 | સપ્તભળીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 047 વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી 048 | નયોપદેશ ભાગ-૧ તરકિણીતરણી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 050 ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 051 સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 | બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી જ્યોતિર્મહોદય
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
041.
480
228
043
6o
044
218
190
138
296
2io
049.
274
286
216
052
532
13
112
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
પાદક | પૃષ્ઠ !
160
202
48
322
અહો શ્રુતજ્ઞાનમ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર- સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦ - સેટ નં-૨ ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ભાષા કર્તા-ટીકાકા(સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वत्ति बूदन्यास अध्याय-६
पू. लावण्यसूरिजीम.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
पू. जिनविजयजी म.सा. 057 | भारतीय हैन श्रम संस्कृति सने मना शु४. पू. पूण्यविजयजी म.सा.
164 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
| सं श्री धर्मदत्तसूरि
। 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि 0608न संगीत राजमाता
| . श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 306 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ | 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 | 063 चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
पू. मेघविजयजी गणि
516 064 विवेक विलास
सं/J. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 सन्मतितत्त्वसोपानम्
|सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 0676शमादा ही गुशनुवाई | गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
638 068 मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा.
192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/J. श्री अंबालाल प्रेमचंद | 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य |
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073| मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 0748न सामुद्रिनi iय jथी
J४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र इल्पद्र्भ साग-१
४४. श्री साराभाई नवाब
374
420
406
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
076 | જન વિને
જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 7 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 7 | ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 079 | શિલ્પ ચિતામણિ ભાગ-૧
080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧
114
08 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ 082 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083 આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ 084 | કલ્યાણ કારક 085 | વિશ્વનયન વોશ 086 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 087
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 હસ્તસગ્નીવનમાં
| ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ
238 | ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવાવ
194 ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ
192 ગુજ. | શ્રી મનસુહાનાન્ન મુવમન | 254 ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારીમ
260 ગુજ. | શ્રી નાગનાથ મંવારમ
238 ગુજ. | શ્રી નવીન્નાથ મંવારમ
260 ગુજ. | પૂ. વરાન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પાર્શ્વનાથ શાસ્ત્રી
910 सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा
436 ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન કોશી
336 | ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરાન તોશી |
230 સં. | પૂ. મે વિનયની
પૂ.સવિનયન, પૂ.
पुण्यविजयजी | आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 560
088 .
322
114
089 એ%ચતુર્વિશતિકા 090 સમ્મતિ તક મહાર્ણવાવતારિકા
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक शाहबाबुलाल सरेमल (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळावेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं. ३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
कर्त्ता / टीकाकार भाषा वादिदेवसूरिजी सं.
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल नाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ३
वादिदेवसूरिजी
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ४
वादिदेवसूरिजी
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ५
वादिदेवसूरिजी
पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
-
समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भुवनदीपक
गाथासहस्त्री
भारतीय प्राचीन लिपीमाला
शब्दरत्नाकर
सुबोधवाणी प्रकाश
लघु प्रबंध संग्रह
जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
सन्मतितर्क प्रकरण भाग - १, २, ३
सन्मतितर्क प्रकरण भाग - ४, ५ न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
-
—
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर
सतिषचंद्र विद्याभूषण
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं. गु
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
मोतीलाल लाघाजी पुना
मोतीलाल लाघाजी पुना
मोतीलाल लाघाजी पुना
साराभाई [नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
सुखा
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इस्टी. बरोडा
आगमोद्धारक सभा
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
307
250
514
454
354
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
109
110
111
112
113
114
115
116
117
118
119
120
121
122
123
124
125
126
जैन लेख संग्रह भाग - १
जैन लेख संग्रह भाग - २
जैन लेख संग्रह भाग - ३
जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
जैन प्रतिमा लेख संग्रह
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाह
कांतिसागरजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
प्राचिन लेख संग्रह - १
बीकानेर जैन लेख संग्रह
प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -२
गुजरातना ऐतिहासिक लेखो -३
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-१
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल-४
ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. पी. पीटरसन इन मुंबई सर्कल
कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
विजयदेव माहात्म्यम्
पी. पीटरसन
जिनविजयजी
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं./गु
सं. गु
सं./ह
सं./हि
सं./ह
सं. गु
सं./गु
सं./गु
अं.
अं.
अं.
सं.
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपार्टमेन्ट, भावनगर जैन सत्य संशोधक
337
354
372
142
336
364
218
656
122
764
404
404
540
274
414
400
320
148
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिनदत्तसूरिप्राचीनपुस्तकोद्धारफण्ड(सुरत)ग्रन्थाङ्कः-४३
अहम् ।
COAIWAN
श्रीमत्खरतरगच्छाधीश्वर-श्रीअकबरसाहिप्रतियोधक-जङ्गम-युगप्रधान-भट्टारक-श्रीमजिनचन्द्रसूरिशिष्य-पण्डितप्रवर-महोपाध्याय-सकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्याय
श्रीसमयसुन्दरगणिग्रथिता
श्री गाथासहस्त्री।
AINAKALA
WWWDO
न
जङ्गम-युगप्रधान-भट्टारक-श्रीमजिनकृपाचन्द्रसूरीश्वराणां शिष्यरत्नोपाध्यायश्रीसुखसागरोपदेशात् (मुम्बय्या) कोटस्थानस्थ-श्रीशान्तिनाथजैनमन्दिरपेढीकार्यवाहकप्रदत्तेन शा. मानचन्दभाई मगनभाई श्रेष्टिवर्यस्य धर्मपत्नी श्रीमती चुनीवाईप्रदत्तेन च द्रव्यसाहाय्येन
मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये
मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् ।
प्रकाशक-जव्हेरी मुलचन्द हीराचन्द भगत, मुम्बई ।
विक्रमसंवत् १९९६
प्रतयः-५०० भेट
ईखीसन् १९४०
COL
4
"Aho Shrut Gyanam"
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यसाहाय्यक१५१) श्रीशान्तिनाथस्वामि-जैनमन्दिर पेढी, कोट, (मुम्बई) १००) शा. मानचन्दभाई मगनभाई धर्मपत्नी चुनीबाई, (पालनपुर-निवासी)
Published by Jhaweri Moolchand Hirachand Bhagat, Mahavir Jain Mandir, Pgdhuni, Bombay,
Printed by Ramchandra Yesu Shedge, Nirnaya Sagar Press, 26–28 Kolbhat Street, Bombay.
पुस्तकमाप्तिस्थानम्-- श्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभंडार, ठि० गोपीपुरा,
सीतलवाडी उपासरा, मु० सुरत
"Aho Shrut Gyanam"
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sो
निवेदनम्
सुप्रसिद्ध कविवर्य उपाध्याय श्रीसमयसुंदरगणि संगृहीत यह "गाथासहस्री" नामक ग्रन्थरन विद्वज्जनोंके विनोदार्थ प्रकाशित किया जा रहा है इनका अस्तित्वसमय सत्रहवाँ (१७) शताब्दी है । श्रीजिनचंद्रसूरिजीके मुख्य शिष्य उ० सकलचंद्रगणि थे ( कल्पसूत्र कल्पलताटीका पृ. ६८२) उनके शिष्य समयसुन्दरजी थे जिन्होने लघुवयमेंही तर्क-व्याकरण-साहित्य वगैरहका इन्होंने अभ्यास करलिया था ओर गुरुमुखसे जैनागमोंका अभ्यासकरके फलखरूप संस्कृतभाषामें ग्रंथोंकी रचना की और बहुतसे स्तवन-रास-चोपाइ वगैरह गुजरातिभाषामें निर्माण किये। __ प्रस्तुत ग्रंय उ० समयसुन्दरजी ने सं. १६८६ में रचा है । यह ग्रंथ पंडित जनोंके मुखकी शोभा रूप तांबुलके सदृश है और व्याख्यानदाताओंके लिये तो बहुतही उपयोगी है ग्रंथकार खुदही इस प्रकार कहते है
व्याख्याचातुर्यवान्छा यदि भवति तदा शास्त्रमेतत् समग्रम् ,
कंठे कृत्वा विशेषाऽवगमपरमार्थ गृहीरवा गुरुतः । व्याख्याकाले विचाले प्रवरमवसर प्राप्य वाच्यं प्रसकं,
सभ्येभ्यानां पुरस्तात् चतुरनरचमत्कारकारं च भावि ॥३॥ (पृ. ५०) यदि आप प्रखर वक्ता बनना चाहते हो तो यह सारा ग्रन्थ मुँह जबान करके, गुरुके मुखारविंदसे ग्रन्थका गूढार्थ समझके हरहमेश सभा समक्ष प्रवचन करते समय समयानुसार सुभाषित पद्य बोलनेसे, सज्जनोंके चित्तको ( आप अवश्य ) भाश्चर्य करनेवाले होगे. आभारदर्शन[१] श्रीमोहनलालजी ज्ञानभण्डार (सूरत), [२] श्रीजिनदत्तमूरि ज्ञानभण्डार (सूरत)
[३] श्रीजिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार (बम्बई), [४] श्रीजिनकृपाचंद्रसूरि ज्ञानभण्डार (बीकानेर) प्रस्तुतः ग्रन्थरत्न संशोधन करनेमें उपरोक्त भंडारोंकी प्रतियों की सहायता ली गई है अतएव उक्त भण्डारोंके सञ्चालकमहाशयोंको और द्रव्यसहायक सज्जनोंको यहाँपर धन्यवाद दिया जाता है.
१ कल्पसूत्रकी कल्पलताटीका जो इसी सीरीझकी ओरसे प्रकाशित हो चुकी है-जिसमें H. D. वेलणकर (प्रो० ऑफ संस्कृत विल्सन कॉलेज, बॉम्बे) महाशयका विद्वत्तापूर्ण लिखा हुआ Introduction है और श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाई (B. A. LL B. Adverante) का अति परिश्रमसे लिखा हुआ उपोद्घात दिया गया है इस ग्रंथको देखने से ही इसका महत्व विद्वानोंको अच्छी तरहसे ज्ञात हो सकेगा।
२ समयसुन्दरजी महाराज जैसे बाल्यावस्थ में विद्या की ओर प्रेम रखते थे उसी तरह बड़ी अवस्थामें अपने शिष्यों को भी विद्वान बनाने के लिये परिश्रम करते थे। उन्होंने अपने बाल मुनि शेंको बोध देनेके लिये एक खाध्याय भी बनाया था जो इस प्रकार है
भणोरे चेलाभाई भणोरे भणो, भण्या मामसने आदर घणो। भण्याने हुए भलो वहगवणो, सखरवस्त्र पहिर ओढणो । पद हुवे वाचक पाठक तणो, बाजोठ उपर बेसणो। भणिया पाखे दुख देखणो, खांधे झोली हाथमें दोहणो (= घडो)।
समयसुन्दररो शब्द मानणो, इह परलोक सुहावणो । इति ।। ३ संवत् १७६२ वर्षे कार्तिक बदि पांचमी दिने बुधवारे श्रीमत्पत्तने सालविपाटके श्रीजिनचन्द्रसूरिविजयराज्ये लिखिता प्रतिरियं विनेय पं० रंगविलासेन श्रीरस्तु ।
४ संवत् १८.६ मिति वैशाख शुक्ल कादश्यां ११ तिघौ गुरुवारे लि.पतं पं० मतिमंदिरेन इदं पुस्तिका श्रीरस्तु । ५ संवत् १९५६ श्रावण वद १३ पं. रिद्धकर्ण ॥
-
-
-..
...
"Aho Shrut Gyanam"
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
संशोधन
"श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार फण्ड'-(सूरत) से ४१ वाँ "सामाचारी शतक नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया गया है उसके निवेदनमें “४ प्रति पटना संडारमाथी साहित्यप्रेमी भुमि श्री पुश्यवियना अनुग्रहथी" इस प्रकार लिखा है लेकिन वह प्रति पाटनके भण्डारकी न समझकर प्रवर्तक मुनि श्रीकान्तिविजयजीके भंडारकी समझना.
पूज्य गुरुवर्य श्रीउपाध्याय सुखसागरजीमहाराज ने यह ग्रन्थका संशोधन करनेमें अति परिश्रम उठाया है, और श्रीयुत मोहनलाल भगवानदास झवेरी सोलिसिटर महाशयने भी ग्रुफ देखने में स्वसमयका भोग दिया है और इस ग्रंथकी प्रस्तावना तथा ग्रंथसार लिखनेका भी परि श्रम लिया है प्रस्तुत ग्रन्थमें किसी भी तरहकी अशुद्धि रहगई हो तो सज्जन महाशय सुधारेंगे और पठन-पाठन कर संशोधक महाशयका परिश्रम सफल करेंगे यही शुभेच्छा.
संवत् १९९६ मार्गशीर्ष शु.३ ता० १३-१२-३९, बम्बई.
निवेदकमुनिमंगलसागर.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
પ્રસ્તાવના
सच्छंदा य सरूवा सालंकारा य सरसउल्लावा । वरकामिणिच गाहा गाहिजंती रसं देई ।। ८३३ ॥
ગ્રંથકર્તા ને ચંથરચનાકાળ આ ગ્રંથ “ગાથાસહસ્ત્રી ના કર્તા ઉપાધ્યાય શ્રીસમયસુંદર છે. યુગપ્રધાન શ્રીજિનચંદ્રસૂરિ, કે જે ખરતરગચછના એક સુપ્રસિદ્ધ આચાર્ય હતા, ને જેણે સમ્રાટ અકબરને સંવત્ ૧૬૪૯માં લાહોરમાં જૈન ધર્મનો ઉપદેશ કર્યો હતો, તેમના શિષ્ય ઉપાધ્યાય શ્રીસકલચંદ્રગણિના તેઓ શિષ્ય હતા. આ ગ્રંપ ઉપાધ્યાય ગ્રીસમયસુંદરે સંવત્ ૧૬૮૬માં રચ્યો હતો.
ગાથાસમતી અને ગાથાસહસ્ત્રી આ ગ્રંથમાં ભિન્ન ભિન્ન આગમ તેમજ પ્રકરણ ગ્રંથોમાંથી વ્યાખ્યાનમાં ઉપયોગી થઈ પડે, તેમજ ધર્મચર્ચાઓમાં પણ પ્રમાણભૂત ગણાય, તેવાં અવતરણોનો તેમજ કેટલાંક સુભાષિતો ને અન્યોક્તિઓનો સંગ્રહ કરવામાં આવ્યો છે; મોટે ભાગે ગાથાઓનો જ સંગ્રહ છે. જૈનેતર ગ્રંથો મહાભારત, પાપુરાણ, માનવી સૃતિ આદિમાંથી પણ ઉતારા અપાયા છે. આ ગ્રંથનું નામ “ગાથાસહસ્રી” રાખ્યું છે, તે પરથી પ્રસિદ્ધ ગાથાસમતી”નું આપણને સહજ સ્મરણ થાય. પ્રસિદ્ધ જૈનાચાર્ય પાદલિપ્તસૂરિ, જે પાલિત્ત કવિ તરીકે પણ જાણિતા છે, તેણેજ “ગાથા સપ્તશતી'માંની ગાથાઓનો મોટો ભાગ રચો છે એવી માન્યતા હોઈ પ્રસ્તુત ગાથા સંગ્રહ કરવાને ગ્રંથકર્તાને પ્રેરણા મળી હોય; અને “ગાથાસસરાની ’ જેમ રાંગરિક સુભાષિતોનો હૃદયંગમ રસમય સંગ્રહ છે, તેવોજ શાંતરસનો સમય સંગ્રહ કરવાનો ઉદ્દેશ ગ્રંથકર્તાનો હોય તે સંભવિત છે. બનવા જોગ છે કે અનું નામ પણ ‘ગાથાસંતશતી રાખવાનો શરૂમાં તેમનો ઈરાદો હોય, કારણ કે છેવટના ભાગનાં સંરકૃત સુભાષિતો બાદ કરીએ તો સાડાસાતસોની આસપાસ પ્રાકૃત સૈદ્ધાંતિક ગાથાઓની સંખ્યા થાય છે. પછી ગ્રંથનું નામ જુદું રાખવું જોઈએ એ હેતુથી, કે સંગ્રહમાં ગાથાઓ વધી જવાથી-જે કે પૂરી સહસ્ત્ર નથી પણુ-લગભગ સહસ્ત્ર હોવાથી, ગ્રંથનું નામ “ગાથાસહસ્ત્રી” પસંદ કરવામાં આવ્યું હોય.
બન્ને ગ્રંથો વચ્ચે બીજી રીતે મુકાબલો યોગ્ય નથી, કારણ કે “ગાથા સપ્તશતીમાં કેવળ શૃંગાર રસને પોષવાના હેતુથી કાવ્યની દષ્ટિએ ઉત્તમ કોટિની ગાથાઓનો સંગ્રહ કરવામાં આવ્યો છે; જ્યારે અહિયાં તો વ્યાખ્યાનમાં તથા ધર્મચર્ચામાં સંક્ષેપથી પણ સચોટ રીતે કથન કરી શકાય એવી સુંદર ગાથાઓનો સંગ્રહ કરવામાં આવ્યો છે. ટૂંકમાં અહિયાં સંગૃહીત ગાથાની સંસ્થાના પ્રમાણમાં મોટી સંખ્યાના વિષયની ચર્ચા તથા માહિતી મળે છે. આ જ કારણે ગ્રંથનો કંઈક વિસ્તૃત સારી નીચે આપવામાં આવ્યો છે. તે પરથી વાચકને ઉપાધ્યાય શ્રી સમયસુંદરનાં સૈદ્ધાંતિક ગ્રંથોનું તેમજ અન્ય ગ્રંથોનું વિશાલ વાચન, વિવેચક બુદ્ધિ, હૃદયંગમતા. સભારંજકતા, વ્યાખ્યાન-કુશલતા આદિનો ખ્યાલ આવશે અને તેની બહુશ્રુતતા પ્રતીત થશે.
ગ્રંથકર્તાનું ચરિત્ર તથા તેના અન્યગ્રંથો ઉપાધ્યાય શ્રીસમયસંદરમણિનો જન્મ સાચોર-સત્યપુર (જે સ્થળ શ્રી મહાવીરસ્વામિના પ્રસિદ્ધ ચૈત્યને લઈને ખૂબ ખ્યાતિ પામ્યું હતું)માં થયો હતો. તે હકીકત તેમણે સ્વરચિત “સીતારામ ચોપાઈ’ના છઠા ખંડની ત્રીજી ઢાળમાં જણાવી છે. પોરવાડ જ્ઞાતિના રૂપશી પિતા તથા લીલાદે માતાથી તેમનો જન્મ થયો હતો. તેમની જમસાલ ચોક્કસ મળી નથી; પણ તે સંવત ૧૯૨૦ની આસપાસ હશે એમ તેમણે રચેલા પહેલા સંસ્કૃત ગ્રંથ “ભાવશતક'ની સાલ સંવત ૧૬૪૧ છે તે પરથી લાગે છે. વળી તેમને દીક્ષા આપનાર શ્રીજિનચંદ્રસૂરિને સૂરિપદ સ. ૧૬૧૨માં મળ્યું હતું તે પરથી શ્રીસમયસુંદરને સં. ૧૬૧૨ પછી જ દીક્ષા આપવામાં આવી હશે તે સિદ્ધ થાય છે. સંવત ૧૬૨૮ના શ્રીજિનચંદ્રસૂરિના આગાથી “સાંભલિના સંઘને લખેલા પત્રમાં તેમનું નામ ન હોવાથી શ્રીસમયસુંદરે ત્યારબાદ દીક્ષા લીધી હશે એમ અનુમાન થાય છે.
ગ્રંથકર્તાએ રચેલાં સંસ્કૃત પ્રાકૃત ગ્રંથો ટીકાઓ સાલવાર નીચે દર્શાવ્યાં છે. (૨) માવતરામ . ૧૬૪૧, (૨) અષ્ટી સં. ૧૬૪૯, (૨) ૪મારવન્યૂઃ સં. ૧૬૫૩, () ચાતુર્માસગ્યાથીનાંતિઃ સં. ૧૬૬૫, () વઢિવાચાર્ય સં. ૧૬૬૬, (૬) શ્રાવાયના સં. ૧૬૬૭, (૭) રામાચારીશતમ્ સં. ૧૬૭૨, (૮) વિરોધલબ સં. ૧૬૭૨, (૨) નાથાળમ સં. ૧૬૭૩, (૨૦) વિજાશfમ સં. ૧૯૭૪, (૨) ટુરિયરસનીરવ્રુત્તિઃ (શ્રી જિનવલભસૂરિકૃત વીરસ્ત–વૃત્તિ) સં. ૧૬૮૪ (૨૨) વિશેષસંગ્રહ સં. ૧૬૮૫, (૧૩) વિસંવાશતમ્ સં. ૧૬૮૫, (૧૪) શ્રૌતાજ૫-૨Tછતાંતિઃ સં. ૧૬૮૫, (3) જાથાસ્ત્રી સં. ૧૬૮૧, (૨૬) મhargોષિનીતિઃ સં. ૧૬૮૭, (૧૭) નવદુધનવૃત્તિ સં. ૧૬૮૭, (૧૮) રાસય-સંસારવૃત્તિ સં. ૧૬૮૮ તથા ૧૬૯૬' (૧૬) રાઢિવાવૃત્તિ સં. ૧૬૯૧, (૨૦) સંદરોઝાવéવર્યાયઃ સં. ૧૬૯૩, (૨૬) વૃ શિર વૃત્તિ સં. ૧૬૯૪ (૨૨) રધુવંશીfr સં. ૧૬૯૫,(સં. ૧૬૯૨ શ્રી નાહટાપ્રમાણે) (૨૩) Hક્ષાવૃત્તિ સં. ૧૬૯૫, (૨૪) થાળમંફિટીય સં. ૧૬૯૫,(૨૧) ક્રમમfitમ સં. ૧૬૯૫, (૨૨) (દેવચંદુત્વ-ર્મત) મહાવીરવ વવૃત્તિ-સંત, (૨૭) વિમરથમવૃત્તિ, (૨૮) afમદૃારું/નવૃત્તિ, (૨૨) કોસTICઘ, (૨) સારવારā ( જીઓ નાહટાકૃત “યુગ-પ્રધાન શ્રીજિનચંદ્રસૂરિ પૃ. ૧૬૮-૧૭૧).
એમની ગુજરાતી કૃતિઓ માટે જુઓ શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈકૃત “કવિવર સમયસુંદર” નામનો લેખ જે આનન્દકાવ્યમહોદધિ, મૌક્તિક માંની પ્રસ્તાવનામાં મુદ્રિત થયો છે.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
એમના ઉપર દર્શાવેલા સંસ્કૃત પ્રાત તથા ગુજરાતી ગ્રંથરાશિ પરથી તેમજ તેમાં ચર્ચા વિવિધ વિષયો પરથી તેઓ અનેક વિષયમાં પારંગત બહુકૃત વિદ્વાન હતા, તેમજ પ્રથમ પંક્તિના કવિ, છંદશાસ્ત્રી, વૈચાકરાણી, સિદ્ધાંતના જ્ઞાતા, સંગ્રહકાર, વ્યાખ્યાનકાર તથા ટીકાકાર હતા, અને સંરકૃત પ્રાકૃત પર પણ ગુજરાતી ભાષાની જેમ પ્રભુત્વ ધરાવતા હતા-તે સ્પષ્ટ થાય છે. તેમના મુખ્ય શિષ્ય હર્ષનંદને સંવત ૧૬૭માં રચેલી “મધ્યાહ્નવ્યાખ્યાનપદ્ધતિમાં તેમને માટે કરેલા ઉદારોનો સાર ગુજરાતીમાં એ છે કે તેમણે વ્યાખ્યાનકાર, કવિ, વાદી, વૈયાકરણ, સાહિત્યક, જ્યોતિષેત્તા તથા સદાન્તિક તરિકે ખ્યાતિ મેળવી હતી, તેમને શિષ્ય પ્રશિષ્યની ઘણી સંતતિ હતી, તેઓ લોક પ્રિય તથા રાજપ્રિય હતા, અને એક જ પમાં આઠ લાખ અર્ધ પ્રાપ્ત કરવાની ચમત્કારી શક્તિ ધરાવતા હતા. છેલ્લી બાબતું તેમણે રચેલા “અષ્ટલક્ષી ” ગ્રંથને ઉદેશીને છે કે જેમાં એક જ પદના તેમણે આઠ લાખ અર્થ કર્યો છે. તે ગ્રંથ તેમણે સંવત ૧૯૪૯માં ત્યારે શ્રીજિનચંદ્રસૂરિએ બાદશાહ અકબરની લાહોરમાં મુલાકાત લીધી ત્યારે તેમની સાથે દરબારમાં જઈ બાદશાહને જાતે વાંચી સંભળાવી પ્રસન્ન કર્યો હતો. બાદશાહે તે ગ્રંથ પોતાના હાથમાં લઈ ‘પઠન કરાવો, સર્વત્ર વિસ્તાર-ફેલાવો પામો, રિદ્ધિ પામો’ એવી શુભેચ્છા દર્શાવી શ્રી રામસુંદરના હાથમાં તે ગ્રંથને મૂકયો હતો. તે જ વર્ષમાં એટલે સંવત્ ૧૬૪૯ના ફાગણ સુદ બીજને દિને જ્યારે શ્રીજિનચંદ્રસૂરિને બાદશાહે યુગપ્રધાન પદ આપ્યું, ત્યારે શ્રી માનસિંહને શ્રીજિનમહેસૂરિ નામ આપી આચાર્ય પદ, તથા શ્રીસમયસુંદર તેમજ શ્રીગુણવિનયને વાચક પદ અપાયું હતું. શ્રીસમયસુંદરને ત્યારબાદ ઉપાધ્યાય-પાઠક૫૬ લવેરે શહેરમાં ઉક્ત શ્રી જિનસિંહસૂરિએ આપ્યું હતું. સંવત ૧૬૦૪માં શ્રીજિનસિંહસૂરિ સ્વર્ગસ્થ થયા અને તેમની પાટે શ્રીજિનરાજસૂરિ આવ્યા. તેમની સાથે જ એક જ દિવસે સૂરિપદુ પામેલા શ્રીજિનસાગરસૂરિએ બાર વર્ષ સુધી શ્રીજિનરાજસૂરિની આજ્ઞામાં રહ્યા પછી સંવત્ ૧૬૮૬માં લદ્વાચાર્લીચ ખરતર ગચ્છની ભિન્ન શાખા કાઢી. એમાં શ્રી સમયસુંદરના નવ્ય ન્યાય-
નિષ્ણાત વિદ્વાન શિષ્ય શ્રી હર્ષનંદન કારણભૂત હતા એમ કહેવાય છે. ત્યારથી શ્રીજિનસાગરસૂરિની આજ્ઞામાં શ્રીસમયસુંદર ઉપાધ્યાય અંત સુધી રહ્યા. સંવત ૧૬૯૧માં શ્રી સમયસુંદર કિયોદ્ધાર કર્યો. સંવત્ ૧૭૦૨ના ચિત્ર શુકલ ૧૩ને દિને અમદાવાદમાં, જ્યાં સંવત્ ૧૬૯૬થી વૃદ્ધાવસ્થાને લઇને તેઓ રહેતા હતા ત્યાં હાજા પટેલની પોળના ઉપાશ્રયમાં, ઉપાધ્યાય શ્રી સમયસુંદર સ્વર્ગસ્થ થયા. ત્યારે તેમની ઉમ્મર ૮૦ વર્ષ આસપાસની હશે. તેમની શિષ્ય પરંપરા સંવત ૧૮૨૨ સુધી તો હતી જ એમ તેમની પરંપરામાં થયેલ શ્રીંકુશલચંદ્ર ઉપાધ્યાયના શિષ્ય શ્રી આશકરણના શિષ્ય શ્રીઆલમચંદે તે વર્ષમાં રચેલી “સમ્યક કૌમુદી ચતુષ્પદી'ની પ્રશસ્તિ પરથી માલમ પડે છે, ઉપાધ્યાય શ્રીસમયસુંઢરના શિષ્ય શ્રીહર્ષનંદને શ્રીસુમતિકલોલ સાથે શ્રીસ્થાનાંગસૂત્ર-વૃત્તિમાંની ગાથાઓ પર ૧૩૬૦૪ લોક-પ્રમાણુ વૃત્તિ રચી હતી તથા એકલા ઉત્તરાધ્યયનવૃત્તિ રચી હતી.
પ્રસ્તુત ગ્રંથ ગાથાસહસ્ત્રીમાં ગ્રંથકર્તાએ સાત નિદોની આવશ્યકચૂર્ણિમાંની ૧૬ ગાધા ટાંકી તેને વિવેચન માટે પોતાના “ વિષસંગ્રહ”નો હવાલો આપ્યો છે. એ ઉપરાંત પોતાના વિશેષશતા”નો પણ ઉલ્લેખ આ ગ્રંથમાં કર્યો છે. એમનો વિસંવાદશતક' ગ્રંથ સિદ્ધાંતમાંના વિસંવાદુ સંધી ઉપયોગી ચર્ચાનો ગ્રંથ છે. આ ગ્રંથો ઉપરાંત “ વિચારશતક’ ‘સામાચારીશતક', ડૉમના સિદ્ધાંતપ્રિયતા દર્શાવે છે. તેમણે સિદ્ધપુરમાં મહમદ શેખને પ્રતિબોધ્યો હતો. સિંધના અખનૂમ શેખને પ્રતિબોધી પાંચ નદીના જલચર જીવો તથા ગાયોની રક્ષા કરી હતી. જેસલમેરમાં રાવલ ભીમજીને ઉપદેશ આપી દાંડાનો- સાંઢનો વધ અટકાવ્યો હતો. આ તેમની પ્રતિબોધકશકિતના પ્રત્યક્ષ દૃષ્ટાંતો છે,
પ્રસ્તુત ગ્રંથ વાંચતાં જ એ તરી આવે છે કે કતાને કવિદૃષ્ટિ હતી (ગા. ૭૬૬-૭૬૮) તથા સુભાષિતનો અત્યંત શોખ હતો કારણ કે પ્રાકૃત સિદ્ધાંતની ગાથાઓમાં પણ વચ્ચે વચ્ચે કવચિત્ સંસ્કૃત ને કવચિત્ પ્રાકૃત સુભાષિતો ટાંકયાં છે (ગા, ૨૭૨-૨૯૦, ૩૪૨-૪૨૮). કેવલ જ્યોતિષ ને શકુનને લગતી ગાથાઓ પણ તે વિષયના ગ્રંથમાંથી ઉતારી છે (ગ, ૪૩૭-૪૪૦,૪૧૮, ૭૬૯-૭૭૦). પ્રાણાયાજ ધ્યાન પણ તેમનો પ્રિય-વિષય હશે (ગા. ૧૯૮-૨૦૭). વ્યવહારની બલવત્તા પણ તેઓ બતાવે છે (ગા, ૨૦૮-૨૦૯). ગાનાર તથા સાજિદાની વિવિધ મંડલી પણ તેમણે લૌકિક નાટક માટે વર્ણવી છે (ગા. ૩૯૨-૩૯૩). ગ્રંથકર્તા સંગ્રહ કરતી વખતે ગચ્છાદિ ભેદને લક્ષમાં લેતા નથી. તેમણે દ્રશેખરસૂરિના “શ્રાવિધિ, આચાર પ્રદીપ’ તેમજ શ્રીદેવસુન્દરની તથા શ્રી સોમસુન્દરની સામાચારીમાંથી અને છેવટે ૧૧ સુંદર ગાથા ચિત્રાવાલગરછીય (તપાગચ્છીય) શ્રી દેવેન્દ્રસૂરિના ‘સુન્દ્રારિ'(જેનું ખરું નામ ‘તુવંશાવાદી છે)માંથી આપી છે. ટૂંકમાં સુભાષિત રત્રોનો સંગ્રહ સાચી ગુણગ્રાહિતાથી સ્થળે સ્થળેથી ઝવેરી જેમ રોનો સંગ્રહ કરે તેમ કર્યો છે. શ્રાવેકવિધિ’ શ્રાવક પંડિત ધનપાલની રચેલી છે તેમાંથી પણ તેમણે અવતરણો ર્યા છે (પૃષ્ટ ૧૯). એમનો હાસ્યપ્રિય આનંદીસ્વભાવ પણું (ગા. ૨૫૬,૮૪૦) સ્થળે સ્થળ તરી આવે છે. વિશેષ ગ્રંથના અભ્યાસથી માલમ પડે એમ છે. છતાં ગુજરાતી વાંચક માટે નીચે ગાથા સહસ્ત્રીનો સાર આપ્યો છે તે ઉપરથી તેમને પણ ખાતરી થશે.
આ ગ્રંથ સાથે ટિપ્પણુ અપાયું છે તે સ્વપજ્ઞ નથી. તેના કર્તાનું નામ આપેલ નથી તેથી તે કોણે કર્યું તે કહી શકાય એમ નથી. તેમાં અશુદ્ધિ વિશેષ માલમ પડી છે ને કેટલેક સ્થળે મૂળ ગ્રંથની ગાથા સાથેનો સંબંધ સ્પષ્ટ નથી (જુઓ પૃષ્ઠ ૬ના ૩ ન ટિપ્પણમાંની “નૈ પૂગી ગઈ માળી ” ઇત્યાદિ). ટિપ્પણકાર જ્યાં મૂળમાંની ગાથા ૫૨ ટીકા ઉપલબ્ધ છે ત્યાં ટીકાભાગ ટંકાવી પ્રાયઃ તેજ શબ્દોમાં ટિપ્પણુ આપે છે. ભાષા પરથી ટિપ્પણકાર સંવત્ ૧૮૦૦ આસપાસ થયાનું અનુમાન થાય છે.
ગાથાસહસીસાર હવે ગાથા સહસ્ત્રીનો પૃષ્ઠાનુકમથી સાર આપીશું જે પ્રાકૃતથી અનભિજ્ઞ વાંચકોને ઉપયોગી થઈ પડશે, તેમજ વિષયાનુકમની પણ ગરજ સારશે.
પ્રથમ આચાર્યના ૩૬, સાધુના ૨૭ તથા શ્રાવકને ૨૧ ગુણ દર્શાવી નવકારવાળીના ૧૦૮ મણકાનો સંબંધ પંચપરમેષ્ટિના ૧૦૮ ગુણો સાથે છે, તે દર્શાવ્યું છે પૃષ્ઠ ૧,
પછી જિનક૯પના ૮ ભેદ ને ૧૨ ઉપકરણો તથા સ્થવિરહપીના ૧૪ ઉપકરણો વર્ણવ્યાં છે. શ્રાવક કુળમાં જન્મની પ્રશંસા અને તપસ્વી અને જ્ઞાની બે પ્રકારના ગુરુમાં શાની પોતાને તેમજ પરને તારે છે એમ કહ્યું છે. પૃષ્ઠ ૨.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
કરતારનાં !
રે
સાધુની દા પ્રકારની સામાચારી કહી, ઋતુમાં સ્ત્રી શું ન કરે તે કહી, મનુષ્ય, હાથી, ઘોડા, ઉંટ, ગધેડા, ગાય, ભેંસ, બકરા, કુતરાનાં વિવિધ ઉકષ્ટ આયુષ્ય કહ્યા છે. વાસુદેવો નરકે તથા બલદેવો સ્વર્ગ જાય છે તે કહી, શ્રી ઋષભદેવનું અશોકવૃક્ષ ત્રણ ગાઉં, શ્રી મહાવીરનું બત્રીશ ધનુષ, તથા અન્યતીર્થકરોનું સ્વશરીરથી બારગણું ઉંચુ હોય તે તથા શ્રીજીબુ મોક્ષે જતાં દશસ્થાન વિછિન્ન થયાં તે કહ્યા છે. ચૌદવી સંસારમાં કુલ ચાર વાર સુધી તથા એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટ બે વાર આહારક શરીર કરે. રસીને જે દશ લ િન થાચ તે, તથા વિવિધ જીવોની ઉત્પત્તિનાં સ્થળો સુધષા ધંટાનું પ્રમાણ, તથા પડિલેહણના પ્રકારે વર્ણવ્યાં છે. પૃષ્ઠ 3
પછી ૨૮ લબ્ધિ વર્ણવી અભવ્ય પુરુષ તથા સ્ત્રી જે લબ્ધિ ન પામે તે કહી, મુખવાચિકા તથા દેહ-પ્રતિલેખનાના વિચાર કહી, સોળ પ્રકારના રોગનો ઉલ્લેખ કરી, પૌષધ તથા સામાયિકમાં દેવાયુ બન્ધનું પ્રમાણ કર્યું છે. પૃષ્ઠ ૪.
તજવા યોગ્ય નવ નિયાણું કહી તે બાંધનારને સમ્યકત્વ, દેશવિરતિપણું, સર્વવિરતિપણું આદિ શું પ્રાપ્ત ન થાય તે કહ્યું છે. પછી કોટિશિલા વર્ણવી દરેક વાસુદેવ તે કેટલે સુધી ઉપાડી શકે છે તે કહ્યું છે. દિવ્ય કામભોગ, આઠ પ્રકારના પ્રભાવક, કંબલરત્ર, દેવતાઓને મુકાબલે જિનેશ્વરનું રૂ૫, ૨૪ તીર્થકરોના સમ્યકત્વ પ્રાપ્તિથી સિદ્ધિપર્ચત થયેલ ભવો, તીર્થંકરનાં પ્રતિદિનનાં દાનનું તથા કુલ રવારિક દાનનું પ્રમાણ, પાત્ર પર દાન-લની વિશેષતા તથા સાતક્ષેત્ર વર્ણવ્યાં છે. પૂષ ૫.
શ્રીસ્થૂલભદ્ર સાથે ત્રણ સ્થાન વિછિન્ન થયાં તે, તીર્થે કર ભગવાન પાસે જવાનું અદ્ધિ જોવા, તવધ અર્થ, કે શંકાનાં નિરાકણ અર્થે થાય તે કહી, સારણ, વારણા, ચોયણું, ૫ડિચોયણના ભિન્ન હેતુ કહ્યા છે. ઉતકૃષ્ટ વિકુણુકાળ-નારીનો મુહુર્તનો ભાગ, તિર્યંચ ને મનુષ્યનો ચાર મુહુર્ત, તથા દેવનો અર્ધમાસ કહ્યો છે. ૨૪ તીર્થકરોના માત પિતાની ભિન્ન ભિન્ન ગતિઓ કહી છે. સાધુને કપે એવાં જળના ત્રણ પ્રકાર કહી, ત્રણ ઋતુનાં પાણીના ત્રણ કાળ કહ્યા છે. વિવિધ વસ્તુ કેટલો સમય અચિત્ત રહે છે તે કહી, વિદુલ ભોજનમાં જીવોત્પત્તિ વર્ણવી, સાધુની સાત મંડલી કહી છે. પૃષ્ઠ ૬.
પછી અગત્યના એતિહાસિક બનાવોની સાલો ગોપત્તિ ને તીર્થોત્રાલિયન્નામાંથી આપી છે. કાલ, સ્વભાવ, નિયતિ, ‘પૂર્વક્ત તથા પુષકાર એ પાંચ સમવાય સમસ્તપણે કાર્યના કારણું માનવામાં રાજ્ય અને વિપરીત પણે માનવામાં મિથ્યાત્વ કર્યું છે. પછી ક્રિયાવાદીના ૧૮૦, અક્રિયાવાદીના ૮૪ અજ્ઞાનીના ૫૭ તથા વૈનચિકની ૩૨ ભેદો તથા તેમનાં મુખ્ય મંતવ્ય કહ્યાં છે. પૃષ્ઠ ૭,
સામગ્રીના અભાવે વ્યવહારરાશિમાં પ્રવેશ ન થવાથી સિદ્ધિ સુખ પામતા નથી એવા ભવ્યો પણ અનંત છે. અભવ્ય છત્રો ઈપણું ચક્રિપણું અનુત્તરદ્ધિમાનવાસિદેવપણું ને લોકાંતિક-દેવપણું પામતા નથી. “મિચ્છામિ દુક્કડ’ના પ્રત્યેક અક્ષરના સૂચક અર્ય તથા ૪૫ આગમનાં નામ કહ્યાં છે. અવિધિથી કરવા કરતાં ન કરવું સારું એ કથન શ્રુતસમ્મત નથી કારણ કે ન કરવાથી વધારે ભારે પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યું છે. પદાર્થ કેમ અચિત્ત થાય કે ઓળખાય તે કહી, મૈથુન સિવાયના કશાનો એકાંત નિષેધ કે આદેશ ભગવાને કર્યો નથી એ કહ્યું છે. કેવળી સમુદુધાત કયારે કરે તે કહ, વેદનીય કમની બાર મુહુર્તની, નામ તથા ગોત્ર કર્મની આઠ મુહર્તની, ને બાકીના પાંચ કર્મની અંતર ર્તની જધન્ય સ્થિતિ કહી છે. અલ્પ પ્રયોજનમાં સાધુ જે પદાર્થ ન સેવે તે કહ્યા છે. પૃષ્ઠ ૮.
પછી અહિંસાનું મહત્ત્વ દર્શાવી વિકાળ જિન-પૂજનથી તીર્થંકરનામકર્મ બાંધે એમ કહી, મેરુ પર્વત જેટલાં સુવર્ણનાં દાનથી પણ એક જીવના ધાતના પાપમાંથી ન ઘટે એ કહી, અનુપાનો નિષેધ શ્રાવકને કર્યો નથી એ કહીં, સાધુને ઉત્તમ, દેશવિરતિ શ્રાવકને મધ્યમ, તથા અવિરતિ શ્રાવકને જઘન્ય પાત્ર કહ્યાં છે. મુતની અવગણના ન થાય તે માટે કેવળી પણ છવચ્ચે સામાન્ય શ્રત ઉપયોગથી આણેલા છતાં અશુદ્ધ આહારદિક પણ ગ્રહણ કરે. સ્વામિવાત્સલ્ય શ્રાવકનું કર્તવ્ય બતાવ્યું છે. ભારે ચિકણું કમ જ્ઞાનને પણ આડે રસ્તે લઈ જાય. અનાદિ કાળથી અનાદિ દોષથી વાસિત જીવ ગુણ પ્રાપ્ત કરે છે તે જ આશ્ચર્ય છે. સેના* નાયક મોહનીય કર્મનો નાશ થતાં શેષ કર્મ-સેનાનો નાશ થાય છે. સાવદ્ય ને નિરવદ્યનો વિવેક ન જાણુનાર બોલવાને પણ યોગ્ય નથી તો તેનાથી વ્યાખ્યાન તે થઈ જ કેમ શકે ? ત્રણ નિશીહિથી કમે ધરની, દહેશની તથા પૂજાની ચિંતાનો ત્યાગ કરવો. પિંડસ્થ, પદસ્થને રૂપરહિતત્વ એટલે ઘસ્થ, કેવલિ તથા સિદ્ધ અવસ્થાની ભાવના કમે પ્રક્ષાલપૂજા, પુષ્પવસ્ત્ર-આંગ, તથા કાઉસ્સગ્ન વડે ભાવવી. પૃષ્ઠ ૯.
જિદર્શન પાંચ અભિગમપૂર્વક રાજચિહ્ન ત્યજી પુરુષ ભગવાનની જમણી બાજુથી તથા સ્ત્રી ડાબી બાજુથી કરે. નવહાથનો જઘન્ય, સાઠ હાથનો ઉત્કૃષ્ટ, તથા વચ્ચેનો મધ્યમ અવગ્રહ કહેવાય. પછી વંદનવિધિ, દશપ્રકારનાં સત્ય, સોળ પ્રકારના વચન, ને સાધુની બાર પ્રતિમા વર્ણવ્યાં છે. પૃ૪ ૧૦.
વેદનાની શાંતિ, વેચાવચ્ચ, ગમનાગમન, પ્રાણરક્ષા, તથા ધર્મધ્યાન અર્થે આહાર લેવો તે, ને વસ્ત્ર, પાત્ર, કંબલાદિ પરિગ્રહ નથી પણ આસક્તિ જ પરિગ્રહ છે એમ જ્ઞાત-પુત્ર શ્રી મહાવીર કહે છે. નિયાણું કર્યા વિના સહર્ષ ઉદારતાથી ગુરુ સંધ તથા સાધર્મિકની ભક્તિ પૂજા કરવી. અપૂર્વ જિન—ચત્ય, જિનબિંબ–પ્રતિષ્ઠા, પ્રાસ્ત પુસ્તક, સુતીર્થ અને તીર્થંકરની પૂજામાં પોતાનું દ્રવ્ય વાપરવું. ઉસૂત્ર પ્રરૂપણાના દોષ વર્ણવી સૂત્રનો એક જ અક્ષર ન સહે તો તે મિથ્યાષ્ટિ છે એમ કહ્યું છે. ઉત્સર્ગમાં અપવાદ સેવે તો તે વિરાધક છે ને અપવાદ પ્રાપ્ત થતાં સર્ગ જ તો વિરાધક હોય અથવા ન હોય. તીર્થકર, કેવલી, ચોદવી, ભિન્નદશપૂર્વ, સંગ્નિ, અસંવિગ્ન, સમાનરૂપધારી (સિદ્ધપુત્રાદિ-રજોહરણ સિવાય સાધુનો વેષ ધારણ કરનાર સ્ત્રીસંગરહિત શ્રાવક), વ્રત, દર્શન, તથા પ્રતિમા એ દશ સમ્યગદર્શનના ભાવની ઉત્પાદક સામગ્રી છે. અવારા દહેરામાં પ્રતિમા ઉપર જાળાં ભમરીન ધર વગેરે સાધુ જુવે ને (અન્ય દૂર કરનાર ન હોય તો) પોતે રાફ ન કરે તો ચાર ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત, ને કરે તો ચાર લઘુ પ્રાયશ્ચિત્ત આવે. પૃષ્ઠ ૧૧.
પૌરુષી સુધી સાધુ મોટેથી બોલે તો બાર દોષ લાગે તે વર્ણવ્યા છે. સર્વ જિનેશ્વરોએ પ્રાણિની અનુકંપા અર્થે દાનનો કશે નિષેધ કર્યો નથી. પછી જયાં તીર્થકર, ચકવર્તી, વાસુદેવ તથા બલદેવ જન્મે તે સાડા પચીસ આયે દેશ વર્ણવ્યા છે. પૃe t૨.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहजी ।
પછી ધ્યાતા અને પ્રાણાયામના પ્રકાર થયુંપી, તેથી યતો મનનો જય બાણવી, મને તથા યનની વિલીનતાથી ઇતિચશુદ્ધિ, ને તેના થથી મોક્ષપ્રાપ્તિ કહી છે, સાધુ થી દશાએ વર્તે છે તે નિશ્ચયથી જાણે શક્ય નથી, તેથી દીક્ષા પર્યાયમાં વૈદ્યને વ્યવહારથી વંદન થાય છે. વ્યવહારની બસવન્નાનાં બીજાં દૃષ્ટાંતો આપ્યાં છે. સુનિરિત વસતિ, બિહાર, સ્થિતિ, ગતિ, ભાષા તથા વિનયથી માલમ પડે છે. માતાપિતા જયેષ્ઠભાઈ તથા રત્નાધિક પાસે કૃતિ–કર્મ ન કરાવવું. પૃષ્ઠ ૧૩.
નિપૂત્તવિધાન, તથા કુલ વર્ણવી, ગૌત્પત્તિનો ખાર મુહૂર્તનો સમય કહી, વ તથા પુરુષત્વની વિષે કહી છે. કાચા ઘડામાં ભરેલું જલ જેમ તેનો નાશ કરે છે તેમ ઓછા પાત્રને આપેલું સિદ્ધાંતરહસ્ય તેનો નાશ કરે છે. સાત વખત શ્રીસુવિધિનાથથી શ્રીરાનાથ સુધીમાં, કુો પોણા ત્રળુ પળોપમ સુધી, તીર્થ- વિચ્છેદ થયો. છથોના ઉત્પત્તિર્મદે બાક પ્રકાર છે. પૃષ્ઠ ૧૪.
ચૌદ પ્રકાર આંતરિક મંધિ કહે છે. એક જ વસતિમાં જિનકરી વધારેમાં વધારે સાત હોય. ા માનથી નિદ્રેચાત રીબાનથી નગતિ, ધર્મધ્યાનથી દૈવત અને શુકલપાનથી મોસ થાય. આર્તધ્યાન કામરજિત, રોડ, હિસાર જિત, ધર્મધ્યાન ધર્મરંજિત અને શુક્લધ્યાન નિરંજન છે. જ્યારે પણ પૂછાય ત્યારે એ જ ઉત્તર હોય કે એક નિગોનો અનંતમો ભાગ સિદ્ધિ યો છે. પછી ચરણ સિત્તરી તથા કરણ-સિત્તરી વર્ણવી છે. ‘આરણ્’ની વ્યાખ્યા કરી એકત્રિય જીવોને પણ દશ સંજ્ઞા હોય છે તે દૃષ્ટાંત પૂર્વક કરી, જે ક સંજ્ઞા તેમને નથી હોતી તે પણ કહી છે. ગીતાપનો વિજ્ઞાર તથા પ્રવર્ષ નિમિત વિહાર | સિવાય ત્રીન્હે કોઈ જિનેશ્વરે કહ્યો નથી, યતિવરોને ઉપાશ્રયદાન વસ્ત્રારપાણી રાયન ને આસન આપ્યા બરોબર છે. પૃષ્ઠ ૧પ,
આશ્રયદાનનું લોકોત્તર ફળ કહી ચૌદ ગુણસ્થાનોના નામ કહ્યા છે. નર મળ્યનો નામોણેખ કરી, શાશ્વતી પ્રતિમાનાં ઉત્સેધ અંગુલથી પાંચસે ધનુષ તથા સાત હાથ એ બે પ્રમાણ કહ્યાં છે. અનુક્રમે ત્રણ વર્ષ, પાંચ વર્ષે, તથા સાત વર્ષ સુધી સચિત્ત રહે એવાં બાન્યો વર્ણવ્યાં છે. હાથ નચાવી અન્યને ઉપદેશ આપે પણ પોતે ન કરે તો શું ધર્મ વકરો કરવાની બજારૂ વસ્તુ ૐ શબ્દથી મૃગ, પથી પતંગિયું, ગંધથી બમરો, હાવથી મત્સ્ય, અને સ્પચર્ચા હાથી પાગમાં પડે છે. કવચિત્ વને કવચિત્ કર્મ બલવાન થાય છે, જીવ અને કર્મને અનર્પદે કાળથી વેર છે. રાઈ અને સરસવ જેટલાં પણ પારકાં છિદ્રો જુવે છે તો બેલાંફળ જેટલાં મોટાં પોતાનાં કેમ જૂનો નથી? માથું છુછ્યું, ચિત્ત મર્યું, અંગ પુલિકે થયું, છતાં પણુ પણ ગ્રહણ કરવા ખળ પુરુષની વાણી ન જ નિકળી. એક સમયે ઉત્કૃષ્ટપણે નવલાખ પંચયિ મનુષ્યની સીંગલ ઉત્પત્તિ હોય. સંઘ આહિના કારમાટે ચાયો. સૈન્યને પ્રશ્ન ચૂર્ણ કરે એવી લાધા યુક્ત તે પુલાક મઘ્ધિવાળો વો. ઉત્તમ નર (પુરુષ), પાંચ અનુત્તર વિમાનવાસિ દેવો, ત્રાર્યસ્રા દેવો, પૂર્વધર, ઇંદ્રો, કેલિદીક્ષિત, શાસનદેવી, ને શાસનયા, એ આઠ અભભ્ય ન હોય. અનંત, સિદ્ધ, ય, તપ, પુત, ગુરુ, સાધુ, તથા સંધનો વિરોધી દરોનમોહનીય કર્મ બાંધે તેથી અનંત સંસારી થાય. સાધુ કે ગૃહસ્થી જે ધર્મેદાન કરે તે જ ધર્મગુરુ. આરંભ હોય તો ધ્યા નથી, સ્રસંગ હોય તો બ્રહ્મર્ય નથી, રાંકા હોય તો સમ્યકવ નથી, અને દ્રવ્યગ્રહણ હોય તો પ્રવજ્યા નથી. ગૃહસ્થીના વ્યાપાર પરિશ્રમથી ખિન્ન થયેલા કેટલાકને રમણી વિશ્રામસ્થાન હોય ને કેટલાકને જિધર્મ વિશ્રામસ્થાન હોય. ઉદરભરણ સરખું જ હોવા છતાં મૂઢ અને અમુદ્રના કર્મવિપાકમાં કેટલું અંતર છે; મૂઢ નરક દુઃખ પામે છે અને અમૂઢ શાશ્વત સુખ પામે છે. પૃથ્વીપર પડેલા ભૈરવ-ઝંપાપાત કરેલા, તરવારથી છેદાયલા પણ જીવે છે, પરંતુ ક્ષુધાથી પીડિંત જીવતા નથી. લૌકિક પ્રેમ ઘંટારવ જેવો પહેલા ગંભીરને પર્યંતે ધીમો હોય છે. ભ્રમરની અન્યોક્તિ કહી છે. અતિહાસ્ય, અતિસંતોષ, અતિદુર્જન મનુષ્યો સાથનો સહવાસ, અતિઉદ્ધૃટ વેષ-પાંચે મોટાંને પણ હલકાં પાડે છે. પૃષ્ઠ ૧૬,
અરિહંત પણ એમને એમ તારવાને સમર્થ નથી; તે કુરાળ માર્ગદર્શક છે, તેના દર્શાવેલ માર્ગે ચ તે તરે. દરાપૂર્વ તથા અહનારાચ સંધળુ શ્રીવન સ્વર્ગે જતાં વિખિન્ન થયાં. ઋષભદેવ, તેમના નાણું (ભરતર્ષિના પુત્રો અને ભરતના આઠ પુત્રો એમ કુલે એકસો આઠ એક જ સમયે સિદ્ધ થયા. આર્ટ્ઝ આમળા જેટલી પૃથ્વીકાયમાંના છવો કબુતર જેટલું જ રૂપ ધારણ કરે તો પણ જંબુદ્રીપમાં ન માય. આ ભરતક્ષેત્રમાં કેટલાક મિથ્યાષ્ટિ જીવો પણ એવા બદ્રિક છેકે મરીને નવમે વર્ષે કેવળી થશે. પાંચે ઇન્દ્રિયોની ઉત્કૃષ્ટ વિષય-ગ્રહણ-અવધિ વર્ણવી સોળ પ્રકારના વચન ફરી કહ્યા છે. પાંચ પ્રકારના મિથ્યાત્વ કહી, ફુલીન સમર્થ પુરુષે પ્રતિજ્ઞા પૂણ કરી કે યુદ્ધમાં મરવું, પણ પોતાથી ઉતરતા મનુષ્યોના ઉપાલંભ ન સહેવા એમ કહ્યું છે. જંબુદ્રીપમાં ઉત્કૃષ્ટપણે ત્રીશ ચક્રવર્તી અને જધન્યથી ચાર હોય. ધાતકીખંડમાં તથા પુષ્કરદ્વીપમાં દરેકમાં પ્રમણા હોય. વાસુદેવ વ્યાદિનું પણ તેમજ નાનું, એક દિવસે જે દેવો ચવે છે તેમાંથી થોડા જ મનુષ્યભવ પામે છે, તેથી કયારે મનુષ્યભવ મળરો એ ધવાયી દેવી દુઃખી રહે છે. ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારના દેવોની ઉપર નીચે તથા તિર્યક્ જવાની શક્તિની મર્યાદા બતાવી છે. પૃષ્ઠ ૧૭.
પિસ્તાળીશ આગમોનું પ્રમાણ કુલે છ લાખ પિસ્તાળીસ હજાર પાંચસો કુમાશોક જેટલું છે. સ્વર્ગની વાર્ષોમાં મત્સ્યાદિ જલચર હોતા નથી; ચૈવેચકવિમાનોમાં વાવો નથી અને જળ પણ નથી. ચૈત્યદ્રશ્યના પૂજાદ્રવ્ય ને નિર્માલ્યદ્રષ્ય એમ બે પ્રકાર વસુલ્યા છે. પી પણનું મહત્ત્વ કર્યું છે. જિરમાન જિનેશ્વરો અપણે એસો સિત્તેર તથા જપન્થી નીશ ઢોંગ. દરા કલ્પવૃક્ષોના નામ તથા ફળ મળ્યાં છે. પૂર્ણ કર
યોગપટ્ટ (સ્થવિર, ગ્લાનકે વાચનાચાર્યને) ચાર અંત્રુલ વિસ્તૃત સંધિરહિત સરીરવિશ્રામ અર્થે હોય તો અવષ્ટમ્સ દોષ ન થાય. શ્રાવક પાંચ તિથિ પાળે અને અન્ય તિથિમાં તીવ્રાભિલાષ વિના વિષયસુખ ભોગવે. એક દીવામાંથી સો દીવા પ્રકટાવવામાં આવે તો ચ દીવો પ્રકારો છે, તેમ દીપ જેવા આચાર્ય અન્ય દીપ પ્રકટાવે છે, ઉત્કૃષ્ટ શ્રાવકના છ ગુણુ કહી મૈથુનથી થતી અવહંસા ખાવી છે, રાજોદ્ધાર અર્થે ખાળોચના માર્કે ગીતાર્યની યેષણા સાતસો યોજન સુધી બાર વરસ પર્યંત કરે. અગીર્થ આલોચના
પતાં સ્ત્ર તથા પરને પાર્ટ. ગીતાર્થ જૅમ વર્તે, ત્રીતાર્થે નિતિ જૈમ બને, તેમ ગર્ન બનાવે અને અનેસંસારી ગાય. પછી શ્રાવકની વ્યુત્પત્તિ દ્વારા વ્યાખ્યા કરી છે. જ્ઞાનની, કેવળીની, ધર્માચાર્યની, કે સાધુની નિંદા કરનાર માયાવી કલ્મિર્ષિક ભાવના કરે છે. પછી માન, ઉન્માન, તથા પ્રમાણથી સુલક્ષણવાળો વળ્યો છે. પૃષ્ઠ ૧૯.
તીર્થંકરનાં જન્મ, ભિષેક, દીક્ષા, જ્ઞાન, ને નિર્વાણનાં સ્થળો, સ્વર્ગનાં ચક્ષો, મંદર, નંદીશ્વર તથા મનુષ્ય લોકનાં ચૈત્યો, ન્નાપદ, ગિરિનાર, ગનપપદ, ધર્મચક્રસ્થળ (તરિાલા ), અહિચ્છત્રા, રથાવત તથા ચમરના ઉત્પાતસ્થળને બંદન કર્યું છે. પત્રને
"Aho Shrut Gyanam"
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
પીડાકારી રાત્ય તે અસત્ય જાણવું. વિહરમાન જિનની દ્વીપ પરત્વે સંખ્યા કહી છે. જેટલાં આવનાં કારણો છે તેટલાં જ ઉલટાતાં નિર્વાણ સુખ આપે છે. પરમાગુની વ્યાખ્યા કરી છે. જેને અદ્ધ પુકલ પરાવર્તનથી કંઈક ઓછો સંસાર રહે તે શુક્લપક્ષી, બીજા કૃષ્ણુપકી જાણવા. 'પૂર્વાભિમુખ કે ઉત્તરાભિમુખ અથવા જયાં જિનાદિ કે જિનચૈત્ય હોય તેની સન્મુખ રહી દીક્ષાવિધિ થાય. પૃષ્ઠ ૨૦.
હે ગૌતમ! અનાદિ કાળમાં એવા પણુ આચાર્યો થયા છે અને ભવિષ્યમાં થશે જેનું નામ લેતાં પણ પ્રાયશ્ચિત્ત લાગે. ગર્ભમાં તથા જન્મ સમયે અત્યંત કઇ હોય તે દષ્ટાંતપૂર્વક કહ્યું છે. બ્રહ્મચારીને આહાર ચારિત્રરૂપ ભાર વહન કરવા માટે છે જેમ ગાડાની ધરીને દીવેલ છે. ૨૪ ભગવાનના ૨૮૪૮૦૦૦ સાધુ, ૪૪૪૬૦૦૦ સાધ્વી, પપપ૩૪૦૬ શ્રાવક, ૧૨૧૯૯૩૫૦ શ્રાવિકા ૨૦૦૪ યુગપ્રધાન, તેવા ૧૧૧૬૦૦૦ મુનિવરો, તથા ૧૧૧૬૦૨૦ જિનભક્ત પો વાળા ચતુર્વિધ સંધનું પ્રભાતે સ્મરણ કરવું. માગ્યું મળતું હોય તો શ્રી ઋષભદેવ જેવું પાત્ર, નિર્દોષ શેરડીના રસ જેવું દાન, તથા શ્રેયાંસ જેવો ભાવ થાઓ. દશ પ્રકારનું વેચાવ કહ્યું છે. સૂર્યોદય પહેલાં મુહપત્તિ, ચોલપટ્ટો, કલ્પત્રિક, બે નિસજજા, રોહરણ, સંથાર તથા ઉત્તરપટ એ દશ પડિલેહવાં. પૃ૪ ૨૧.
પડિલેહણા સાવધાનતાથી ન કરે તો છે કાયનો વિશધક જાણવો. ત્રણ ગુણિ અકુશલની નિવૃત્તિ તથા કુશલની પ્રવૃત્તિરૂપ છે. લઠ્ઠી, વિલી, દંડ, વિદંડ તથા નાલીનાં પ્રમાણું તથા કાર્યો કહ્યાં છે. ઉપશમણિ એક ભવમાં બે વખત તથા સમગ્ર ભવોમાં ચાર વખત પામે; ક્ષપકશ્રેણિ એક જ વખત પામે. વાસુદેવનો પુત્ર હોય તો પણ વૃદ્ધને દીક્ષા ન દેવી, કારણ કે તે ઉચ્ચાસન ઇચ્છ, વિનય ન કરે, ને ગર્વ ધરે, કેવલી, મન:પર્ચવજ્ઞાની, ચૌદપૂર્વી, દરપૂર્વ તથા કંઈક ન્યૂન દશપૂર્વને નિયમથી સમ્યકત્વ હોય; બીજાને હોય કે ન હોય; અવધિજ્ઞાનીને મતિજ્ઞાનીને વિયર્યાસથી મિથ્યાત્વ હોય. બે પ્રકારના પ્લાનપણામાં, નિમંત્રણ, દ્રવ્યની દુર્લભતા, અશિવ, દુર્ભિક્ષ, રાજદ્વેષ, ને ભયને કારણે શતરંપડ પણ લેવો. પૃષ્ઠ ૨૨.
રાત્રે પ્રથમ પ્રહર સર્વ જાગે, મુનિવૃષભો બન્ને પ્રહર ાગે, ત્રીજે પ્રહર ગુમ જાગે, ચોથે પ્રહર સર્વ જાગે, ગુરુ સુવે. આલોચનાને પરિણામવાળો ગુરુ સમીપ જતાં વચ્ચે જ કાળ કરે તો ચ આરાધક થાય. લૌકિક નાટકમાં ગાનાર તથા સાજિદની ઉત્તમ, મધ્યમ તથા લધુ મંડળી કહી છે. બાર ચક્રવતી કયારે થયા તે તથા તેમની ગતિ કહી, નવનારદનો નામોલ્લેખ કરી, ગુરુપ્રશંસા કરી છે. સાધુ નવ પ્રકારે શુદ્ધ અહિંસા પાળે. જૈન, મીમાંસક, બૌદ્ધ, તૈયાયિક, વૈશેષિક તથા સાંખ્ય એ છ દર્શન કહી, ૧૦ પચ્ચખાણ, ૪ અભિગ્રહ, ૭ શિક્ષા, ૧૨ પ્રકારે ત૫, ૧૧ ડિમા, ૧૨ ભાવના, ૧૪ ક્ષેત્ર, ૪ પ્રકારે ધર્મ તથા ૧૭ ભેદે પૂજા એમ ગૃહસ્થીની એકાણું બાબત કહી છે. રસદાકાળ સંઘની ભક્તિ તથા તીર્થની ઉન્નતિ કરનાર અવિરતિ સભ્યન્ દૃષ્ટિ આવક પણ પ્રભાવક હોય; ગુણ, સદાચારી, બારવ્રતધારી તે મધ્યમ; ને મદ્ય માંસ ને સ્થળ હિંસા ને ત્યજનાર નવકાર માત્રધારક તે જધન્ય ભાવક હોય. પૃષ્ઠ ૨૩.
ઉત્કૃષ્ટપણે શ્રાવક સચિત્તાહાર ત્યજે એકાસણું કરે ને બ્રહ્મચારી હોય (રોજ એકાસણું ન કરી શકે તો દિવસના આઠમાં ભાગમાં જમે). જિનભવન, જિનબિબ, જિનભક્ત રાખ્યું, જેનમંત્રી તથા અતિશયવાળા આચાર્યું એ પાંચ જિનમતમાં ઉદ્યોતકારક કહ્યાં છે. ૧૭ પ્રકારનાં મરણ તથા વિવિધ કર્મથી વિવિધ પરીસહો થાય તે કહી, સિદાવગાહના વર્ણવી છે. વ્યવહારરાશિમાંથી જેટલા જીવો સિદ્ધ થાય તેટલા અનાદિ વનસ્પતિમાંથી વ્યવહારરાશિમાં આવે. અભત્ર્ય, સિદ્ધ, ભવ્ય તથા જાતિભવ્ય ચારે અનંત છે, છતાં ઉત્તરોત્તર અનંતગણું છે. નિકૂવો કહી, મોતી હાથીના ગંડસ્થળ, શંખ, મત્સ્ય, વાંસ, વરાહની દાઢ, સર્ષશિર, મેધ તથા છીપ એ આઠ સ્થળે થાય તે કહ્યું છે. સંજમઅર્થ એ સારણ, વારણ, પડિચોયણ વિનાના અને ત્યજવો. નારકીને સાતા, ઉ૫પાત, દેવકર્મ, અધ્યવસાય તથા કનુભાવથી હોય. તેનો ઉકૃષ્ટ ઉત્પાત પાંચસો જજન હોય. પૃ૪ ૨૪,
ઔષધના યોગે લોટું સુવર્ણપણાને પામે છે, તેમ આત્મકથાનના યોગે આત્મા પરમાત્મત્વ પામે છે. મલોત્સર્ગ કરતાં ધ્યાનમાં રાખવાની બાબતો કહી છે. અભવ્ય ને જાતિભવ્ય સિદ્ધિ પામશે નહિ. ગીતાથ થોડા દોષવાળું ને બહુ ગુણવાળું જે આચરણ કાર્યને અનુલક્ષી કરે તેને સર્વે પ્રમાણભૂત ગણે. રોજનું એક માણું ગણતાં સો વર્ષ જીવનારને છપન મૂડા તથા ચાલીશ સેઈ (માપ) ધાન્ય જોઇયે. તારા, ચંદ્ર, ને સૂર્ય ઉત્તરોત્તર બળવાન છે; સૂર્યબળ હોય તો નડતા ગ્રહો પણ સારો થાય. સુદ એકમે ચેક શુભ હોય જે તે પક્ષ શુભ જાણવો, કૃષ્ણપક્ષમાં ઉલટું સમજવું. યાત્રા, જન્મ, તથા વિવાહમાં ચંદ્રની પ્રત્યેક રાશિની બાર અવસ્થા નામ પ્રમાણે ફળ આપે. પૃષ્ઠ ૨૫.
સમ્યકત્વ સમયની કર્મરિથતિમાંથી પલ્યોપમ પૃથકત્વ- ક્ષીણ થતાં દેશવિરતિ, ને સંખ્યાતા સાગરોપમ ક્ષીણ થતાં સર્વવિરતિ ચારિત્ર કર્મના ક્ષયોપશમે હોય. સંથારો શ્રેષ્ઠ મંગલ છે. સંથારો કરનાર એક જ સમયમાં અસંખ્ય લાખો ફોડ ભવોમાં બાંધેલું અશુભ કર્મ હણે છે. ભાવજિનોને પણ સર્વ વંદના કરે, તે પણ ચૈત્યવંદન જિનબળ સામે કરે. જિનબિબના અભાવે સ્થાપના ગુરુની સાક્ષિએ પણું કરે. આ પણ ચિત્યવંદન છે, કારણ કે સ્થાપનામાં પરમેષિની પણ સ્થાપના હોય છે. અથવા ગમે ત્યાં જિનબબ કપ પંડિતો વંદના કરે. સામાન્યત: શ્રત એકલું(અર્થ વિના) પ્રમાણ કે અપ્રમાણુ નથી. આંધળો જેમ પાંગળાને લઈ જાય, તેમ શ્રા અને ધારણ કરે છે અને માર્ગ બતાવે છે. પાંચ થાવરને મોહસંજ્ઞા, બેઇયિ આદિને હેતુસંજ્ઞાદેવના રહી ને ગદ્ધવ છોને કાલિકીસંજ્ઞા હોય. છ સભ્ય ગદ્દષ્ટિ ને શ્રુતજ્ઞાનસંજ્ઞા હોય અને કેવળી મતિના વ્યાપાર વિનાના સંજ્ઞાહિત હોય. પૃ૪ ૨૬.
તીર્થંકર ભગવાનનું આગમન સાંભળી ચક્રવતી’ સાડા બાર કોડ ને સાડા આર લાખ સુવર્ણનું પ્રીતિદાન કરે, વાસુદેવ તેટલું જ રૂપાનું કરે, હજારો મંડલિકો લાખોનું કરે ને અન્ય ઇભ્ય શ્રેષ્ટિઓ સ્વશક્તિ ને ભક્તિ અનુસાર કરે. એક જ શબ્દ નિર્દોષ આયંબિલ પિસ્તાળીશ નવકાર સહિંત હોય તો ઉપવાસ બરોબર થાય, નહિ તો બે આયંબિલ ઉપવાસ બરોબર થાય. વર્ષાવાસ આદિમાં શ્રેષ્ઠ દિન શ્રદ્ધાવાળાં શ્રાવક કુલ સ્થાપે, ને તેમાંના એક કુલમાં આચાર્ય, ગ્લાન ને પ્રાણુ અર્થે ગીતાર્યા સિવાય અન્ય સાધુ ન જાય. ચંદ્ર સૂર્ય નક્ષત્રો ને મહાગ્રહોના ચાર-ગતિ વિશેષથી મનુષ્યોને સુખદુઃખ થાય છે. ઉપાશ્રયનું દ્વાર રાત્રે બંધ કરે, કારણ કે નહિ તો વિરોધી, ચોર, શિકારી પ્રાણિ, ભામટા, ગાય, કુતરા, ગાંડા, સર્પ, પક્ષિ, સ્થાનહીન ગૃહસ્થી ધુસી જાય કે અસહ્ય ટાઢ પડે; સર્પ, શિકારી પ્રાણિ કે વિરોધી ધ્રુસી જાય તો ગુરુ પ્રાયશ્ચિત્ત ને બીજાં કારણે ચાર લધુપ્રાયશ્ચિત્ત (ઉપાધિ-ચોર ઘુસે તો લધુ પણું મનુષ્યાપહારિક ઘુસે તો ગુર) કહ્યાં છે. સંયમ વિરાધના ને આત્મ વિરાધના-એમ અણુ વિરાધના બે પ્રકારે હોય, પૃષ્ઠ ૨૭,
"Aho Shrut Gyanam
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
શ્રાવકે યથાશક્તિ ગુણહીન સાધુને ઉચિત દાન ને ગુણવાનને ભક્તિપૂર્વક દાન દેવું. પછી સમવસરણમાં વિવિધ પર્વદા કેમ બેસે ને અન્યોન્ય વિનય નળ તે કહ્યું છે. નંદીશ્વર દ્વીપના અંજનાદિ પર્વતપરના ૫૨ તથા ઇદ્રની રાજધાનીઓનાં ૩૨ મળી ૮૪ ચત્યને વંદન કરી છે. અગિયાર અંગો કાલિક છે પણ દૃષ્ટિવાદમાં વિકલ્પ છે. કાલિકકૃતનો અધ્યયનકાળ દિવસ તથા રવિના પહેલા ને છેલ્ફ્રા પ્રહર છે. ત્રાદિક કર્મના ઉદયનું કારણ છે તે લક્ષમાં રાખી શુભ ક્ષેત્રમાં શુભ દિશા સમુખ શુભ તિથિ નક્ષત્ર મુહૂર્તમાં દીક્ષા ગ્રતારો પણ આદિ કરવાં. પ્રભાસ્ત્ર (સાધારણ દ્રવ્ય), બ્રહ્મહત્યા, દરિદ્રનું ધન, ગુરુપત્તી, દેવદ્રવ્ય એ સ્વર્ગમાં રહેલાને પણ પાડે, પૃષ્ઠ ૨૮,
આચાર્ય, ગ, કુલ, ગણ, સંઘ કે એનો વિનાશ ઉપસ્થિત થતાં સ્વવીયાનુરાર પરાક્રમ કરે ને નારા અટકાવે; તેમ કરતાં દોષ લાગે તેની ગુરુસમક્ષ આલોચના કરી મિચ્છામિ દુક્કડ માત્ર દેવાથી શુદ્ધ થાય, કારણ કે મોટી નિર્જરા થાય છે. જિનેશ્વરનાં અમર છત્ર કલશ આદિ ઉપકરણો નકરો આપ્યા વિના જે વાપરે તે દુ:ખી થાય, વંદનથી નીચ ગોત્ર કર્મ અપાવે, ઉચ્ચ ગોત્ર કર્મ બાંધે ને કર્મગ્રંથિ ઢીલી કરે. ફિઢા, છોભ, ને દ્વાદશાવર્ત એ ગુવંદનના ત્રણ પ્રકાર વર્ણવ્યા છે. બીજું ય ન હોય તો નિશ્રાકૃત ચૈત્યમાં પણ સમવસરણ થાય. મોક્ષ નક્કી હોવા છતાં તીર્થકર ભગવાન પણ અલ વીર્ય ગોપડ્યા વિના સર્વત્ર સર્વથા ઉઘુક્ત રહે છે. કેવલી ને છજસ્થની પડિલેહણનો ભેદ દેખાડો છે. પૃષ્ઠ ૨૯,
સંધાટક (સિધોડા)નો ગુચછો અનેક જીવવાળો ને પત્ર પ્રત્યેક જીવવાળા જાણવા, ને ફળમાં બન્ને પ્રકારે જીવો હોય. મધ, માખણ, સંધાક, ગોરસથી થયેલ વિરલ જ્ઞાત અનંતકાય, અજ્ઞાત ફળ, વંગણ ને પાંચ ઉમરા ન ખાય, ભાવતીર્થ વિવિધ રીતે સમજાવ્યું છે. ઉપશમશ્રેણિઆરૂઢને જે સમ્યકત્વ હોય તે ઉપરામિક સકવ, તેનો સમય અંતર્મુહુર્તનો છે. સંરંબ, સમારંભ ને આરંભ તે અનુકશે સંકલ્પ, સંતાપ, ને પૃથિવ્યાદિના ઉપમર્દન જાણવા, તાનમાં અભક્તિ, લોકવિરૂદ્ધતા, પ્રમત્તની છલના, ને વિદ્યાસાધનમાં વગુચ ન કરવાં, દાન, પૂજા, હોમ ને સ્વાધ્યાય ખડિત, સાંધેલા, છિન્ન, રાતા કે રેક વસ્ત્ર પહેરીને કરવાથી નિષ્ફળ થાય છે. પછી દશ પ્રકારના પ્રાયશ્ચિત્ત કહ્યા છે ને વંદનના આઠ પ્રસંગ કહ્યા છે. પૃષ્ઠ ૩૦.
સામાયિકમાં શ્રાવક, ન ચાલે તો, એક કે બે અધિક વસ્ત્ર-કાવરણ રાખે, છતાં ન ચાલે તો ત્રણ રાખે. સામાયિકમાં શ્રાવિકા કટિવસ્ત્ર-ચણિ, કંચુક તથા ઉત્તરીય (ઉપર ઓઢવાનું) એમ ત્રણું પહેરે, અપવાદે બીરનું ત્રણ પહેરે, પરંતુ પ્રતિક્રમણ સમયે ત્રણ જ રાખે, વધારેનો ત્યાગ કરે. જે સળી વિના મુખશુદ્ધિ ન કરી શકે તે કડવા દે તરા સ્વાદની સળી લે, તેથી વ્રતાદિનો ભંગ થતો નથી. અજ્ઞાની જે કર્મ ઘણા કરોડો વર્ષે ખપાવે તે ત્રણ ગુણિયુક્ત જ્ઞાની ઉછાસમાત્રમાં ખપાવે. રામવસરામાં, જિનભવનમાં, શેરડીના વનમાં, અશ્વઘાદિ ક્ષીર વૃક્ષના વનખડમાં, ગંભીર નાદવાળા કે દક્ષિણાવર્ત જળવાળા ભાગમાં દીક્ષા આપવી. તપ એવું કરવું કે જેથી મનના પરિણામ અશુભ ન થાય, જેથી ઇંદ્રિય હાનિ કે ચોરનો દાસ ન થાય, પૃષ્ઠ :૧.
જિનેશ્વરોએ (એકાંતે) કશાની અનુજ્ઞા કે કશાનો નિષેધ કર્યો નથી, તેમની આજ્ઞા કાર્યમાં સત્ય હોય તે જ કરવાની છે, જે દીક્ષા માટે અસમર્થ હોય, બાલક, વૃદ્ધ, કે રોગી હોય તે નિર્જરા ઇછે તો આવશ્યયુક્ત રહે. દરીનથી ભ્રષ્ટ છતાં ચારિત્રયુwાનો સામાન્યત: રૈવેયક વિમાન સુધી ઉત્પાત થાય, ઉદિષ્ટ ભોજન કરે છે કાયનું મન કરે, દેવના મિસે ધર કરે, પ્રત્યક્ષ સચિત્ત જલ પીએ તેને સાધુ કેમ કહેવાય? સુવતી વજસ્વામિએ દ્રવ્ય-સ્તવ (પુષ્પાદિપૂજન) કરાવવાનું પણ વિધિ તરીકે કહ્યું છે, ને વાચકન ગ્રંથોમાં પણ આ સંબંધી દેશના છે. નિર્દિષ્ટ ગુણો રહિત હોવા છતાં જે ગણ સોંપે કે પ્રવતિની પદ આપે તથા જે લે તેને આણી-સંગનો દોષ થાય. ગણધર પદ શ્રીગૌતમે ને પ્રવતિનીપદ આર્ચા ચંદનાએ ધારણ કર્યા હતાં તે છતાં જાણીને અપાત્રને તે પદો જે અર્પે તે, તથા જે લે તે, તથા ધારણ કરીને વિશુદ્ધ ભાવથી પદને સર્વથા યોગ્ય ન થાય તે મહાપાપી-વિરાધક છે. આસિય, નિશીહિય, ને ઉપસંપદ સિવાયની સાતે સામાચારી પ્રયોજનના અભાવે જિનકપીને હોતી નથી. પૃષ્ઠ ૩૨.
જિનકલ્પી જ ગૃહ-વંક્તિ કરી એકેકમાં પ્રતિદિન ગોચરી માટે વિચરે, તથા એક વસતિમાં સાતથી વધુ ન રહે, ને પરસ્પર સંભાષણ ન કરે. ગણી સાધુના ગુણોની સુવર્ણના ગુણો સાથે સરખામણી કરી છે. જિનકપીને એથી માંડી બાર પ્રકારની, સ્થવિરને ચૌદ પ્રકારની, ને આને પચીસ પ્રકારની ઉપાધિ હોય તે દરેક વર્ણવી છે. ૪૦ અંગુલ પરિધિવાળું ભોજન મધ્યમ ને તેથી ઓછું વધતું જધન્ય તથા ઉત્કૃષ્ટ હોય. પૃ૪ ૩૩.
પાત્રસ્થાપન, ગોક, તથા પ્રતિલેખનીનું પ્રમાણ એક વંત ને ચાર અંગુલ કહી, વિવિધ ઋતુ પર પટલની સંખ્યા કહી, પ્રમાણુ બતાવી રજસ્ત્રાણ, ત્રણ કપ (બે સુતરના ને એક ઉનનો), રજોહરણ (૨૪ અંગુલ દંડને આઠ અંગુલ દસિયા મળી ફર અંગુલ), મુહપરી, માત્રક, ચોલપટ્ટો ને કમઢના પ્રમાણુ વર્ણની, પીઠ, નિરાજા, દંડક, પ્રમાર્જની, લોહઘટ્ટક, ડગલ, પિપલક (અસ્તરો), સોય, નેમિ તથા કાનકરણી ને દાંતકોરનો ઉલ્લેખ કર્યો છે. જેમ પટનું કારણ તંતુ, ને તંતુનું શું છે, તેમ મોક્ષનું કારણ જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્ર અને એ ત્રણેનું કારણ આહાર છે. નિશ્ચય નયના મતે ચારિત્રઘાતથી જ્ઞાન ને દર્શનનો પણ નાશ થાય છે, જયારે વ્યવહાર નયના મતે ચારિત્રઘાતથી જ્ઞાનદર્શનનો નાશ વિકલ્પ થાય, આજ્ઞામાં રહેવાથી જ ચારિત્ર હોય તેથી આપણો સંગથી સર્વનો ભંગ થાય છે. વાસ્તવિક કથન ન કરનાર મિશ્ચાદૃષ્ટિ અન્યને પણ શંકા ઉપજાવી મિથ્યાત્વને જ વધારે છે. પૂ૪ ૩૪,
- ઇંધણ, અગ્નિ, અશ્વગંધ, ધુમાડો, ને વરાળના અંશોથી થતી અશુદ્ધિ ટાળી શકાય એવી નથી. અધ્યામનું મહત્વ કહ્યું છે, ભાવિ ચોવીસીના બારમા “અમમ” તીર્થકરની શીશ્ર સિદ્ધિ વર્ણવતાં તે નરકમાંથી મનુષ્યભવ પામી, પાંચમાં દેવલોકે ઉત્પન્ન થઈ, ત્યાંથી ઍવી તીર્થંકરપણે જન્મી મોક્ષે જશે–એ કહ્યું છે. વાદી, ક્ષમાશ્રમણ, દિવાકર, ને વાચકનો એક જ અર્થ છે. ચિભેદે સમ્યકત્વના દશ ભેદ વર્ણવ્યો છે. દર્શન વિના ચારિત્ર નથી; ને દર્શન હોય તો પણ ચારિત્રની ભજન fણવી. દર્શન ને ચારિત્ર સાથે જ થાય, અથવા પહેલું દર્શન ને પછી ચરિત્ર હોય. સમ્યગદર્શન વિના જ્ઞાન નથી, જ્ઞાન વિના ચારિત્ર નથી, ચારિત્ર વિના કર્મ-મોક્ષ નથી, ને કર્મક્ષય વિના નિર્વાણ નથી. દિવસ કે રાત્રિના કયા પ્રહરે વિવિધ તીર્થકરો મોક્ષ પામ્યા તે કહ્યું છે. અસંયમના સત્તર ભેદ ને ભારહડપક્ષિનું સ્વરૂપ વર્ણવ્યાં છે. પૃષ્ઠ ૩૫.
ઉનનો), ૨
, દંડ, મ0.
"Aho Shrut Gyanam
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
પ્રસ્તાવના
સ્વર્ગમાંથી વી જીવ પૃથ્વીકાય, અપકાય, વનસ્પતિ, ગર્ભજ પર્યાપ્ત સંખ્યાતા જીવસ્થાનકોમાં ઉત્પન્ન થાય તે કહ્યું છે, પછી મહાભારતમાંથી ભવ માંસભક્ષણ, રાત્રિભોજન કંદ ને મૂળાના ભક્ષણનો નિષેધ વર્ણવ્યો છે. પછી માનવી સ્મૃતિ (માનવધર્મસંહિતા ?)માંથી તુમ્બડી, વેંગણ, કલગર, મૂળા તેમજ કાંદા, લસણ, ગાજર, સુરણ, મ, માંસ આદિનો નિષેધ વર્ણવ્યો છે. પદ્મપુરાણમાંથી રાત્રે ભજન તથા જલપાનનો નિષેધ, ને મહાભારતમાંથી મધુપાનનો નિષેધ વર્ણવ્યો છે. પછી અન્નદાનનો મહિમા કહ્યો છે. પૃષ ૩૬.
આવતીથી મહાવતી ને તેથી તત્ત્વજ્ઞાની ચઢે છે, તત્ત્વજ્ઞાની જેવું પાત્ર થયું નથી ને થશે નહિ. પછી શત્રુંજય તીર્થનું ઉત્કૃષ્ટ મહાઓ વર્ણવ્યું છે. દહેરમાં આસાતના ન કરવી તે કહી, મનુષ્ય જન્મની દુર્લભતા, દશ દૃષ્ટાંત કહી છે. ભદ્રહાથીનું મૂલ્ય સવા લાખ, મંદ હાથીનું અર્થ, મૃગ હાથીનું ચોથા ભાગનું ને મિશ્ર જાતિના હાથીનું આઠમા ભાગનું કહ્યું છે. અતિવૃષ્ટિ, અનાવૃષ્ટિ, ઉંદર, તીડ, પોપટ, સ્વરન્ય અને પરસન્ય એ સાત ઈતિઓ કહી છે. ગણીને, તેળીને, ભરીને તથા માપીને એમ ચાર રીતે વિવિધ વસ્તુનું પ્રમાણુ થાય છે. બેઈદ્રિયથી અનુત્તરવિમાનના દેવો સુધી ઉત્તરાર શુદ્ધ જ્ઞાન રણવું–ને સર્વથા શુદ્ધ પૂર્વધરનું જાણવું. શ્રી ઋષભદેવને પ્રથમ ભિક્ષા વર્ષે મળી બાકીના તીર્થકરોને બીજે જ દિવસે મળી, મિથ્યાવ, સાસ્વાદન કે અવિતિ સમ્યકત્વ ગુણસ્થાને જ પરલોકગમન થાય. પ્રત્યેક ગુણસ્થાનનો સમય કહી, દેશ નિર્યુક્તિનાં નામ કહ્યાં છે. પૃષ્ઠ ૩૭.
શ્રી મહાવીર તથા શ્રી ઋષભદેવનો પ્રમાદકાલ અંતર્મુહર્ત તથા અહોરિ; ઉપસર્ગો શ્રી પાર્શ્વનાથ તથા શ્રી મહાવીરને જ થયા બીનાને નહિ. શ્રી ઋષભદેવ, શ્રી નેમિનાથ, શ્રી પાર્શ્વનાથ, તથા શ્રી મહાવીર આર્યું તેમ જ અનાર્ય, દેશોમાં વિચર્યા, શેષ તીર્થકરો માત્ર આર્ય દેશમાં જ વિચર્યા. પછી ૨૪ જિનતપ, જિનદીક્ષા-બંત પરિવાર, જિનવલા, દેવદૂષ્ય તથા તેનો કાળ, જિનજ્ઞાનતપ, જિનમોક્ષપરિવાર, યુગાન્તકર ભૂમિ તથા પર્યાયાન્તકર ભૂમિ વર્ણવી વસુધારા ઉત્કૃષ્ટી સાડા બાર કરોડ સુવર્ણની તથા જધન્ય સાડા બાર લાખ સુવર્ણની કહી છે, પૃષ્ટ ૩૮.
આહાર પુરુષનો બત્રીસ કોળિયાનો ને સ્ત્રીનો અઠાવીસ કોળિયાનો કહી, કોળિયાનું પ્રમાણ બતાવી, આચાર્ય, ઉપાધ્યાય, પ્રવર્તક, સ્થવિર, તથા ગણાધિપતિના આવશ્યક ગુણો કહી, અઢાર દે શ્રેહાચર્ય કહી, રસાલું નામક રાજ્યને યોગ્ય પાક બે પલ ઘી, એક પલ મધ, આ અઠક દહિં, વીસ મરી, તથા દશ પલ શાકર અથવા ગોળથી થાય છે તે કહ્યું છે. દિવસના ત્રણ પહોર પછી અકાલ ગમનને લઈ ચારિત્ર દોષની સંભાવનાના કારણે, સાધ્વી તથા શ્રાવિકા સમવસરણમાં ન જાય. પૃષ્ઠ ૩૯.
પછી નવ પ્રકારે ત્યવંદના વર્ણવી છે. મતિજ્ઞાન ને પ્રતજ્ઞાન પક્ષ છે તથા બાકીના જ્ઞાન આપ્રત્યક્ષ છે. મતિજ્ઞાની, શ્રુતજ્ઞાની તથા કેવલી છ દ્રવ્ય જાણે, અવધિજ્ઞાની માત્ર પુલિદ્રશ્ય જાણે, ને મન:પર્યવજ્ઞાની મનચિંતગ્યા પર્યાય પણ જાણે એ કહી, મતિ, શ્રત, અવધિ તથા મન:પર્યંવના ભેદપભેદ વર્ણવી, કેવળજ્ઞાનના એકલું, અસહાય, અસાધારણ, અનંત, શેષરહિત ને કેવળ એમ છ અર્થ કહ્યા છે. પૃષ્ઠ ૪૦.
કરીની જેમ સ્વાભાવિક રીતે અથવા ઉપચારથી કર્મની નિર્જરા અકામને સકામ બે પ્રકારે હોય. શ્રીજિનદત્તસૂરિએ કહ્યું છે કે ઘાર્મિક પુરુષ ધર્મરક્ષાર્થે યુદ્ધ કરતાં અન્યને મારે તો પણ તેને ધર્મ થાય ને ક્રમે મોક્ષ પામે, મૂલ્યથી પુષ્પાદિ મળતા હોય તો વાડી ન કરાવે ને રથાવર મિલકત વરસાવી ને દેવદ્રવ્યનો સંગ્રહ કરી ન વધારે. મરણસત્ર પુરુષ કણ ફેડવા કે ભક્તિથી ઘર હાટ આપે તો તે જિનચૈત્યમાં હાસ્ય કીડા હોડ જે, રાત્રે દહેરામાં સાન, નંદિ તથા પ્રતિષ્ઠા ન કરે તથા સ્ત્રીને ન આવવા દે. નિષ્ઠિ કારણથી દીક્ષાનો પ્રતિબંધ અતિ અયોગ્ય માટે કહ્યો છે, છતાં દીક્ષાથી ભ્રષ્ટ થનારને પણ પૂર્વે આપેલી દીક્ષા મુક્તિના બીજરૂપ છે. સાધુએ પ્રચ્છન્ન ભોજન કરવું, જેથી કર્મ બંધ ન થાય. દીક્ષા માટે જધન્યથી વય પ્રમાણ આઠ વર્ષનું ને ઉત્કૃષ્ટપણે આરોગ્ય હોય ત્યાં સુધીની વય કહી છે. તેથી ઓછી વયનાં પરાભવ પાત્ર થાય છે, ચારિત્રનો ભાવ પણ પ્રાચઃ ત્યારે પરિપાક પામતો નથી, પૃષ્ઠ ૪૧.
કર્મના ક્ષચોપશમથી થતાં ચારિત્ર્ય ને બાલકપણાને વિરોધ નથી તેથી બાલદીક્ષિતને એકાંત અયોગ્ય કહેવા અસદૂગ્રહ છે. દીક્ષામાં ચૌદસ, પુનમ, આઠમ, નોમ, છઠ, ચોથ, તથા બારસ વર્જવી. ત્રણ ઉત્તર તથા રોહિણીમાં દીક્ષા, અનુજ્ઞા તથા મહાવ્રત આપે. દીક્ષામાં ત્યારે નક્ષત્રો ને તેથી થતાં અનિષ્ટ ફળ કહ્યાં છે. દીક્ષા આપતાં ત્યવંદન કરે, ૨હરણ આપી, લોચ કરી, સામાયિક-કાઉસગ્ન કરી, સામાયિક ત્રણ વખત ઉચ્ચરે ને ત્રણ પ્રદક્ષિણા દે. શિષ્યને ગુરુ પોતાની ડાબી બાજુએ બેસાડી દરેક વ્રત ત્રણ વખત ઉચ્ચારી છે. પદ્મવસ્તુક પ્રમાણે ચિત્યવંદન ને વર્ધમાન સ્તુતિ કરે–એવો પાઠ છે. ચૌદ નિયમ કહ્યા છે. પૃષ્ઠ ૪૨.
- તલથી માંડી પૃથ્વીનું કોઇક કહ્યું છે. જાતિ-રમરણથી પૂર્વના એકથી નવભવ જાણે. સાત નિવો ને દિગંબરની ઉત્પત્તિની સાલો તથા સ્થળો આપ્યાં છે. પણ ૪૩.
આધાકર્મ પરિણતિવાળી શુદ્ધ ભોજન કરે તો ય કર્મ બાંધેને શુદ્ધ આહારની શોધ કરનાર આધાકમાં આહાર લે તો પણું શુદ્ધ હોય. શ્રીપાદલિપ્તાચાર્યની માંત્રિક શકિત દેખાડનારી ગાથા છે કે તેઓ જનુ પર જેમ જેમ તર્જની માટે-ફેર છે તેમ તેમ મુડ રાજાની મસ્તક વેદના નાશ પામે છે. દુમતિવાળા કામીઓ કર્મ બાંધે ને વિરક્ત ન બાંધે તે લીલા ને સુકા બે માટીના ગોળામાંથી લીલો કરીને ચાટે ને સૂકો ન ચોટે તે પરથી કહ્યું છે. ચક્રવતીના નવનિધાનોનો નામોલ્લેખ કર્યો છે ને તેની મંજીષાનું પ્રમાણુ કહ્યું છે. જે કે (ઍવનકાળ સમીપ આવતાં) દેવોના તેજનો દ્વારા થાય છે છતાં તેમની પસંપદા અસંખ્ય ગણી હોય છે. 'પૃષ્ઠ ૪૪.
તીર્થંકરના જન્મ મહોત્સવ આદિ પ્રસંગે બનવાસિ શંખનાદથી, વ્યંતરો પડહના નાદથી, જ્યોતિષી સિંહનાદથી, ને કશ્યાધિક દેવો ઘંટનાદથી રાસંશ્ચમ ૯ઠી સર્વ સદિધી મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં જ છે. શ્રી સીમંધરસ્વામિના જન્મ દીક્ષા ને સિદ્ધિના સમય કહ્યા છે, મંત્રીના ત્રીશ ગુણ કહી, ગુરનું મહત્ત્વ દર્શાવી, ચૉમાં પશુ-હિંસા ચુક્તિ-સંગત નથી તે ઉપહાસપૂર્વક કહ્યું
તથા એશિયા કહેવા અસહ
ક ૧ કહ્યું છે.
"Aho Shrut Gyanam"
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
જાથાલ
છે. કામરાગ ને એહરામ કરતાં દૃષ્ટિરાગ દૂર કરવો અતિ દુષ્કર છે. નવીન જિનમંદિર કરતાં જીર્ણોદ્ધારમાં આઠગણું પુણ્ય થાય. માટી, પાષાણુ, કાક, ચાંદી, સોનું, રત, મણિ કે ચન્દનનું જિનબિંબ કરાવનાર મનુષ્યલોકના તથા સ્વર્ગના સુખભોગવે, શ્રી મહાવીરનો મહાન અભિમહ જે શ્રીચંદનાએ પૂર્યો તે વર્ણગ્યો છે. પૃષ્ઠ ૪૫.
અત્યંત પ્રતિકૂળ સંજોગોમાં શ્રીસ્થલભદ્રે કામને જિત્યો તેની પ્રશંસા કરી છે. જિનપૂજામાં ત્યાના પુણ્ય ફલ ને પત્ર બતાવ્યાં છે. પ્રસ્થાન સમયના શુભ શકુન કહ્યા છે. વાસ્તુડિયો, પલ્લવગ્રાહી, ઉંધણસી, અંતિચંચલને વચ્ચેથી ઉઠી જનાર વ્યાખ્યાનને અયોગ્ય છે. વિદ્યાને સર્વધનમાં પ્રધાન કહી આઋાય દુર્લભ કહ્યા છે. અસારનો આડમ્બર વિશેષ હોય, જેમ સુવર્ણના વિનિ કરતાં કાંસાનો અધિક હોય. જુથની પ્રશંસા કરી, મૂખાનું ઓષધ નથી એમ કહ્યું છે, સાગરતીરે કુવાનું જળ શોધનાર મુસાફરની અન્યોકિત કહી છે. સંદેશો, લેખ, ને મીલન ઉત્તરોઉત્તર કિંમતી છે, પણ સ્વચ્છ સંગમ થતાં કંઈ કિંમત રહેતી નથી. શ્રતસાગર અપાર છે, આયુષ થોડું છે, જીવે બુદ્ધિશાળી નથી, માટે જે થોડું પણ કાર્યકારી થાય તે શિખવું. દુષ્ટાંતથી નિર્ધનનું વિત કષ્ટમય બતાવી, ધર્મ અને ધનનો અવિનાભાવ સંબંધ કહ્યો છે. પુરુષાર્થ કરતાં પુણ્યની પ્રબળતા દર્શાવી છે. પણ ૪૬.
તપ કરતાં વિદ્યાનું પ્રાધાન્ય બતાવી કુપાત્રને આપેલી વિદ્યા નિષ્ફળ બતાવી છે. એકલી વિદ્યાથી જ નહિ પણ તપથી એ પાત્રતા આવે છે, ને બન્ને જ્યાં હોય તે જ પાત્ર છે. માઘકવિ દારિદ્રય સંતોષથી સડે છે, પણ વાચકો પાછો જય છે તેનું દુ:ખ તેને અસહ્ય લાગે છેતે કહ્યું છે. બાહ્યશગું કરતાં અંતરંગશાનું વધારે બલવાનું કહ્યા છે. વેર, વેશ્વાનર–અગ્નિ, વ્યાધિ, વાદ ને વ્યસન મહા અનર્થકારી ફહ્યા છે. અઢારભાર વનસ્પતિનાં નામો આપ્યાં છે, તે ચાર પુષિત, આઠ ફલને પુષ્પવાળી,ને છ વેલો એમ અઢાર કહી છે. પૃષ્ઠ ૪૭.
પુસ્તક લેખન રક્ષણનાં શુભ ફળ કહ્યાં છે. બાલક સ્ત્રી મન્દુમતિ તથા મૂર્ણ ને ચારિત્રની ઇચ્છાવાળા માટે સિદ્ધાંત પ્રાકૃતમાં રહ્યા છે. માયાશીલ મનુષ્યનો વિશ્વાસ ન થાય; મોર મધુર બોલે છે, પણ ઝેરી નાગને ખાય છે. પરાશય દુઃખકારી કહ્યો છે. પુત્ર પિતા જેવો હોય એ કાન ખોટું છે–રસૂર્યાસ્ત થતાં શનિ એક ક્ષણ પણ પ્રકાશ આપતો નથી. કન્યાનો પિતા હમેંશ દુ:ખી હોય છે. વસંતઋતુમાં કાગડો તે કાગડો ને કોયલ તે કોયલ જણાઈ આવે છે. રાની મુશ્કેલી ત્યાં લાડવાની શી વાત? વચનમાં જ દરિદ્રતા તો ધનની શી આશા ? અતિ પરિચયથી વિશિષ્ટ વરતુ પ્રત્યે પણ અવજ્ઞા થાય છે, જેમ પ્રયાગમાં પ્રાયે લોક કુવાપર ન્હાય છે. પછી મચ્છરની, હંસની, કોકિલની, મોરને પીછાંની તથા જલની અન્યોક્તિઓ તથા કેટલાંક સુભાષિતો આપ્યાં છે. અપમાન થતાં સિહ, સપુરુષ ને હાથી જતા રહે છે, પણ કાગડો, હલકો માણસ, તથા મૃગ સ્થાન છોડતા નથી. ચિતારો, કાવ્ય કરનાર, કુવૈદ્ય, તથા ખરાબ રાજા, ને ગામનો કુથલીખોર નરકે જાય છે. વામનમાં ૬૦, માંજરામાં ૮૦ને હેમુંટ-હીન અંગવાળામાં ૧૦૦ દોષ હોય છે, પણ કાણાના દોષની તો સંખ્યા જ કહી શકાય નહિ. પૂછ ૪૮.
સારા છંદવાળી, સારા રૂપવાળ, સરસ ઉકિતવાળી, ગ્રહણ કરાતી ગાથા શ્રેષ્ઠ સુંદરીની જેમ રસ-આનંદ આપે છે. કેટલાક સુભાષિત પછી સમવસરણની બાર પર્ષદા વર્ણવી છે. બે મોઢાવાળી સોયથી સીવાય નહિ, તેમ ઇન્દ્રિય સુખને મોક્ષ સાથે ન સંભવે. ગ્રંથકારે રમુજ કરી છે કે વીતરાગે જે રાગદ્વેષને જિત્યા તે સુલ થઈ હઠ કરી તેના સંતાનોની પેઠે લાગ્યા છે. અંતરાત્મા જલથી નહિ, પણ સંયમ, સત્ય, ને શીલથી શુદ્ધ થાય છે. શેષ, દરિદ્રતા, બંધુ પ્રત્યે વેર, અતડાપણું, અત્યંત કોપને કડવી વાણી એ નરકમાંથી આવેલા ચિહ્ન છે. ખારાપણું, માનહીનતા, અતિબીકણપણું, અતિશલ, માનાપમાનમાં જડતા એ તિર્યંચગતિમાંથી આવેલાના ચિહ્ન છે, સંતોષ, મધ્યસ્થતા, અ૫કોપ, કષાયરહિતતા ને ભોગાભિલાષમાં સમચિત્તતા એ મનુષ્ય ગતિમાંથી આવેલાના ચિહ્ન છે. મુનિ તીર્થનું મૂળ છે, તેથી મુનિને આહાર આપનાર તીર્થોન્નતિ કરે છે, કેવળીના અભાવે મુનિઓ જ ઉપકારી છે. પૂક ૪૯.
શ્રી મહાવીરે પણ મુનિદાનના પ્રભાવે દુર્લભ બોધિબીજ પ્રાપ્ત કર્યું હતું. ચોરાસી પ્રકારના આસને રહી મુનિવરો કાઉસ્સગ્ગ ધ્યાન કરતા, આતાપના લેતા, કે વિવિધ તપ કરતા, ને દુષકર્મની ગ્રંથિ તોડતા. કેટલાક કૃતપાઠ કરતા, શંકા પૂછતા, વિચારતા કે પુનરાવર્તન કરતા હતા. તેઓ કોધ, માન, લોભ, ને પરીસહ, નિદ્રા, માયા, ને ઇનિદ્રય જિતનારા, ધીર, ને મોહનો પરાજય કરનારા હતા. ગ્રંથકાર કહે છે કે આ “ગાથાસહસ્ત્રી' ગ્રંથ મુખમાં તાંબૂલની જેમ શોભાકારી છે. વ્યાખ્યાનચાત ઇચછના વિવિધ ગ્રંથોમાંથી શ્રમપૂર્વક અન્ને ભેગા કરેલી ગાથા, લોક ને કાવ્યો કંઠસ્થ કરી વ્યાખ્યાનની વચ્ચે વચ્ચે અવસર જોઈ કહેવા જેથી ચતુર શ્રોતાઓના ચિત્ત ચમત્કાર પામશે. પ્રશસ્તિ પણ ૫૦.
આ પ્રસ્તાવના લખવાની તેમજ કુફ શોધન માટે પ્રેરણું કરી આવા સુંદર ગ્રંથરત્રના પ્રકાશનમાં સહાય આપવાની તક આપવા માટે ઉપાધ્યાય શ્રી ૧૦૮ સુખસાગરજી મહારાજનો આભાર માનું છું. મુદ્રિત થના વાંચકને આવા ગ્રંથોના સંપાદનમાં પડતા શ્રમનો પૂરો ખ્યાલ ન આવે, પણ જેણે થોડાં પણ અવતરણોનાં મૂળ શોધવાની તકલીફ લીધી હશે તે જરૂર કહી શકશે કે અનુક્રમણી વગરના ગૃહકાય ગ્રંથોમાંથી એકેક પ્રકીર્ણ ગાથા શોધી કાઢી સ્થળનિર્દેશ કરવો કેટલા શ્રમ ને સમયથી સાધ્ય છે. લેખકે પણ અત્ર તેમ કર્યું છે તેથી તે કહી શકે છે. પ્રાકૃત ભાષાની અનિયમિતતાએ શુદ્ધિનું કાર્ય મુશ્કેલ કર્યું હતું તેટલું જ આ ગ્રંથની હસ્તલિખિત શુદ્ધ પ્રતોના અભાવે પણ કર્યું હતું. એક જ પ્રત પરથી પ્રેરા કૉપી તૈયાર થઈ હતી, ને બીજી બે મતો પ્રફ શોધનમાં ઉપયોગી થઈ હતી, પાછળથી એક અશુદ્ધ ઘણું બક્ષિણ ભાગવાળી પ્રત પ્રાપ્ત થઈ હતી તે ઉપયોગી થઈ ન હતી. આ ગ્રંથના વિદ્વાન સંપાદક શ્રી સુખસાગરજીએ છતાં શ્રમ લઈ પ્રકાશનકાર્ય ઉત્સાહપૂર્વક પાર ઉતાર્યું છે તે માટે વાંચક વર્ગ તેમને કહ્યું છે.
૧૫ ધનજી સ્ટીટ, મુંબઈ . ૩. સં.૧૯૯૧માર્ષિ શુકલ ૫ શનિ. તા. ૧૬-૧૨:૩૯ ઈ
મોહનલાલ ભગવાનદાસ ઝવેરી. બી.એ. (ઓનર્સ), એલએલ.બી, સોલિસિટર,
"Aho Shrut Gyanam
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहम्
॥ श्री-स्तम्भनपार्श्वनाथाय नमः ॥ श्रीमरखरतरगच्छालकार श्रीअकबरसाहि प्रतिबोधक जङ्गमयुगप्रधान भहारक श्रीमजिनचन्द्रसूरीश्वरशिष्यरत्न-महोपाध्याय-श्रीसकलचन्द्रगणिवर-शिष्यवाचक समयसुन्दरगणि
प्रथितोऽयं ग्रन्थः ।
श्री गाथासहस्त्री।
॥ सरस्वत्यै नमः॥ पंडिरूवाइ चउद्दस, खंतीमाई य दसविहो धम्मो । बारस य भावणाओ, सूरिगुणा हुँति छत्नीसं ॥ १ ॥
[इति ३६ सूरिगुणाः ॥] छबय छकायरक्खा १२, पंचेन्द्रिय १७ लोहनिग्गहो १८ खंती १९ । भावविसुद्धी २० पडिले, हणाइ करणे विसुद्धी य २१ ॥ २ ॥ संजमजोए-जुत्त य २२, अकुसलमणवयणकायसु निरोहो २५ । सीयाइ-पीडसहणं २६, मरणं (तु) उवसग्गसहणं च २७ ।। ३ ॥ सत्तावीसगुणेहि, एएहिं जो विभूसिओ साहू । तं पणमिजइ भत्तिब्भरेण हिअएण रे जीव ! ॥४॥
[इति २७ साधुगुणाः ॥] धम्मरयणस्स जुग्गो, अक्खुद्दो १ रूववं २ पगइसोमो ३ । लोगप्पिओ ४ अकूरो ५, भीरुं६ असढो ७ सुदक्खिन्नू ८॥५॥ लज्जालुओ ९ दयालू १०, मज्झत्यो ११ सोमदिदि १२ गुणरागी १३ । सक्कह सुपक्खजुत्तो १४, सुदीहदरिसी १५ विसेसन्नू १६ ॥ ६ ॥ वुड्डाणुगो १७ विणीओ १८, कयन्नूओ १९ परहिअत्थकारी अ २० । तह चेव लद्धलक्खो २१, इगवीसगुणो हवइ सड्ढो ॥७॥
[इति २१वकगुणाः श्रीप्रवचनसारोद्धारे पृ. ५०.] बॉरगुणा अरिहंता १२, सिद्धा अद्वेव २० सूरि छत्तीसं ५६ । पणवीसं उवज्झाया ८१, साहू सगवीस १०८ अट्ठसयं ।। ८ ।।
[इति नवकारवाली १०८ मणिकविचारः ॥]
१-"पडिरुवो तेयस्सी०" इत्यादि १४ । २-"खंतीमहव०" इत्यादि १०।३-“पढममणिश्चमसरणं" इत्यादि १२ । ४-प्राणातिपातादि ६।५-पृथिवीकायादि ६ । ६-शुभभावना। -कापि-"भीरू असढो" इत्येको गुणः । ८-"सत्कथः सुपक्षयुक्तश्च" इति गुणद्वयं पृथक् । ९-न्यायोपात्तवित्तेन सदा संतुष्टः १, अक्षतपञ्चेन्द्रियो नीरोगश्च २, खभावेन स्वच्छहृदयः ३, सामान्यजनवल्लभः राजादिसम्मतो वा ४, परवञ्चनाबुद्धिरहितः ५, धर्म कुर्वन् मातापितृगुरुराजा दिभ्यो निर्भीकः, अथवा संसारात् त्रस्तः ६, अमायी ७, अल्पात्मक्षतौ सत्यामपि बहुतरोपकृतिकरणशीलः, ८ अकार्येभ्यस्त्रपावान् ९, त्रसस्थावरजन्तुरक्षाकृत १०,बहुतरं रागद्वेषवर्जितः ११, दर्शनमात्रादेव सर्वलोकानन्ददायी १२, गुणपक्षपातकारी न तु कुलक्रमागतकदाग्रहप्रस्तः, १३ शोभनधर्मकथाकथकः, सपक्षयुक्तश्च उभयवंशविशुद्धः, विशेषद्वयेनापि एक एव गुणः १४, कार्य कुर्वन् दीर्घविचारी न तु औत्सुक्यभाक् १५, गुणागुणवित् १६, धर्मिष्ठवृद्धलोकमत्युपजीवी १७, मातृपितृगु,दिविनयकृत् १८, अन्यकृतोपकारज्ञः १९, परेषां संसारसागरोत्तारकः २०, सभायां राजादीनां गुर्वादीनां चेष्टाज्ञः २१ द्वितीयश्रावकगुणाः प्रकारांतरेणापि इति ॥१०-अटारगुणा अरिहंता, सिद्धा पंचव सूरि छत्तीसं। बावीसं उवज्झाया, साहू सगवीस अट्रसयं ॥१॥ १८ दोषरहित पंचानन्तकसहित अनन्तज्ञान १ दर्शन २ चारित्र ३ वीर्य ४ सुख ५ रूपं ६ पचानन्तकम् । उपाङ्ग १२ अङ्गदश ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
जिणकपिआ (वि) य दुविहा, पाणीपाया पडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउरणा, इकेका ते भवे दुविहा ॥ ९॥ दुग २-तिग ३-चउक ४-पणगं ५, नर ९-दस १०-एक्कारसेव ११-बारसंग १२ चेव । एए अट्ठविगप्पा, जिणकप्पे हुंति उवहिस्स ॥ १० ॥
[इति श्रीप्रवचनसारोद्धारसूत्रे ६ शते जिनकल्पिकानामष्टौ भेदाः॥] पत्तं १ पत्ताबंधो २, पायढवणं च ३ पायकेसरिया ४ । पडलाइं ५ रयत्ताणं ६, च गोष्टछओ ७ पायनिजोगो ८॥११ ।। "तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं ९१ चेव होइ मुहपोत्ती १२ । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ १२ ॥
[एतानि १२ जिनकल्पिकानामुपकरणानि ] एए चेव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो अ । एसो चउदसरूवो, उवही पुण थेरकप्पंमि ॥१३॥
[इति श्रीप्रवचनसारोद्धारसूत्रे पत्रे ११७ स्थविरकल्पिकसाधूनां ४ उपकरणानि ॥] तण १ छार २ डगल ३ मल्लग ४ सेज्जा ५ संस्थार ६ पीढ ७ लेवाई ८। सिज्जायरपिंडो सो, न होइ सो होइ बहिओत्ति ॥ १४ ॥
[इति श्रीस्थानावृत्तौ ॥] सावयकुलम्मि वर हुन्जा चेडओ नाणदंसणसमिद्धो। मिच्छत्तमोहिअमई, मा राया चकवट्टी वि ॥ १५॥ दुविहे गुरू पन्नत्ते तंजहा-तवोवउत्ते १ नाणोवउत्ते य २। तत्थ तवोवउत्ते वडपतसमाणे १ केवलमप्पाणं तारेइ १ । नाणोव उत्ते जाणवत्तसमाणे अप्पाणं परं च तारेह ॥ १६ ॥
[इति श्रीउपदेशसत्तरीग्रन्थे ३ अधिकारे । उपदेशे ५१ पत्रे ॥1 जंति अ मुच्छिममणुया, पुढवाई दसपएसु नियमेण । आगच्छंती अडए, तेऊ १ वाऊ नहुति ( नोइंति ) नरा ।। १७ ॥
[इति श्रीकम्मपयडी कर्मग्रन्थे ॥] पढमा आवस्सिया १ नाम, वीया य निसीहिया २ । आपुच्छणा ३ य तइया, चउत्थी पडि१-पाणी० पाणिपात्राणाम् अप्रावरणानो रजोहरणं १ मुखवस्त्रिका च २ इति उपकरणद्वयम् १, पाणि• प्रावरणधराणां च द्वे ते एव एक कल्पग्रहणेन ३ उप०, कल्पद्वयग्रहणेन ४ उप०, ३ कल्पत्रयग्रहणेन उप० ५, ४ पात्रधराणां प्रावरणधराणां च ७ उपकरणानि पात्रसंबन्धानि, २ रजोहरणमुखवनिकाभ्यां सह ९ उपकरणमेदाः । ५ पात्रप्रावरणधराणां ९ तान्येव । एक कल्पग्रहणे १० उपकरणभेदाः । कल्पद्वयग्रहणे उप० ११ भेदाः । ७ कल्पत्रयग्रहणे उप० १२ भेदाः। २-'पात्रस्थापन' यन्त्र कम्बलखण्डे पात्रं निधीयते। ३-"पायके०" पात्रप्रमार्जनपोतिका पटलानि भिक्षावसरे पात्रप्रच्छादकानि तानि च यदि सर्वस्तोकानि तदा त्रीणि भवन्ति अन्यथा पञ्चसप्तेति । रय० पात्रवेष्टनचीवरम्, गो० पात्र वस्त्र प्रमाजनहेतुः कम्बलशकलरूपः। ४-त्रय एव प्रच्छादा द्वौ सौत्रिको तृतीय और्णिकः । पतद्धहो येन वस्त्रखण्डेन पात्रं धार्यते कम्बलमयं पात्रो यत्र पात्रकाणि स्थाप्यन्ते, चिलिमिलिका-पात्रवेष्टानि ॥ ५-मत्तग नंदी पात्रः ७ उम्गहऽणंतग पट्टो, अहोरुअ चलणिया बोधव्वा । अब्भंतरबाहिनियंसणि य तह कंचुए चेव ॥१॥ भोकच्छिय वेकच्छिय,-संघाटी चेव खंधगरणीय। ओहोवहिंमि एप; अज्जाणं पन्नवीसं तु ॥२॥ इति साध्वीनां २५ उपकरणानि ॥ ६-'आ' अवश्यकर्तव्योगनिष्पन्ना आवश्यकी आश्रयाग्निर्गच्छतो भवति साधोः १। 'नि' निषेधेन निर्वृत्ता नषेधिकी व्यापारान्तरनिषेधरूपा आश्रये प्रविशतो भवति २ 'आ' आपृच्छनमापृच्छा, सा च विचारभूमिगमनादिप्रयोजनेषु गुरोः कार्या ३ । 'प०' प्रतिपृच्छा प्रश्नः प्रागनियुक्तेनापि कार्या ४ । 'छं०' छन्दना व पागूगृहीतेन अशनादिना कार्या ५। 'इ' एषणम् इच्छा, करण-कारः, इच्छया-बलाभियोगमन्तरेण करणम्-इच्छाकारः, यथा इच्छाकारेण ममेदं कुरु ६ । 'मि० मिथ्याक्रिया ७।'त तथा करणं तथाकारः, स च सूत्रप्रनादिगोचरः, यथा भवद्भिरुक्तं तथैवेदम् ८॥ 'अ' आभिमुख्येन उत्थानम् उद्यमनम् अभ्युत्थानं, तच्च गुरुपूजायां या च गौरवार्हाणामाचार्यग्लानबालादीनां यथाऽऽहारादिसंपादनम् । अत्राभ्युत्थानं निमन्त्रणाभूतरूपमेव ग्राह्यम् ९। 'उप०' उपसम्पत्-'इतो भवदीयोऽहम्' इत्यभ्युपगमः, सा च ज्ञानदर्शनचारित्रार्थत्वात्रिधा, तत्र ज्ञानसम्पत्-सूत्रार्थयोः स्थिरीकरणार्थ, तथा विश्रुटितसन्धानार्थ, तथा प्रथमतो प्रहणार्थमुपसम्पद्यते। दर्शनोपसम्पदा येवं नवरे दर्शनप्रभावकसन्मत्यादिशास्त्रविषया । चारित्रोपसम्पच वैयावृत्त्यकरणार्थं क्षपणार्थ च उपसम्पद्यमानस्यति १० ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा सहली ।
पुच्छणा ४ ॥ १८ ॥ पंचमा छंदणा ५ नाम, इच्छाकारो ६ य छट्ठओ । सत्तमो मिच्छंकारी ७ य, तहका ८ य अट्टमो ॥ १९ ॥ अन्भुट्ठाणं ९ नवमं, दसमा उवसंपया १० | एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेश्या ।। २० ।। विहि- जिणभवणे गमणं, घरपडिमापूयणं २ च सज्झायं ३ | पुप्फवई इत्थीणं, पडिसिद्धं पुबसूरी हि ॥ २१ ॥ आलोअणाइ न पडइ, पुरफवई जं तवं करइ नियमा । पयरणसुत्तं अन्नं, न गुणेइ अ तिन्नि दिवसाई || २२ || मेणुआउ सम गयाई, हयाइ चउरंस अजाइ अहंसा | गोमहिसुखराई, पणंस साणाइ दस मंसा || २३ || ( मोहो कोडाकोडी सत्तरि वीस च नाम गोयाणं । तीसऽयराणि चउन्हं तित्तीसऽयराणि आउस्स | ) एगो य सत्तमीए, पण हरि छट्ठी पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए, कण्हो तइयाइ पुढवीए ॥ २४ ॥ अट्ठ बलदेव सिद्धा, चरिमो पुण. पंचमम्मि कप्पम्मि । उस्सप्पिणीइ सो पुण, सिज्झरसइ कण्हतित्थंमि ॥ २५ ॥ अनियाणकडा रामा, सधेवि केसवा नियाणकडा । उडुंगामी रामा, केसव सत्रे अहोगामी ॥ २६ ॥ उसभस्स तिनि गाऊ, बैत्तीस घणूणि वद्धमाणस्स । सेस जिणाणमसोगो, सरीरओ बारसगुणो य ॥ २७ ॥ बारवरिसेहिं गोयमो, सिद्धो वीराओ बीसहिं सुहम्मो । चउसट्ठीए जंबू, बुच्छिन्ना तत्थ दस ठाणा || २८ || मण १ परमोहि २ पुलाए ३, आहारग ४ खवग ५ उवसमे ६ कप्पे ७ । संजमतिअ ८ केवलि ९ सिज्झणाय १० जंबुम्मि बुच्छिन्ना ॥ २९ ॥
[ इति श्रीप्रवचनसारोद्धारे ॥ ] चत्तारि वाराओ, चउदसपुबी करेइ आ (शरीरं ) हारं । संसारम्मि वसंतो, एगभवे दुन्नि वाराओ ॥ ३० ॥ अरिहंत १ चक्कि २ केसव ३, बल ४ संभिन्ने अ ५ चारणे ६ पुत्रा ७ । गणहर ८ पुलाय ९ आहारगं च १० न हु हवइ महिलाणं ॥ ३१ ॥ एगिंदिय १ पंचेंदिय २, उड्डेअ अहे अ तिरियलोए अ । विगलिंदिअ जीवा पुण, तिरिअलोए मुणेअवा ॥ ३२ ॥ मुढवी १ आऊ २ वणरसई ३, बारसकप्पे सु सत्त पुढवीसु । पुढवी जा सिद्धिसिला, तेऊ नरखित्ति तिरिलोए ॥ ३३ ॥ “सिद्धान्ते तु -- एकयोजनो" बारसजोअणपिहुला, सुघोसघंटा य अद्धउच्चत्तं । चत्तारि अ लालाओ, देवा सयपंच वायंति ॥ ३४ ॥ जावजीव १ वरिस २ चउमास ३ पक्खगा ४ निरय १ तिरि २ नरा ३ अमरा ४ | सम्मा १ णु २ सवविरई ३, अहखायचरित ४ घायकरा ॥ ३५ ॥ चक्खुनिरक्खणमेगं १, पुरिमा छव ७ पुत्र काया । अख्खोडा १६ पक्खोडा २५, नव ९ पणवीस इच्छंति || ३६ || बारस बाहि १२ ठाणा, बारस ठाणाई २४ हुंति मज्झमि । पत्तपडिलेहणाए, पणवीसो होइ कर फंसो ॥ ३७ ॥ [ इति यति दिनचर्यायाम् पृ० ४० ॥ ]
१ - वाससयपि सवीसं, सयं च दिणमाउ मणुअहत्थीणं । चउवीस वरिसमाऊ, गोमहिसीणं स एगदिणं ॥ १ ॥ बत्तीसं तुरगाणं, सोलस पसु एलगाण वरिसाई । वारस सम सुणगाणं खरकरहाणं चपणवीसं ॥ २ ॥ १३० व० मनुष्यगजादि । ३२ मास ६ हयादि । १६ मास ३ अजादि । २६ गोमहिषी ऊंद्रास० । १३ श्वानादि । २- उसमे भरहो १, अजिए, सगरो २ मघवं ३ सणकुमारो ४ य । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ६ ॥ ९ ॥ संती कुंधू य अरो, अरिहंता चेव चक्कवट्टी य । अरमल्लिअंतरे पुण, हवर सुभूमो य कोरव्वो८ ॥ २ मुणिसुञ्चयन मिपि य, हुंति दुवे पउमनाह ९ हरिसेणे १० । नमिनेमिसु जयनामो ११, अरिट्ठ पासंतरे बम्हो ॥ ३ ॥ ३ - २१ धनूंषि अशोकवृक्षः, तदुपरि ११ धनूंषि चैत्यवृक्षोऽस्ति, अतः ३२ धनूंषीत्युक्तम् ॥ ४ - इदानीं तत्पात्रं पात्र केशरिकया पात्रमुखवस्त्रिकया तिस्रो द्वारा वाह्यतः प्रमृज्य संपूर्णाः, ततो हस्ते स्थापयित्वा अभ्यन्तरं तिस्रो चाराः पुनः प्रमृज्य ततः किं करोतु 'पप्फोडे 'ति सकृदेकवारम् अधोमुखं कृत्वा बुभे प्रस्फोटयेत् एवं केचिदाचार्या ब्रुवते । केचित्पुनराचार्या एवं भणन्ति यदुत तिस्रो वाराः प्रस्फोटनीयम् । एतदुक्तं भवतिएकवाराः प्रमृज्य पश्चादधोमुखं प्रस्फोटनीयम् । तच पात्रकं भुव उपरि किंचिद्दूरे प्रस्फोटय रक्षणीयमित्यत आह-चतुर्भि• रकुलैर्भुव उपरि धारयित्वा प्रत्युपेक्षणीयं मा भूत्पतनभङ्गभयम् इति । औघनियुक्तिवृत्तौ ॥ पात्रस्य सप्त प्रत्युपेक्षणाः केषाञ्चिन्मते तिस्र एव ताः ॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
पत्तं पमजिऊणं, बहिंअं अंतो सयं तु पप्फोडे । केई पुण तिन्निवारा, चउरंगुलभूमि पडण(त)भया ३८
[इति ओघनिर्युक्तौ ॥] आमोसहि १ विष्पोसहि २ खेलोसहि ३ जल्लोसही चेव ४ । सबोसहि ५ संभिन्ने ६, ओही ७ रिउ ८ विउलमइलद्धी ॥ ३९ ॥ चारण १० आसीविस ११ केवली अ १२ गणहारिणो य १३ पुधधरा १४ । अरिहंत १५ चक्कयट्टी १६, बलदेवा १७ वासुदेवा य १८ ॥ ४० ॥ खीरमहुसपिआसव १९, कोगबुद्धी २० पयाणुसारी २१ अ तह वीअबुद्धि २२ तेअग २३, आहारग २४ सीअलेसा य २५ ॥ ४१ ॥ वेउविदेहलद्धी २६, अक्खीणमहाणसी २७ पुलाय २८ तहा । परिणामतववसेणं, एयाओ हुंति लद्धीओ ॥ ४२ ॥ ( "भवसिद्धियपुरिसाणं, एयाओ हुंति भणियलद्धीओ । भवसिद्धियमहिलाणवि, जत्तिय जायंति तं वोच्छं ॥ १॥ अरहंतचकिकेसक्बलसंभिन्ने य चारणा पुरा । गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं ॥२॥") अभविअपुरिसाणं पुण, दस पुचिल्लाओ केवलितं ११ च । उज्जुमई १२ विउलमई तेरस, एयाओ न हुँति लद्धीओ॥४३॥ अभवियमहिलाणंपि हु, एयाओ न हुंति भणियलद्धीओ। महुखीरासवलद्धीवि १४ नेय सेसाओ अविरुद्धा ॥४४॥ समणीमवगयवेअं १, परिहार २ पुलाय ३ मप्पमत्तं च । चउदसपुद्धिं ४ आहारगं च १ नय कोई संहरई ॥ ४५ ॥
[भगवतीवृत्तौ ॥] सुत्तत्थतत्तदिट्टी १ दंसणमोहतिअगं च ४ रागतिअं ७ । देवाइतत्ततियं १०, तहा अदेवाइतत्ततिअं १३ ॥४६॥ नाणाइतिअं १६ तह तबिराहणा १९ तिन्निगुत्ति २२ दंडतिअं २५ । इअ महणंतगपडिलेहणाइ कमसो विचिंतिजा ॥४७॥ हासो १ रईअ २ अरई ३, भय ४ सोग ५ दुगंछया य ६ वजिज्जा । भुअजुअलं पेहतो, सीसे सुपसत्थलेसतिगं ॥४८॥ गारवति च वयणे १२, उरिसल्लतिगं १५ कसाय चउ पिढे १९ । पयजुगि छजीववहं २५, तणुपेहाएवि जाणमिणं ॥ ४९॥ जइवि पडिलेहणाए, हेऊ जिअरक्खणं जिणाणा य । तहवि इमं मणमकड, निजं तणत्थं मुणी विंति ॥ ५० ॥
इति मुखवस्त्रिका देहयोः २ प्रतिलेखनाविचारः ॥] सासे १ खासे २ जरे ३ दाहे ४ कुच्छिसूले ५ भगंदरे ६ । अरिसे ७ अजीरए ८ दिट्ठी ९ मुद्धसूले १० अकारए ११ ॥ ५१ ॥ अच्छिवेयणा १२ कनवेयणा १३ कंडू १४ य उदरे १५ कोढे १६ ॥
॥ इति विपाकसूत्रे प्रथमाध्ययने १६ रोगाः ॥] __ जइ पोसहिओ सहिओ, तवनियमगुणेहिं गमइ एगदिणं । ता बंधइ देवाडं, इत्तियमित्ताई पलियाई ॥ ५२ ॥ तथाहि-सगवीसं कोडिसया, सतहत्तरिकोडिलक्खसहसा य । सत्तसया सत्तहुत्तरि, नवभागा सत्त पलियस्स ॥ ५३॥
[॥ २७७७७७७७७७५ इति पौषधे देवायुर्बन्धप्रमाणम् ॥ बाणवइकोडीओ, लक्खागुणसहिसहस्स पणवीसं । नवसयपणवीसजुआ, सतिहा अडभाग पलियस्स ॥ ५४॥
[॥ ९२५९२५९२५४ इति सामायिके देवायुर्वन्धप्रमाणम् ॥] १-'जोणीसूले ति पाठः 'कुच्छिसूले' इत्यस्यान्यत्र दर्शनात् । २-'अच्छियणे त्यादिश्लोकातिरिक्तम् ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
निव १ धणि २ नारी ३ नर ४ सुर ५, अप्पप्पविआर ६ अपविआरचं ७ । सवृत्त ८ दरिदत्तं ९, चइजा इअ नवनिआणाई ॥ ५५ ॥ कल्लाणगे टिप्पणए, नवनवइतिहिसु तत्थ इग छक्को । बावनेगुववासा, चालीस दुआ तिया छक्क ॥ ५६ ॥
[विधिप्रपायाम्-] तत्रैकयोजनोत्सेधा, विस्तारेऽप्येकयोजनाम् । भरतार्द्धवासिनीभिः-देवताभिरधिष्ठिताम् ॥ ५७ ॥ शिलां कोटिशिलां नाम, दक्षिणेतरबाहुना । चतुरङ्गुलमुह , पृथ्वीतः कंससूदनः ॥ ५८ ॥ तां भुजारे दधौ विष्णु-राद्यो मूर्ध्नि द्वितीयकः । कण्ठे तृतीयस्तूर्यस्तूरःस्थले पञ्चमो हृदि ॥ ५९ ॥ षष्ठः कट्यां पड़धिकस्तूर्वोराजानोश्चाष्टमः । चतुरङ्गुलमन्त्योऽवसप्पिण्यां ते पतलाः ॥ ६० ॥ परमिड्डीण जुवाणं, सोलसवच्छरओ वि ओगमिलिआणं । जे हुति कामभोगा, नरमिहुणाणं तओ टुति ।। ६१ ॥ वंतरअसुरविवजिअ, भैवणवई असुर *ताराईणं । संसिसूराणं च तहा, जहकमा ते अणंतगुणा ॥ ६२ ॥ तत्तो वि उत्तमा खलु, दिवा वेमाणियाण पन्नत्ता । बारससयंमि छहुद्देस अंगमि पंचमए ॥६३ ॥ पावयणी १ धम्मकही २, वाई ३ नेमित्तिओ ४ तवस्सी य ५ । विजा ६ सिद्धो ७ अ कई, अट्टेव पभावना भणिआ॥६४ ॥ उण्हे करेइ सी, सीए उण्हत्तणं पुण करेइ । कंबलरयणादीणं, एस सहाओ मुणेअबो ॥ ६५ ॥ सो लद्धि अपज्जत्तो, जो मरइ अपूरिअं सपज्जत्तिं । लद्धिपजत्तो सो पुण, जो मरइ ताओ पूरित्ता ।। ६६ । न जवि पूरेइ परं, पूरिस्सइ स इह करणअपजत्तो । सो पुण करणपजत्तो, जेणं ता पूरिया हुंति ॥ ६७ ॥ सबसुरा जइ रूवं, अंगुठ्ठपमाणयं विउविज्ञा। जिणपायंगुद पइ, न सोहए तं जहिं गालो ॥ ६८ ॥ गणहर १ आहार २ अणुत्तरा य जाव वण ३ चकि ४ वासुबला ५। मंडलिया ६ जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा ॥ ६९ ॥ थूला सुहुमा जीवा, संकप्पारंभओ य ते दुविहा । सऽवराह निरऽवराहा, साविक्खा चेव निरविक्खा ॥७०॥ उसभ १ ससि २ संति ३ सुबय ४, नेमीसर ५ पास ६ वीर ७ सेसाणं ८ । तेर १ सग २ बार ३ नव ४ नव ५, दस ६ सगवीसा य ७ तिन्नि भवा ८॥ ७१ ॥ एगा हिरण्णकोडी, अहेव अणूणगा सयसहस्सा । सूरोदयमाईयं, दिइ जा पायरासीओ ।। ७२ ॥ तिन्नेव य कोडिसया, अट्ठासीअ हुंति कोडीओ। असि तु सयसहस्सा, एवं संवच्छरे दिन्नं ।। ७३ ॥ पहसंत-गिलाणेसु १, आगमगाहीसु तय २ लोअकारीसु ३ । उत्तर ४ पारणगंमि अ५, दिन्नं च बहुफलं होइ॥ ७४। जिणभवण १. बिंब' पुत्थय ३, संघसरूवाइ ४ सत्तखित्ताई। जिण्णुद्धारो ५ पोसह-साला ६ सौहारणं ७ चेव ॥७५ ॥
१-पड्निदानी सम्यक्त्वमपि न लभते, राप्तमनिदानी सम्यक्त्वं लभते, परं देशविरतिं न लभते, अष्टमनिदानी सम्यक्त्व देशविरती लभते परं सर्वविरतिं न लभते, नवमनिदानी सम्यक्त्व देशविरतिसर्व विरती लभते परं मुक्तिं न लभते, यदुक्तम्-“छसु दुल्लहबोहित्थं, देसे सव्वेय विरह मुक्खे अ। सत्तममाइसु न भवे, सगुणो ताए अवजिज्जा ॥१॥ २-एतदर्थप्रतिपादक गाथात्रयं श्रीतिलकाचार्यकृतायां श्रीदशवैकालिकवृत्तावप्यस्ति ।
__ * तारयाइण-तारा-नक्षत्र-पँहाणाम् । ३-प्रवचन द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदस्यास्तीति प्रवचनी-युगप्रधानागमः ११ धर्मकथा प्रशस्ता अस्यास्तीति धर्मकथी शिखादित्वादिन् २ । वादि । प्रवादि २ सभ्य ३ सभापति ४ लक्षणायां चतुरमायां प्रतिपक्षनिरासपूर्वकं खपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीति वादी ३ निमितं। त्रैकालिकलाभालाभप्रतिपादकं तद्वेत्ति अध्येति वा नैमित्तिकः ४। तपो विकृष्टमटमादि अस्यास्तीति तपखी ५। विद्याः-प्रज्ञयादयः शासनदेवतास्ताः साहायके यस्य स विद्यावान् ६ । अञ्जन १ पादलेप २ तिलक ३ गुटिका ४ भूताकर्षण ५ निकर्षण ६ वैक्रियत्व ७ प्रभृतयः सिद्धयस्ताभिः सिझरति म सिद्धः । कवते गद्यपद्यादिभिः प्रबन्धैर्वर्णानां काश्यते इति कविः ८ । एते प्रवचन्यादयोऽष्टौ भगवच्छासमस्य देशकालाद्यौनित्येन सहाय्यकरणात्प्रभावकाः॥ ४-संवत्सरीदानाधिकारः। ५-इति क्षेत्राणि ।
"Aho Shrut.Gyanam"
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री। संघयणं १ संठाण २ च पढमगं जो उ पुवउवओगो ३। एए तिन्निवि ठाणा, वुच्छिन्ना थूलमइंमि ॥ ७६ ॥ तित्थगररिद्धिदसणत्य १ मत्थावगमहेउं वा २। संसयवुच्छेअत्थं, गमणं जिणपायमूलंमि ॥ ७७ ॥ सा पुण दुविहा सिक्खा, गहणे १ आसेवणे २ य नायबा । गहणे सुत्ताहिजण, आसेवण कप्पतिप्पाई ॥ ७८ ॥ आलस्स १ मोह २ वन्ना ३, थंभा ४ कोहा ५ पमाय ६ किवणत्ता ७ । भय ८ सोगा ९ अन्नाणा १०, वक्खेव ११ कोतूहला १२ रमणा १३ ॥ ७९ ॥ पम्हढे सारणा युत्ता, अणायाररस वारणा । चुक्काण चोयणा बुत्ता, निहुरं पडिचोयणा ।। ८० ॥ पडिकमणे १ चेइयहरे २, भोअणकाले अ ३ तह य संवरणे ४ । पडिकमण ५ सुअण ६ पडिबोहकालियं ७ सत्तहा जहणो ।। ८१ ॥ भिन्नमुहुत्तो नरएसु तिरिअमणुएसु हुंति चत्तारि । देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विउवणाकालो ॥ ८२ ॥ अट्ठण्हं जणणीओ, तित्थयराणं तु हवंति सिद्धाओ । अह य सणकुमारे ३, माहिंदे अट्ट बोधवा ।। ८३ ॥ नागेसु उसमपिआ, सेसाणं सत्त हुंति ईसाणे । अट्ठ य सणकुमारे, माहिंदे अट्ट बोधबा ॥ ८४॥ अन्नजलं १ उण्हं वा २ कसायदब्रेहिं मीसियं वाचि ३ । कप्पइ जईण नन्नं, सुविहिय कप्पट्ठियाणं च ॥ ८५ ॥ जायइ सचित्तया से, गिम्हं मि उ पहरपंचगस्सुवरि । चउपहरुवार सिसिरे, वासासु पुणो तिपहरुवरि ॥ ८६ ॥ वासासु पनरदिवसं,-सि उपहकालेसु मास वीस दिणा।
ओगाहिम जईणं, कप्पड आरम्भ पढमादिणं ॥८७॥ जगरा य बारपहरा, विसं तककरंबको गिण्हइ। पच्छा निगोअजंतू, उप्पजइ सबदेसेसु ।।८८! पणदिणमी सो लुट्टो, अचालिओ सावणे ण भद्दवए । चउ आसोए कत्तिअ, मगसिरपोसेसु तिण्णि दिणा ॥ ८९॥ पणपहर माह-फग्गुणि, पहरा चत्तारि चित्त-वइसाहे । जिट्ठासाढे तिपहर, तओ परं होइ अञ्चित्तो ॥९०॥ विदले भोयणे चेव, कंठे जीवा अणंतसो। उदरंमि गए चेव, जीवाण न होई उत्पत्ती ॥ ९१ ॥ वासासु सगदिणोवरि, पणरसदिणोवरिं च हेमंते । जायइ सचित्तयं पुण, गिम्हे मासोवरिं लूणं ॥ ९२ ॥ पडिकमण १ गमण २ भोयण ३, पडिलेहण ४ वश्च ५ मुत्त ६ गहणेसु ७ । वजेअब्बा वत्ता, साहूहिँ साहुणीहि सयं ॥९३॥ सुत्ते १ अत्थे २ भोयण ३, काले ४ आवस्सए अ ५ सज्झाए ६ । संथारे चेव तहा ७, सत्तविहा मंडली जइणो ॥ ९४ ॥ अणुवट्ठविसं सेहं, अकयविहाणं च मंडलीए उ । जो परिभुंजइ सहसा; सो गतिविहारओ भणिओ।। ९५॥
॥ श्रीपञ्चवस्तुके ६७६ गाथा॥] पंचसया चोआला, तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स। तो अंतरं जिआए, तेरासिअदिहि उत्पत्ती॥९६॥ छवाससएहिं नधुत्तरेहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो "बोडिआण दिट्ठी, रवीरपुरे समुप्पन्ना ॥ ९ ॥ बारसवाससएहिं सड्वेहिं निवुअस्स वीरस्स । जिणघरमढआवासो, पगप्पिओ सायसीलेहिं ॥ ९८॥ पंचसु सएसु नरिसाण अगएसुं जिणाउ वीराओ । वयरो सोहम्गनिही, सुनंदगब्भे समुप्पन्नो ॥९॥
--
--
१-इति त्रयोदशका-याः। २-भिन्नः खण्डो मुहत्तॊ भिन्नमुहूर्तमित्यर्थः । उत्कर्षतो विकुर्वणा भणिता । इति जीवाभिगमवृत्ती व्याख्या० श्रीभगवतीसूत्रे ८ शतके १० उद्देशे पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्याणां वैक्रियदेशबन्धः, उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमेवोक्तम् । ३-अनुपस्थापितं शिष्यकं व्रतेषु अकृतविधानं च अकृताचामाम्लादिसमाचारं च मण्डल्यामेव यः परिभुङ्क्ते सहसा तत्क्षणमेव स गुप्तिविराधको भणितः अर्हद्भिरिति गाथार्थः । मइ नै पूजी अरणी भरणी, माहरइ नहि छै सासू तरुणी, ल्यइरे मुंहडा लम्बाक ।। इति स्त्रीवाक्यम् । मइ नै पूज्यउ आलउ मालड, माहरे नहि छै सुसरउ सालउ । ल्यइरे वांसा धन्दाक । इति भरि वाक्यम् ॥ कथा-पोपटचाल्यौ पाटासार १ तृण दीधइ चाल्याउ मुराद २१ पंडित चाल्यउ घालइ तेल ३, मूरख चाल्यउ ठेलाठेल ४॥ ४-इति दिगम्बरोत्पत्तिः ॥ ४७० विक्रमसंवत् । ततः ५८५ हरिभद्रसूरिः। ततो वीरनिर्वाणात् हरिभद्रसरिः १०५५॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री ।
पंचसए पणसीए, विकमकालाओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो, निबुओं दिसड सिबसुक्खं ॥ १०० ॥ तेरसवाससएहिं, वीराओ समहिएहिं निवपुत्तो । सिरिबप्पभट्टिसूरी, विउसाण सिरोमणीं जाओ || १०१ ॥ पणसयरिवरसाणं, तिन्निसय समन्नियं अइक्कमियं । विकमकालाओ तओ, बैलहीमंगो समुत्पन्नो ।। १०२ ।। श्रीविक्रमादित्यनृपस्य काला-दष्टोत्तरे १०८ वर्षशते व्यतीते । शत्रुञ्जये जाडिना प्रतिष्ठा, विम्बस्य पाषाणमयस्य कारिता ॥ १०३ ॥ छबाससएहिं नवुत्तरेहिं रयणेण रेवयगिरिंमि । संठवियं मणिबिंबं, कंचणभवणाउ नेऊणं ॥ १०४ ॥ बारसवाससएहिं, पन्नासहिएहिं बद्धमाणाओ । चउदसिपढमपवेसो, कम्पिओ साइसूरीहिं ॥ १०५ ॥
[ ॥ इति गच्छोत्पत्तिप्रकीर्णके ॥ ] अनवसएहिं समझतेर्हि वद्धमाणाओ । पज्जोसवणचडत्थी, कालगसूरीहिंतो ठविआ ॥ १०६ ॥ वीसहिं दिणेहिँ कप्पो, पंचगहाणीइ कप्पठवणा य । नवसयतेणउएहिं बुच्छिन्ना संघआणाप ॥ १०७ ॥ सालाहणेण रन्ना, संघाएसेण कारिओ भयवं । पज्जोसवणचउत्थी, चाउम्मासं चचदसि ॥ १०८ ॥ चउमासय पडिकमणं, पक्खि दिवसम्मि चउत्रिहो संघो । नवसयतेणउएहिं, आयरणं तं पमाणंति ॥ १०९ ॥
[ ॥ इति गाथाचतुष्टयं तीर्थोद्वालिप्रकीर्णके 8 ] सिरिवीराओ गएसुं, पणतीसहिएस तिवारससएस ३३५ । पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति ॥ ११० ॥ चसयतिपन्न वरिसे ४५३, कालिगगुरुणा सरस्सई गहिआ । चञ्सयसत्तरि ४७० वरिसे, वीराओ विकमो जाओ ॥ १११ ॥ कालो १ सहाव २ नियई ३, पुत्रकयं ४ पुरिसकारणे गंता ५ । मिच्छत्तं ते चैव उ, समासओ होंति सम्मत्तं ॥ ११२ ॥ सेवेवि अ कलाई, इअ समुदापण साहगा भणिआ । जुज्जंति अ एमेव य, सम्मं सबस्स कज्जस्स ॥ ११३ ॥ नहि कालाईंहिंतो, केवएहिं तु जाय किंचि । इह मुग्गरंधणादिवि, ता सबे समुदिआ हेऊ ॥ ११४ ॥
[ ॥ पञ्चवस्तुके पृ० २८० ॥ ] जह-णेगलक्खणगुणा, वेरुलिआदी मणीवि संजुत्ता । रयणावलिववएसं, न लहंति महग्घमुल्लावि ॥ ११५ ॥ असिअसयं १८० किरियाणं, अकिरिआणं च होइ चुलसीए ८४ । अन्नाणी सयसट्ठीय ६७, वेणइआणं च बत्तीसं ॥ ३२ ॥ ११६ ॥ काल १ यदच्छा २ नियति ३ स्वभावे ४ व ५ त्मनचतुरशीतिः । नास्तिकवादिगतमते, न नास्ति भावाः खपरसंस्थाः ॥ ११७ ॥ अज्ञानिकवादिमते, नवजीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसद्वैतावाच्यं च को वेत्ति ॥ ११८ ॥ वैनयिकमतं विनयश्वेतो वाक्कायदानतः कार्यः । सुर १ नृपति २ यति ३ ज्ञाति ४ स्थविरा ५ धर्म ६ मातृ ७ पितृषु ८ सदा ॥ ११९ ॥ पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सछेवि फासिआ ठाणा । मज्ज्ञिलेहिं, जिणेहिं, एगं दो तिनि सबे वि ॥ १२० ॥ सामग्गिअभावाओ, ववहारिअरासिअप्पवेसाओ । भवावि ते
१-चलही चमारडीभङ्गो जातः ॥ २- कालः १ स्वभावः २ नियतिः ३ पूर्वकृतं ४ पुरुषाकारः ५, एते पञ्च समवायाः ॥ कालः स्वभावो नियतिः पूर्वकृतं पुरुषकारोनैकान्ता एवं कारणं विश्वस्येत्येवंभूताः, मिथ्यात्वं त एव समासतो भवन्ति सम्यक्त्वं सर्वे एव समुदिताः सन्तः फलजनकत्वेनेति गाथार्थः ॥ पञ्च० १०४९ गाथा ॥ ३ - एतदेव स्पष्टयति सर्वेऽपि च कालादयोऽनन्तरोपन्यस्ता इव समुदायेनेतरेतरापेक्षा साधका भणिताः प्रवचनज्ञैः, युज्यन्ते च एवमेव सम्यक्साधकाः सर्वस्य कार्यस्य रन्धनादेः, अन्यथा साधकत्वायोगादिति गाथार्थः । पश्च० १०५० गाथा । ४- एतदेवाह - न हि कालादिभ्यः अनन्तरोदितेभ्यः केवलेभ्य एव जायते किचित्कार्यं जातम्, इह लोके मुद्ररन्धनाद्यपि बाह्यमास्तां तावदेतत् यत एवं तत्सर्वे कालादयः समुदिता एव हेतवः सर्वस्य कार्यस्येति गाथार्थः इति पश्चवस्तुकत्ती १०५१ गाथा |
"Aho Shrut Gyanam"
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
अणंता, जे सिद्धिसुहं न पावंति ॥ १२१ ।। इंदत्तं १ चकितं २, पंचुत्तरविमाणवासिदेवत्तं ३ । लोगतिअदेवत्तं ४, अभवजीवेहिं नो पत्तं ॥ १२२ ॥ 'मित्तिमिउमद्दवठिओ, 'छत्तिअदोसाण छायणे होइ । 'मित्तिअ मेराइठिओ, 'दुत्तिदुगंछामि अप्पाणं ॥ १२३ ॥ 'क'त्तिकडं मे पावं, 'ड'त्तिअ डावेमि तं उवसमेणं। एसो मिच्छादुकड, पयक्खरत्थो समासेणं ।। १२४ ॥ सवेणवि अलिएणवि, चेइअसम्माइ जो कुणइ मूढो । मो नवबोहिबीओ, अणंतसंसारिओ होइ ॥ १२५ ॥ इंकारस अंगाई, बारस उवंगाई, दस पइन्नाई। छ–अमूल चतुरो, नंदीअणुओगदाराई ॥ १२६ ।। ओराजीपन्नवन्ना, सूज चं नि-क-क-पुष्फ-वहिदसा। आयाराइउवंगा, नायधा आणुपुषीए ॥१२७।।
[विधिप्रपायाम् ॥ अविहिकयावरम कयं, असूअवयणं भणति गीयत्था । पायच्छित्तं जम्हा, अकए गुरुअं कए लहुअं ॥ १२८ ॥ जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती। वाया-गणि-धूमेण ३ अ, विद्धत्थं होइ लोणाई ॥ १२९ ॥
[प्रवचने ॥] __ हरिआल १ मणोसिल २ पिप्पली य ३ खजूर ४ मुद्दिआ ५ अभया ६ । आइण्णमणाइण्णा तेऽवि हु एमेव नायवा ॥ १३० ॥ पत्ताणं १ पुष्फाणं २, सरडुफलाणं ३ तहेव हरिआणं १२१ । विटमि मिलाणंमि, नायवं जीवविप्पजढं ॥ १३१ ॥
[॥ श्रीबृहत्कल्पसूत्रवृत्तौ ॥] नय किंचि अण्णुनायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तुं मेहुणभावं, न तं विणा रागदोसेहिं ॥ १३२ ॥ छम्मासाऊ सेसे, उप्पन्नं जेसि केवलनाणं । ते नियमा समुधाइया, सेसा समुघाइ भइणिज्जा ॥ १३३ ॥ वेअणिअस्स उ बारस, नामगोआण अट्ठओ मुहुत्ता । सेसाण जहन्नहिई, भिन्नमुहुत्तं जिणुद्दिडं ।। १३४ ॥ एला १ लवंग २ केला ३, खयरवडी ४ खयरसार ५ कप्पूरा ६ । खारिक ७ टुप्पर ८ खजूर ९ दक्ख १० गुल ११ सबफ सागा १२ ॥ १३५ ॥
[॥ गाथैषा तपाश्रीदेवसुन्दरकृतसामाचार्या, श्रीसोमसुन्दरसामाचार्यामपि ॥]
१-पृथक् नामान्यपीत्थम्-आचाराङ्ग १, सूत्रकृताङ्ग २, स्थानाङ्ग ३, रामवायाङ्ग ४, भगवती ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, अन्तकृद्दशा ८, अनुत्तरोपपातिका ९, प्रश्नव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११, इत्यकादशाङ्गानि । उपपातिका १, राजप्रश्नीय २, जीवाभिगम ३, प्रज्ञापना ४, सूरप्रज्ञप्ति ५, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ६, चन्द्रप्रज्ञप्तिः ५, निरयावली ८, कल्पावतंसिका ९, पुष्पिका १०, पुष्पचूलिका ११, वह्निदशा १२, इति द्वादशोपाङ्गानि, पूर्वमीलते २३ ॥ चतुःशरणप्रकीर्णकं १, चन्द्रावेध्यक २, आउरप्रत्याख्यान ३, महाप्रत्याख्यान ४, भक्तप्रत्याख्यान ५, तन्दुलवैकालिक ६, गणिविद्या ७, मरणसमाधि ८, देवेन्द्रस्तव ९, संस्तारकप्रकीर्ण १०, इति दश प्रकीर्णकानि, पूर्वमीलने त्रयस्त्रिंशत् ३३ ॥ निशीथ १, महानिशीथ २, व्यवहार ३, बृहत्कल्प ४, जीतकल्प ५, दशाश्रुतस्कन्ध ६, इति षट् छेदग्रन्थाः , पूर्वमीलने ३९ ॥ ओघनियुक्ति १, पिण्डनियुक्ति २, दशवकालिक ३, उत्तराध्ययन ४, इति चत्वारि मूलसूत्राणि, क्वापि विचारग्रन्थसंग्रहादौ ओपनियुक्तिस्थाने आवश्यकनियुक्तिरस्ति, पूर्वमीलने ४३, नन्दी ४४, अनुयोगद्वार ४५ आगमाः ॥ एतान्येवाऽऽगमनामानि श्रीजिनप्रभसूरिभिरपि स्वकृतसिद्धान्तस्तवे प्रोक्तानि; तथाहि-"इक्कारस" १२६ “ओराजी०" १२७ । इदं गाथाद्वयं श्रीबृहत्कल्पवृत्तौ १,श्रीस्थानानवृत्तौ २, श्रीनिशीथचूर्णिपञ्चमोद्देशके ३, प्रवचनसारोद्धारे ४ च प्रोक्तमस्ति । २-खदेशजसाधारणा आहारभावेन योजनशतादूर्व पुनर्मिनाहारत्वेन शीतादिसम्पर्कश्च अचित्तं भवति । केचित्-योजनशतस्थाने गव्यूतशतं पठन्ति, निशीथचूर्णी तथैव चोक्तत्वात् । तथा भाण्डसंक्रान्त्या २ वाताग्निधूमैश्च योजनशतमपि स्वस्थाने अन्तरे या वर्तमानं लवणादिकमचित्तं भवति। ३-पिप्पलीहरीतक्यादय आची अतो गृह्यन्ते, खरिद्राक्षादयः पुनरनाचीर्णास्ततोऽचित्ता अपि नं गृह्यन्ते। ४-अप्पेवि जो उकजे, पयाणि किंचि सेवए साह । सो पाविट्टो छिट्टो, परमप्पाणं च बोलेह ॥१॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री ।
परिगच्छेऽवि सगच्छे, जे संविग्गा बहुस्सुआ साहू । तेसु अणुरागबंधं, भा मुंचसु मच्छरेण हओ ॥ १३६ ॥ जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं निच्छओ अग्गी । तेऊ - बाऊसहगो, तसा य पश्चक्खया चैव ॥ १३७ ॥ चुलसीवास सहरसा, वासा - सत्तेव पंचमासा य । वीरमहापउमाणं, अंतरमेयं जिणुहिंङ्कं ॥ १३८ ॥ तिन्निसया तेसट्टा ३६३, दंसणभेया परुष्परविरुद्धा । नय दूसंति अहिंसं, तं गिण्हह जत्थ सा सयला ॥ १३९ ॥
[ कुमारपालचरित्रे ॥ ]
घारण य घायसयं, मरणसहस्सं च मारणेणाऽवि । आलेण य आलसयं, पावइ नत्थित्थ संदेहो ॥ १४० ॥ जिणपूअणं तिसंझं, कुणमाणो सोहए अ सम्मत्तं । तित्थयरनामगोतं, बंधइ सेणिअनरिंद ॥ १४१ ॥ मेरुगिरिकणयदाणं, धन्नाणं देइ कोडिरासीओ । इक्कं बहेइ जीवं, न छुट्टए तेण पावेणं ॥ १४२ ॥ नेव दारं पिहावेई, भुंजमाणो सुसावओ । अणुकंपा जिणिंदेहिं, सड्डाणं न निवारिया ॥ १४३ ॥ उत्तमपत्तं साहू, मज्झिमपत्तं सुसावया भणिया । अविरइसम्मद्दिट्ठी, जहन्नपत्तं मुणेयवं ॥ १४४ ॥ ओहो सुओवउत्तो, सुअनाणी जइऽवि गिण्णह असुद्धं । तं केवली - वि भुंजइ, अवमाण सुअं भवे इहरा || १४५ ।। सावणबहुलपडिवए, बालवकरणे अभीइनक्खत्ते । सवत्थ-पढमसमए, जुगस्स आई वियाणाहि ॥ १४६ ॥
[ ज्योतिष्करण्डके २९ पत्रे ॥ ]
वत्थन्नपाणास णखाइमे हिं, पुप्फेहिं पत्तेहि अ पुप्फलेहिं । सुसावयाणं करणिजमेअं, कयं तु जम्हा भराहिवेणं ॥ १४७ ॥ तं अत्थं तं च सामत्थं, तं च विन्नाणमुत्तमं । साहम्मिआण कलंमि, जं वचंति सुसावया ॥ १४८ ॥ होइ समत्थो धम्मं, कुणमाणो जो न वीहए परेसिं । माइपिइसा मिगुरु,भाइआण धम्माण भिन्नाणं ॥ १४९ ॥ चंदो १ चंदो २ अभिवडिओ ३ अ चंद ४ मभिवडिओ चैव । पंचसहिअं जुगमिणं, दिनं तेलुकदंसीहिं ॥ १५० ॥ कम्माई नूणं घणचिक्कणाई गरुआई वज्जसाराई | नाणडिपि पुरुसं, पंथाओ दुप्पहं निंति ।। १५१ ।। चउदसपुत्री १ आहारगा य २ मण - नाणि ३ वीयरागा य ४ । तज्जम्माऽनंतरए, नरए निवडति परिवडिआ ।। १५२ ।।
[ श्रीपार्श्वनाथगणधरचरित्रे ॥ ] कालंमि अणाईए, अणाइदोसेहिं वासिए जीवे । जं पाविज्ज गुणोवि हु, तं मन्नह भो महच्छरि अं ॥ १५३ ॥ नायगंमि हुए संते, जह सेणा विणरसइ । एवं कम्मा विणस्संति, मोहणिजे खयं गए ॥ १५४ ॥ सावज्जऽणवज्जाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुंपि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं कार्ड || १५५ || घर १ जिणहर २ जिणपूआ ३, वावारणायओ निसीहितिगं । अग्गद्दारे १ मझे २, तइआ चिइवंदणा समए ॥ १५६ ॥
[ चैत्यन्दनकभाष्ये गा० ८ #]
१- महापुरुषचरिते उत्तम् - आगामि दुःषमसुषमायाः वर्ष ३ मास ८ पक्ष १ अतिक्रमेण - वित्तसि अतेरसीए, बंदे हत्थुतराइ जोगेणं । जाय हिति पउमनाहोऽभिसे आईवि वीरुष्व ॥ १ ॥ ततः शेषकल्याणकानि वीरवद्भाव'नीयानि । २ - ओहो० 'ओहो' इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे तत ओधेन- सामान्येन 'श्रुते' पिण्डनिर्युक्तयादिरूपे आगमे उपयुक्तः सन् तदनुसारेण कल्प्या कल्प्यं परिभावयन् श्रुतज्ञानी यद्यपि कथमपि अशुद्धं गृह्णाति तथापि तत् 'केवल्यपि' केवलज्ञान्यपि भुङ्क्ते, इतरथा श्रुतज्ञानमप्रमाणं भवेत्, तथाहि छन्नस्थः श्रुतज्ञानबलेन शुद्धं गवेषयितुमीष्टे न प्रकारान्तरेण, ततो यदि केवली श्रुतज्ञानिना यथाऽऽगमं गवेषितमपि अशुद्धमिति कृत्वा न भुञ्जीत ततः श्रुतेऽनाश्वासः स्यादिति, न कोऽपि श्रुतं प्रमाणत्वेन प्रतिपद्येत, श्रुतज्ञानस्य चाप्रामाण्ये सर्वक्रियाविलोपप्रसङ्गः, श्रुतमन्तरेण छद्मस्थानां क्रियाकाण्डस्य परिज्ञानासंभवात् । पिण्ड निर्युति मलयगिरिकृतायां १४७ पत्रे ॥
गाथा० २
"Aho Shrut Gyanam"
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
गाथासहस्री।
भाविज अवस्थति, पिंडत्य १ पयत्थ २ रूवरहिअत्तं ३ । छउमस्थ ४ केवलिन्तं ५, सिद्धत्तं चेव ६ तस्सत्थो ॥ १५७ ॥ न्हवणञ्चगेहिं छउमत्थ १ वत्थपडिहारगेहिं केवलि २ । पलियं कुसग्गेहि य, जिणस्स भाविज सिद्धत्तं ॥ १५८ ॥ सञ्चित्तदवमुझण, १ मच्चित्तमणुज्झणं २ मणेगत्तं ३ । इगसाडि-उत्तरासंगं ४, अंजली ५ सिरसि जिणदिट्टे ॥ १५९॥ इअ पंचविहाभिगमो, अहवा मुञ्चति रायचिन्हाई । खग्गं १ छत्तो २ वाणह ३. मउड ४ चमरे ५ अ पंचमए ॥ १६०॥ वंदति जिणे दाहिण, दिसिद्विआ पुरुस वामदिसि नारी। नवकर जहन १ सट्टिकर जिट्ट २ मज्रम्गहो सेसो ॥ १६१॥
[चैत्यवंदनभाष्ये गा. 18-१२-२०-२२॥ नमु १ जेय अ २ अरिहं ३ लोग ४ सब ५ पुक्ख ६ तम ७ सिद्ध ८ जो देवा ९ । उकिं १० चत्ता ११ वेआवञ्चग १२ अहिगारपढमपया ॥ १६२ ॥ पढमहिगारे वंदे, भावजिणे बीयमि दवजिणे २ । इगचेइअ ठवणजिणे ३, तइय-चउत्थंमि नामजिणे ॥ १६३ ॥ तिहुअणठवणजिणे पुण, पंचमए विहरमाणजिण छठे । सत्तमए सुअनाणं ७, अट्ठमए सबसिद्ध-थुई ८ ॥ १६४ ।। तित्थाहिव वीरथुई, नवमे ९ दसमे य उजयंत थुई । अट्ठावयाइ इगदसि ११, सुदिहि सुर समरणा चरमे १२ ॥ १६५ ॥
[चैत्यवन्दनभाष्ये गा० ४२-४५॥] चउहाहारं तु नमो, रतिपि मुणीण सेस तिअ चउहा। निसि १ पोरिसि २ पुरिमे ३ गासणाइ ४ सड्डाण दुति चउहा ॥ १६६ ।।
[प्रत्याख्यानभाष्ये जैणवय १ संमय २ ठवणा ३, नामे ४ रुवे ५ पडुच्चसच्चे अ६ । ववहार ७ भाव ८ जोगे ९, दसमे ओवम्मसच्चे १० अ॥ २६७ ॥
[प्रवचनसूत्रे प्रश्नध्याकरणसूत्रे च ॥] वयणतिअं ३ लिंगतिअं ६, कालतिरं ९ तह परोक्ख १० पञ्चक्खं ११ । उवणीयाइचउक्कं १५, अज्झत्थं १६ चेव सोलसमं ॥ १६८ ॥
[प्रश्नव्याकरणवृत्तौ ११८॥] दसण (निरतिचारतया) १ वय २ सामाइय (सन्ध्यासु) ३, पोसह (पर्वदिने) ४ पंडिमा ५ अर्बभ (रात्रावपि) ६ सञ्चित्ते ७ । आरंभ ८ पेस ९ उद्दिढवजए १० समणभूए य (खुरमुडो लोएण वा रयहरणं घेत्तूणं) ११ ॥ १६९ ॥ मासाई सत्ता ७, पढमा ८ बिअ ९ तिय १० सत्त राइदिणा । अहराइ ११ एगराई १२, भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥ १७० ॥ पडिसेहण संठाणे ५ वण्णे
१-'जण' कोंकणादिषु उदकस्य पयः १, 'सं०' समानेऽपि पङ्कसंभवे अरविन्दमेव पङ्कजं न कुवलयादि २, '10' स्थापनादि सत्यं जिनप्रतिमादिषु जिनव्यपदेशः ३, 'ना' कुलमवर्द्धयन्नपि कुलबर्द्धनः ४, "रू०' भावतोऽश्रमणोऽपि सद्रूपधारी थमणः ५, 'प०' अनामिका कनिष्ठिका प्रतीत्य दीर्घा सैव मध्यमां प्रतीत्य हवा ६, 'व०' गिरिगततृणादिषु दह्यमानेषु गिरिदह्यते ५,'भा०' सत्यपि पञ्चवर्णत्वे शुक्लवर्णाधिक्यात् शुक्ला बलाकेति ८,'जो' दण्डयोगात् दंड इति ,'औपम्यसत्यं०' यथा समुद्रवत्तडागः १०॥ २-'उपनीसगुण-यथा-रूपवानयम् १, 'अपनीतं'-यथा-दुःशीलोऽयम् २, 'उपनीतापनीतं'-यथा-रूपवानयं किन्तु दुःशीलः इति ३, 'अपनीतोपनीतं'-यथा-दुःशीलोऽयं किन्तु रूपवान् ४ । ३-अष्टमीचतुर्दशीसु एकरात्रिकी प्रतिमा, उहिट्र कडं भुत्तपि वज्जए किम असे समारंभो सो होइ उ खुरमुंडो, सिंहलिंदा धारए कोवि ॥१॥ सार्द्धपञ्चवर्षाणि गंति ११ प्रतिमावहने, अब्रह्मादिषु पञ्चसु पदेषु वर्जकशब्दो योजनीयः। माससंख्या भोजनपानयोर्दत्तयः सप्तसु, अष्टमीनयमीदशमीषु अपानकं चतुर्थ तपः, एकादश्यां षठं तपो द्वादश्यां अष्टमं तपः। असणाण वियडभोई अनातो प्राशुकभोजी वा इत्यर्थः, मउलिकडो मुस्कलकच्छ इत्यर्थः दिवसबंभयारी य राई परिमाणकडो पडिमावजेसु दिवसेसु-प्रतिमावर्जितदिनेषु एवं ज्ञेयः ॥ ४-आरंभ ८ पेस ९ स्वयमकुवमपि अन्यैः कारयेत् त्रैष्यैरपि न कारयेत् ॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
Tera |
११
१० गंध २ १२ रस ५ १७ फास ८ २५ वेए अ ३२८ । पण पण दु पणट्ट तिहा, ३ इर्गतीस अकाय (अकायपणु) २९ संग (असंगपणुं ) ३० ऽरुहा (अजन्मपशुं) ३१ ॥ १७१ ॥
[ व्याकरणवृत्ती १४३ ॥ ] नव दरसणंमि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते । सेसे 'दो दो भेआ, खीणऽभिलावेण इगतीसं ॥ १७२ ॥ वेण १ वेआवचे २ इरिअट्ठाए अ ३ संजमट्ठाए ४ । तह पाणवत्तियाए ५ छ पुण धम्मचिंताए ६ || नत्थि छुहाए सरिसा, वेयणा मुंजेज तप्पसमणट्ठा । छुहिओ वेयावयं, न तर काउं तओ भुंजे ॥ १ ॥ ईरिअं नऽवि सोहिज्जा, पेहाईअं च संजमं काउं । थामो वा परिहयइ, गुणऽणुपेहासुर असत्तो ॥ २ ॥ १७३ ॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । वंपि संजमलद्धट्ठा, धारिति परिहरति अ ॥ १७४ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इअ वुत्तं महेसिणा ॥ १७५ ॥ सूपो १ दणे जवण्णं ३, तिन्नि अ मंसाई ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा ९ गुललावणिया १०, मूलफला हरिअगं १२ डागो १३ ॥ १७६ ॥ होइ सोलुअ १४ तहा, पाणं १५ पाणीअ १६ पाणगं चैव १७ । अट्ठारसमो सागो १८, निहअओ (निरूवहतो ) लोइओ पिंडो ॥ १७७ ॥ हृत्थसयादागंतुं गंतुं च मुहुत्तगं जहिं चिट्टे । पंथे वा वचतो, नइसंतरणे परिक्रमणं ॥ १७८ ॥
॥
[ इति आवश्यकनिर्युकौ ॥ ]
अनिआणो दारमणो, हरिसवस विसदृकंचुयकरालो । पूएइ गुरुसंघ, साहम्मिअमाइ भत्तीए ॥ १७९ ॥ निअदवमपुत्र जिनिंदभवण जिणबिंबवरपइट्टासु । विअरइ पसत्थपोत्थय, - सुतित्थतित्थयरपूआसु ॥ १८० ॥
[ इति श्री भक्तप्रकीर्णके ॥ ]
जिणाऽऽणाए कुर्णताणं, नूणं निवाणकारणं । सुंदरंपि सुबुद्धीए, सवं भवनिबंधणं ॥ १८९ ॥ जह सरणमुवगयाणं, जीवाण निकित्तई सिरे जो उ। एवं आयरिओ वि हु, उस्सुत्तं पन्नवंतो अ ॥ १८२ ॥ उरसुत्तभासगाणं, बोहीनासो अनंतसंसारो । पाणश्चरवि धीरा, उस्सुत्तं नेव भासति ॥ १८३ ॥ पयअक्खपि इकं, जो न रोएर सुत्तनिषिद्धं । सेसं रोयतोऽवि हु, सुत्तत्थं मिच्छदिट्ठीओ ॥ १८४ ॥ उस्सग्गो अववार्य, आयरमाणो विराहओ होइ । अबवाए पुणपत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भइओ ॥ १८५ ॥ संथैरणंमि असुद्ध दोहवि गिण्यं तदितयाणऽहिअं । आउरदितेणं, तं चेत्र हिअं असंथरणे ॥ १८६ ॥ तिथंगरा १ जिण २ चउदस ३, दस भिन्ने ४ संविग्ग ५ तह असंविग्गे ६ । सारूविअ ७ वय ८ दंसण ९, पडिमाओ १० भावगामो अ ११ ।। १८७ ।। [ एषा गाथा श्रीबृहत्कल्पे . ॥ ३४९।४७८ ॥ ]
१-सातावेदनी, असातावेदनी, चारित्रावरणी, दर्शनावरणी, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, उच्चैर्गोत्रः नीचैर्गोत्रः एवं भेद ८ सर्वमीलने ३१ । २- पञ्चवस्तुकेऽपि पिण्डनिर्युक्तावपि पृष्ठे १७६ गा. ६६२-६६३-६६४ ॥ ३ - 'तिन्नि' जलचरादिसत्कानि, 'जूसो'त्ति मुद्गतंडुलजी रक्डभाण्डादिरसः, 'भक्त०'त्ति खण्डखाद्यादीनि, 'गुललावणिया गुडपटिका लोकप्रसिद्धा गुडधाना वा, 'मूलफलानि' एकमेव पदम्, हरि० जीरकादि हरितं 'डागो' त्ति वस्तुलादिभर्जिकादिः ॥ ४- ' रसोलू'त्ति महाका । 'पाणं'ति मयं, 'पाणिअ'त्ति जलं, पाणगं'ति द्राक्षापानकादि, 'सागो'ति तत्र सिद्धशाक इति एते १८ भक्ष्यं भोजनमिति ॥ ५- आहारे संस्तृते सति । ६- तीर्थद्वराः १, सामान्यकेवलिनः २, चतुर्दशपूर्वधराः ३, भिन्न दशपूर्वधरः ४ शुद्धचारित्री ५, असंविनचारित्री ६, 'सारू०' वेषधरमात्रलिङ्गी, ७, १२ व्रतधारकः ८, 'दं०' केवलसम्यक्त्वधारी ९, 'प०' जिन बिम्बम् १०, एतद्दशदर्शनं भव्यानां भावप्रामः ज्ञानादिलाभहेतुरार्द्रकुमारवत् । ननु तीर्थङ्करादीनां भावयामत्वं युक्तं परं असंविमादीनां कथं भावग्रामत्वम् ? उच्यते- तेषामपि सत्यप्ररूपणाकारिणां पार्श्वे धमाकर्ण्य सम्यग्दर्शनाभिलाषः स्याविति तेषामपि भावप्रामत्वमुक्तम्, इति बृहत्कल्पयुतौ ॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
गाथासहस्री। लूआ कोलिगजालग १, कोत्थलकारीअ २ उवरि गेहे अ । साडितमसाढिते, लहुगा गुरुगा अभत्तीए ॥ १८८॥
[एषाऽपि गाथा श्रीबृहत्कल्पे पृ. ५२७ ॥] आओ १ जोवण २ वणिए ३, अगणि ४ कुटुंबी ५ कुकम्म ६ कुमरीए ७ । तेणे ८ मालागारे ९, उन्भामिग १० पंथिए ११ जंते १२ ॥ १८९ ॥ सबेहिंपि जिणेहिं, निजिअजिअरागदोसमोहेहिं । सत्ताणुकंपणट्ठा, दाणं न कहिंचि पडिसिद्धं ॥ १९० ॥
सेकित खेत्तारिआ! खेत्ता० अद्धछन्वीसविहा पश्नत्ता, तंजहारायगिह-मगह १ चंपा अंगा २ तह तामलित्ति बंगा य ३ । कंचणपुरं कलिंगा ४, वाणारसि चेव कासी अ ५॥१९१॥ साके कोसला ६ गयपुरं च कुरु ७ सोरिअं कुसट्रा य ८॥१९२॥ कंपिल्लं पंचाला ९, अहिछत्ता जंगला चेव १० ॥ १९२ ॥ बारवई सोरहा ११, मिहिल विदेहा य १२ वच्छ कोसंबी १३ । नंदिपुरं संडिल्ला १४, भद्दिलपुरमेव मलया य १५ ॥ १९३ ।। वईराडमच्छ १६ वरूणा अच्छा १७ तह मत्तिआवइ दसण्णा १८ । सोत्तिअमई अ चेई १९, वीयभयं सिंधु सोवीरे २०॥ १९४ ।। महुराय सूरसेणे २१, पावा भंगीय २२ मासपुरि वट्टा २३ । सावत्थीअ कुलाणे २४, कोडीवरिसं च लाडाय २५ ॥१९५॥ सेअविआविअ नयरी, केअयअद्धं च आरिअं भणिों। जत्थुप्पत्ति जिणाणं चकीणं रामकण्हाणं ॥ १९६ ।। जैह पारओ तह गणी, जह मरुगा एगगच्छरासीओ । सुणगसरिसा पलंबा, मडुओ समं दगमफासु ॥ १९७ ॥
अथ ध्यातुः स्वरूपं श्लोकद्वयेनाऽऽहनिष्प्रकम्पं विधायाऽथ, दृढं पर्यमासनम् । नासाप्रदत्तसन्नेत्रः, किश्चिदुन्मीलितेक्षणः ॥ १९८ ॥ विकल्पवागुराजालाह्रोत्सारितमानसः । संसारच्छेदनोत्साहो, योगीन्द्रो ध्यातुमर्हति ।। १९९ ॥
अथ प्राणायाममाहअपानद्वारमार्गेण, निस्सरन्तं यथेच्छया। निरुध्योर्ध्वप्रचाराप्ति, प्रापयत्यनिलं मुनिः ॥ २० ॥
१-असमाय॑माणे चैत्ये भगवत्प्रतिमाया उपरिष्ठात् यदि एतानि भवेयुस्तदा तानि साधुरपि चैत्यभक्त्या दूरीकुर्यात्तदा तस्य चत्वारि लघुप्रायश्चित्तानि आलोचनायामायान्ति, अथ नो दूरीकुर्यात्तानि तदा चत्वारि गुरुप्रायश्चित्तानि आयान्ति, तानि कानि ? इत्याह-लूता नाम कोलिकपुटकानि, कोलिकजालकानि तु कोलकानां तु लालातन्तुसंतानाः कोत्थलकारी-भ्रमरी तस्याः सम्बन्धि गृहं कथ्यते ॥ २-'आओ' इति गाथा, व्याख्या-पौरुष्यनन्तरं प्रातर्याक्त् साधूनां बाढं वदतामेते द्वादश दोषा भवन्ति-शब्दं श्रुत्वा लोको विबुध्यते, विबुद्धः सन् अकाययन्त्राणि योजयन्ते, वाहनानि सज्जयन्ते, जलार्थ योषितो यान्ति १, 'जोवण' त्ति धान्यप्रकरः तदर्थ लोको याति,लाटदेशे 'जोवणं' धान्यनिकरः कथ्यते २, वणिए' ति वणिजो विभातमिति कृत्वा ब्रजन्ति ३, 'अगणि' ति लोहकरादिभिः शालादिषु अग्निः प्रज्वाल्यते ४, 'कु०' कुटुम्बिन: खकर्मसु लगन्ति ५, कुत्सितं कर्म येषां ते कुकपणो मत्स्यिकादयः ६, 'कु०' कुत्सिता माराः कुमाराः सौकरिकादयस्तेषां विबोधो भवेत् ७, 'ते' चोराणां बोधः ८, 'मा' मालिकानां बोधः ९, 'उ. उदामिकाः पारदारिका विबुध्यन्ते १०, 'प०' पथिकाः पथि वर्तन्ते ११, जं० यात्रिकाः घाणी-कोल्हू-घर-चक्रादियन्त्राणि वाहयन्ति १२, इति तर्हि कथं वदन्ति यथा वृद्धा अदन्ता लपनधियमन्नान्ति, अशब्दं तत्रापि वदेत् ॥ ३-वैराटदेशः मत्स्यानगरी, अन्ये मत्स्यो देशः वैराटपुरम् १, वरणानगरी अच्छादेशः, अन्ये वैपरीत्यमाहुः ॥ ४-केयद्धदेशोऽों क्षेयः आर्यः, अर्द्धश्च अनार्यः, तत्र श्वेताम्बिका आर्यदेशेऽस्ति, प्रज्ञापनाप्रथमपदे ।। ५-'जह.' यथा पारगो वेदपारगः अपरिणामकः १, परिणामकब्राह्मणः २, अविपरिणामकः ३, एवं सर्वे चोरेर्मुषितामा रोदिन क्षुधाबाधिताः संजाताः यथा मृतश्वा भक्षितः, समृतकं जलं न पीतं, तथा गणयो महात्मानः पलम्बभक्षणम् अप्राशुकजलपानं न कुर्वन्ति ॥ ६-भशुभा ना शुभा वापि विकल्पा यस्य चेतसि ॥ स त्वं बधाति अयःवर्णो बन्धनामेन कर्मणा ॥
"Aho Shrut Gyanam".
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
अथ पूरकप्राणायाममाहद्वादशाङ्गुलपर्यन्तं, समाकृष्य समीरणम् । पूरयत्यतियत्नेन, पूरकध्यानयोगतः ॥ २०१॥ नासान्तनभसो ऽष्ठ्यं हि द्वय ब्धि संख्याकुलोत्तरा। तेजो-वायु-पृथिव्यम्बु ४ बहिर्गतेरुदाहृता ॥२०२॥
अथ रेचकप्राणायाममाहनिस्सार्यते ततो यत्नान्नाभिपद्मोदराच्छनैः। योगिना योगसामर्थ्याद्, रेचकाख्यः प्रभञ्जनः ॥ २०३॥
अथ कुम्भकध्यानमाह-- कुम्भवत् कुम्भकं योगी, श्वसनं नाभिपङ्कजे । कुम्भकध्यानयोगेन, सुस्थिरं कुरुते क्षणम् ॥२०४॥
अथ पवनजयेन मनोजयमाहइत्येवं गन्धवाहानामाऽकुश्चनविनिर्गमौ । संसाध्य निश्चलं धत्ते, चित्तमेकाप्रचिन्तने ॥ २०५॥ दुग्धाम्बुवत्संमिलि तौ सदैव, तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि । यावन्मनस्तत्र मरुत्प्रवृत्तिर्यावन्मरुत्तत्र मनःप्रवृत्तिः ॥ २०६॥ तत्रैकनाशादपरस्य नाशः, एकप्रवृत्तेरपरप्रवृत्तिः । विध्वस्तयोरिन्द्रियवर्गशुद्धि,-स्तद्ध्वंसनान्मोक्षपदस्य सिद्धिः ।। २०७॥ निच्छ यओ दुन्नेअं, को भावे कम्मि वट्टई समणो। बवहारओ अ कीरइ, जो पुवंडिओ चरित्तमि ॥ २०८ ॥
[इति श्रीआवश्यकनियुक्ती भाष्यकारोऽप्याह (२६९) u] वैवहारोऽवि हु बलवं, जं छउमत्थं पि वंदई अरिहा । जा होइ अगाभिन्नो, जाणतो धम्मयं एअं ॥ २०९॥
गुणाहिए वंदणयं, छउमत्थो गुणागुणे अयाणंतो । वंदिज्जा व गुणहीणं, गुणाहिलं वावि वंदाचे ॥ २१०॥
उत्तरमाह--
आलएणं १ विहारेणं २, ठाणा ३ चंकमणेण य ४ । सक्को सुविहिओ नाउं, भासा ५ वेणइएण य ॥ २११ ॥ मायरं १ पियरं २ वावि, जेट्टगं वावि भायरं ३ । किइकम्मं न कारिजा, सवे रायणिए तहा ।। २१२ ॥
[आवश्यकनियुक्तौ पृ० ५४० ॥]
--
---
---
१-वारुणमण्डलप्रचारावसरेऽमृतमय बहिस्तात् ४ अकुल, ६ अकुल, ८ अङ्गुल, १२ अङ्कल । २-यत्र मनस्तत्र पवनी यत्र पवनस्तत्र मनो वर्तते यदाह-'दुग्धे०' ति ॥ ३-निधयतो दुज्ञेयं को भावे कस्मिन् प्रशस्ते अप्रशस्ते वा वर्तते श्रमण इति भाषश्वेह ज्येष्ठः ततः अनतिशयिनः चन्दनकाभावः एव प्राप्तः इत्यतो विधिमभिधित्सुराह-व्यवहारस्तु क्रियते चन्दनं यतः पूर्व स्थितश्चारित्रे यः प्रथम प्रवजितः सन्नुपलब्धातिचारः इति गाथार्थः ।। २०८॥ आह-सम्यकू तद्गतभावाऽपरिज्ञाने सति किमित्येतदेवमित्युच्यते व्यवहारप्रामाण्यात्तस्यापि च बलवत्त्वादाह भाष्यकारः॥ ४-व्यवहारोऽपि बलवानेव यद्यस्मात्कारणात् छअस्थमपि पूर्वरत्नाधिकं गुर्वादिकं वदन्ते, अर्हन्नपि केवल्यपि, अपिशब्दोऽत्रापि संबध्यते, किं सदा नेत्याह-जा होइ अपाभिन्नत्ति यावत् भवति अनभिज्ञातो यथाऽयं केवलीति, किमिति वन्दते ! इत्याह-जानन् धर्माता एतां व्यवहारबलातिशयलक्षणामिति गाथार्थः ॥ २०९ ॥ ५-इत्थं नोदकेनोक्ते सति व्यवहारनयमतमधिकृत्य गुणाधिकत्वपरिज्ञानकरणानि प्रतिपादयनाचार्य आह-'आलए.' आलयः बसतिः सुप्रमार्जितादिलक्षणा अथवा स्त्रीपशुपण्डकवर्जितेति तेनाऽऽलयेन नागुणवत एवंविधः खलु आलयो भवति, विहारो मासकल्पादिकस्तेन विहारेण स्थानमूर्द्धस्थानं चक्रमणं गमनं चेत्येकवद्भावस्ते नमन्तः आविरुद्धदेशकायोत्सर्गकरणेन च युगमात्रावनिप्रलोकनपुरस्सराद्धतगमने चेत्यर्थः शक्यः सुविहितो ज्ञातुं भाषा वैनयिकेन च, विनय एवं वैनयिक समालोच्य भाषणेन आचार्यादिविनयकरणेन चेति भावना, नैतान्येवम्भूतानि प्रायशोऽसुविहितानां भवन्तीति गाथार्थः ॥ २११॥ ६-'माय०' मातरं पितरं वापि ज्येष्ठं वा भ्रातरम्, अपिशब्दान्मातामहपितामहादिपरिग्रहः, कृतिकर्म-अभ्युत्थितवन्दनमित्यर्थः न कारयेत् सर्वान् रत्नाधिकांस्तथा पर्यायज्येष्टानित्यर्थः । किमिति मात्रादीन् वन्दनं कारयतः लोकगोपजायते, तेषां च कदाचिद्विपरिणामो भवति आलोचनप्रत्याख्यानसूत्रार्थे तु कारयेत्, सागारिकाध्यक्षं तु यतनया कारयेत्, एष प्रवज्याप्रतिपनानां विधिः, गृहस्थानां तु कारयेदिति गाथार्थः । २१२॥
"Aho Shrut.Gyanam"
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
जह किंचि दप्पओ अणमप्पप्पं वावि सेसियं वत्थु । पञ्चक्खेजण दोसो, सयंभुरमणाइमत्थु व ॥ २१३ ॥ जो वा णिक्खमिओ मणो, पडिमं पुत्ताइसंतइनिमित्तं । पढिवजेजा तओ वा, करेज तिविहंपि तिविहेणं ॥ २१४ ।। तसाइजीवरहिए, भूमीभागे विसुद्धए । फासुएणं तु नीरेणं, इयरेणं गलिएण उ ॥ २१५॥
[श्राद्धदिनकृत्ये गाथा २३ ॥] काऊगं विहिणा पहाणं सेअवत्थनियंसणो । मुहकोसं तु काऊणं गिहिबिंबाणि पमजए ॥ २१६ ॥
[श्राद्धदिनकृत्ये गाधा २४।] वण्णगंधोवमे हिं च, पुष्फेहिं पवरेहि य । नाणापयारबंधेहिं, कुजा पूअं विअक्खणो ॥ २१७ ॥
[श्राद्धदिनकृत्ये गाथा ६३ ।] कारण अत्थि जइ किंचि, कायचं जिणमन्दिरे । तओ सामाइअं मोतुं, करेज करणिजयं ॥२१८॥
[श्राद्धदिनकृत्ये गाथा ७९ ।। जीवाण बोहिलाभो, सम्मदिट्टीण होइ पिअकरणं । आणाजिणिंदभत्ती, तित्थस्स पभावणा चेव ॥ २१९॥
[श्राद्धदिनकृत्यवृत्ती॥] रिउसमयण्हायनारी, नरोवभोगेण गम्भसंभूई । बारसमुहुत्तमज्झे, जायइ उवरिं पुणो नेव ॥ २२० ॥ पणपन्नाइ परेणं, जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणहत्तरीइ परओ, होइ अवीओ नरो पायं ।। २२१ ॥ दुप्पडिले हिअ दूसं, अचाणाई विवत्त गिण्हंति । घिप्पइ पुत्थयपणगं, कालिअनिजुत्ति कोसट्ठो ॥ २२२ ॥ जइ तेसिं जीवाणं, तत्थगयाणं तु सोणिअं हुज्जा ! पीलिज्जते धणिअं, गलिज्ज तं अक्खरे फुसि ॥ २२३ ॥ आमे घड़े निहितं, जहा जलं तं घर्ड विणासेइ। इअसिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥२२४ ॥
[आवश्यकेऽपि ॥1 पुरिमंतिम अद्वैतरेसु तिस्थस्स नस्थि वुच्छेओ। मझिल्लएसु सत्तसु, इत्तिअकालं च १ वुच्छेओ ॥ २२५ ॥ चउभागो चउभागो, तिन्नि अ चउभाग पलिअचउभागो । तिन्नेव य चउभागा, चउत्थभागो अ चउभागो ॥ २२६ ॥ समओ जहन्नमंतरमुक्कोसेणं हवंति छम्मासा । आहारसरीराणं, उकोसेणं नवसहस्सा ॥ २२७ ॥ उस्सेइम १ संसेइम २, तंदुल ३ तिल ४ तुस ५ जवोदगा ६ ऽऽयामं ७ । सोवीरं ८ सुद्धविअडं, ९ अंबड १० अंबाडय ११ कविढे १२ ॥२२८॥ माउलिंग १३ दक्ख । १४ दाडिम १५, खजुर १६ नालियर १७ कयर १८ बदरफलं १९ । आमलयं २० चिंचापाणगाई च २१ पढमंगभणियाइं ॥ २२९ ॥ अंडय १ पोअय २ रसया ३, जराउ ४ संसे
१-तीर्थस्य चतुर्विधस्य सखस्य ॥ कालिकश्रुतस्य द्वादशाशीरूपस्य दृष्टिवादस्तु सर्वान्तरेष्वपि व्यवच्छिन्नः क्वचित्कियन्तमपि कालं व्यवच्छिन्नो दृष्टिबादा इति। २-अर्हद्धर्मवार्तापि तत्र नष्टेत्यर्थः। ३-मेहावग्गहधारणादि परिहार्णि जाणिऊण कालियसुयट्ठा कालियसुनिजुतिनिमित्तं वा पोत्थगं घिप्पर । 'कोसो'त्ति समुदओ। निशीथे १२ उद्देशके ॥ ३-सुविधि ९ शीतल १०, १०१ अन्तरे पल्योपमभा० १, १३.१४ अं० पल्यो. भा०३ ९१० अन्तरे पल्योपमस्य ११११२ अन्तरे पल्योपमस्य चतुर्थभा०३ १४१५ अं. पल्यो. भा० १ चतुर्थभागः । १ एकम् १२।१३ अन्तरे पल्यापम भा० १ १५.१६ अं० पल्यो. भा० १ सर्वान्तरमानं पल्योपम २ चतुर्थभागत्रयं च । ४-अण्डामाता अण्डजाः पक्षिगृहकोकिलकादयः १, पोतादिव जायन्त इति पोतजाः-ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलूमप्रभृतयः २, रसाज्माता रसजा:-आरनाल-दधि-तीमनादिषु पायुक्रम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा भवन्ति ३, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः गोमहिष्यजादिकमनुष्यादयः ४, संखेदाजाता इति संखेदजा मत्कुणयूकादयः ५, संमूर्छनाजाताः संमूर्छनजाः शलभपिपीलिकामक्षिकासालरादयः ६, उनेदाजन्म येषां ते उद्भेदजाः पताखजरीटपारिठवादयः ७, उपपाताजाताः उपपातजाः, उपपातेन वा भवा औपपातिका देवा नारकाच , इति दशकालिकवृसौ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
अया ५ समुच्छिमया । उब्भिय ७ तहोऽववाइअ ८, भेएणं अट्टहा जीवा ।। २३० ॥ मिच्छत्तं १ वेअतिगं, हासाईछक्कगं च १० नायवं । कोहाईण चउकं १४, चउदस अभितरा गंठी ॥ २३१॥ जिणकप्पिया य साहू, उक्कोसेणं तु एगवसहीए । सत्त य हवंति कहमवि, अहिआ कइआवि नो हुंति ॥ २३२ ॥ जइ जग्गति सुविहिआ, करंति आवस्सयं च अन्नस्थ । सिजायरो न होई, सुत्ते व कए व से होई ॥ २३३ ॥ अट्टेण तिरिक्खगई, रुद्दज्झाणेण गम्मए नरयं । धम्मेण देवलोए, सिद्धिगई सुक्कझाणेणं ।। २३४ ॥ कामाणुरंजियं अटुं १, रोदं हिंसाणुरंजियं २ । धम्माणुरंजिअं धम्म ३, सुकन्झाणं निरंजणं ॥ २३५ ॥ जइआ होही पुच्छा, तइआ एअस्स उत्तरं दिज्जा । इक्कस्स निगोअस्स, अणंतभागो गओ सिद्धिं ॥ २३६ ॥ वय ५ समणधम्म १५ संजम ३२, वेआवञ्च ४२ च बंभगुत्तीओ ५१ । नाणाइतियं ५४ तव ६६ को निग्गहाई ७० चरणमे ॥ २३७ ॥ पिंडविसोही ४ समिई ५, भावण १२ पडिमा १२ इंदिय निरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३, अभिग्गहा ४ चेव करणं तु ॥ २३८ ।। तिगुणा तिरूव अहिआ, तिरिआणं इत्थिआ मुणेअवा । सत्तावीसगुणा पुण, मणुआण सुराण पत्तीसा ॥ २३९ ॥ असढेण समाइन्नं, जं कत्थइ कारणे असावजं । न निवारिअमन्नेहिं अ, बहुमणुमयमेअमायरियं ।। २४० ॥ रुक्खाण जलाहारो 'संकोअणिआभएण संकुचई । नियतनूहिं वेढइ, वल्ली रुक्खे परिगहेणं ॥ २४१ ॥ इत्थिपरिरंभएणं, *कुरुवकतरुणो फलंति मेहुन्ने । तह कोहणस्स कंदो, हुंकारं मुअइ कोहेणं ॥ २५२ ॥ माणे झरइ अंती, छायइ वल्ली फलाइ मायाए । लोभे बिल्लपलासा, खिवंति मूले निहाणुवरि ॥ २४३ ॥ रयणीए संकोओ, कमलाणं होइ लोगसन्नाए । ओहे चइत्तुमग चडंति रुक्खेसु वल्लीओ ॥ २४४ ॥ एगिदियजीवाणवि, इअ दस सन्ना जिणेहिं पन्नत्ता । नहु हुंति मोह-सुह-दुह, वितिगिच्छा सोगधम्माइ ॥२४५॥ गीअत्थो अ विहारो, बीइओ गीअस्थमिसिओ भणिओ । एत्तो तइअविहारो, नाणुनाओ जिणवरेहिं ॥ २४६ ॥
[पञ्चवस्तुके ११८० पृ.१७३n] गी भण्णइ सुतं, अस्थो पुण होइ तस्स वक्खाणं । सुत्तेण य अस्थेण य, गीअत्थं तं विआणाहि ॥ २४७ ।। जो देइ उवस्सयं जइवराण गुणसयसहस्सकलिआणं । तेणं दिना वत्थन्नपाणसयणासणविगप्पा ॥२४८॥ (मिच्छे-१ सासण-२ मीस्से-३ अविरय-४ देसे-५ पमत्त ६ अपमत्ते ७ ।
१-यदि शय्यातरगृहे सुप्त्वा जागरित्वा प्राभातिक प्रतिक्रमणं कुन्ति तदाऽसौ शय्यातरः । अथैतच्छय्यायां सकलां रात्रि जागरित्वा प्राभातिक प्रतिक्रमणमन्यत्र कुर्वन्ति तदा मौलः शय्यातरो न भवति किन्तु यद्गृहे प्रतिक्रमणं कृतं स एव, अथ मूलशय्यायां रात्री सुत्वाऽन्यत्र प्रातः प्रतिक्रमन्ति तदा मौलोऽन्यश्च द्वावपि शय्यातरी, यदा तु वसतिसङ्कीर्णतादिकारणादनेकोपाश्रयेषु साधवस्तिष्ठन्ति तदा यत्राचार्यः स्थितः स शय्यातरो नान्यः ॥ २-नित्यानुष्ठानं चरणम् । ३-कार्यापलेअनुष्ठान करणम्। ४-'असढेण०' रागद्वेषरहितेन कालिकाचार्यादिवत् प्रमाणस्थेन सता समाचीर्णम् आचीर्ण यद्भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्ववत् कुत्रचिद् द्रव्यक्षेत्रकालादो कारणे पुष्टालम्बने असावा प्रकृत्या मूलोत्तरगुणाराधनाअ बाधकं न च नैव निवारितमन्यैस्तथाविधैरेव तत्कालवर्तिमिताथैः, अपि तु बहु यथा भवत्येवमनुमतमेतदाचीर्णम् । इति कल्पवृत्तौ उद्देश ३ ॥
५-सङ्कोचनिका-हस्तस्पर्शादिभीत्या अवयवसंकोचनात्, पञ्चवस्तुके इयं १७६ गाथा, तत्र द्वितीयपदपाठ एव'जं कत्थइकेणई असावजं' तत्र व्याख्या-केचित् प्रमाणस्थेन शेषं तदेव ।। _ *-कुरुबकाशोकतिलकादीनां तु कमनीयकामिनी १ भुजलतावगूहुन २ पाणिप्रहारकटाक्षा ३ दिभ्यः प्रसूतपल्लवादिप्रसवदर्शनान्मैथुनसम्झा ॥ यथा-स्त्रीणां स्पर्शात्प्रियनुर्विकसति, बकुलः सीधुगण्डूपसेकात्, पादाघातादशोकस्तिलककुरुबको वीक्षणालिङ्गानाभ्याम् । मन्दारो नर्मवाक्यान्मृदुमधुहसनाचम्पको बक्रवाक्यातूतो गीतानमेरुर्विकसति पुरतो नर्तनात्कर्णिकारः ॥१॥
६-'नई' एकेन्द्रियाणामेताः षटू संज्ञा न भवन्ति। -गीतार्थश्च विहारस्तदमेदोपचारात्, द्वितीयो गीतार्थमिश्रितो भणितो विहार एव, अतो विहारद्वयात्तृतीयविहारः-साधुविहरणकपो नानुसातः जिमवर-भगवद्भिः॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
गाथासहस्री।
नियट्टि ८ अनियट्टि ९ सुहुमु १० वसम ११ खीण १२ सजोगि १३ अजोगि गुणा १४ ।।) पावइ सुरनररिद्धी, सुकुलुप्पत्ती य भोगसामिद्धी। नित्थरइ भवमऽगारी, सिज्जादाणेण साहूणं ॥२४९।। संगमय १ कालसूरी २, कविला ३ अंगार ४ पालया ५ दोवि ६ ! नो जीव ७ गुढमाहिल ८, उदाइनिव मारय ९ अभवा ॥२५०॥ अंउणट्ठिसयसहस्सा, सत्तावीसं भवे सहस्साई । चत्ताकोडाकोडी वासाणं उसभजिण आउं ॥२५१॥ उस्सेह अंगुलेणं, अह उड्ढमुस्सेह सत्त रयणीओ। तिरिलोए पणधणुसय, सासयपडिमा पणिवयामि ॥२५२॥ गोहुम १ साली २ जवजव ३, जवाइ ४ धन्नाण कुट्ठगाईसु । खविआणं उक्कोसं, वरिसतिगं होइ सञ्चित्तं ।। २५३ ॥ तिल १ मुग्ग २ मसूर ३ कैलाय ४ मास ५ चवलग ६ कुलत्थ ७ तुवरीणं ८। तह बट्टचणग ९ वल्लाण १० वरिसपणगं सजीवत्तं ।। २५४ ॥ अइसी १ लदार कंगू ३, कोडीसग ४ सण ५ बरट्र ६ सिद्धत्था ७ । कुदव ८ रालग ९ मूलग, बीआणं १० सत्त वरिसाणं ॥२५५॥ अमित्तो मित्तरूवेण, कंठं घेत्तूण रोअई । मामित्तो सग्गइं जाइ, दोवि गच्छामु दुग्गई ॥२५६ ॥ उवएसा दिजंति, हत्थे नचाविऊण अन्नसिं । जं अप्पणा न कीरइ, किमेस विकाणुओ धम्मो ।। २५७ ॥ सदेण मिउ रूवेण पयंगओ महुअरो अ गंधेणं । आहारेण य मच्छो, बज्झइ फासेणऽवि गइंदो ॥२५८॥ कत्थवि जीवो बलिओ, कत्थवि कम्माई हुँति बलिआई। जीवस्स य कम्मस्स य पुवनिबद्धाइ वेराइं॥२५९॥ राई सरिसवमित्ताणि, परच्छिदाणि पाससे । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतोऽवि न पाससे ॥२६०॥ सीसं धुणियं चित्तं, चमकिअं पुलकिअं च अंगेहिं । तहवि हु परगुणगणे, खलस्स नहु निग्गया वाणी ॥२६१॥ पंचेंदिआ मणुस्सा, एग[स]नर भुत्तनारिंगभंमि। उक्कोसं नव लक्खा, जायंती एगवेलाए ॥ २६२ ।। संघीइआण कजे, चुण्णिज्जा चक्कट्टिसिन्नपि । तीए लद्धी जुओ, लद्धि पुलाओ मुणेयचो ॥ २६३ ॥ उत्तमनर १ पंचुत्तर २ तायत्तीसा य ३ पुवधर ४ इंदा ५ । केवलि दिक्खिअ ६, सासणदेवी ७ जक्खा य ८ नो अभव ।। २६४ ॥ अरिहंत १ सिद्धि २ चेइय ३, तब ४ सुअ ५ गुरु ६ साहु ७ संघ ८ पडिणीओ। बंधइ दसणमोहं, अणंतसंसारिओ जेणं ॥ २६५ ।। जो जेण सुद्धधम्ममि ठाविओ संजएण गिहिणा वा ! सो चेव तस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाणाओ ॥ २६६ ॥ आरंभे नस्थि दया, महिलासंगेण नासए धंभं । संकाए सम्मत्तं, पवजा दिव] अत्थगहणेणं ॥ २६७ ।। गिहिवावारपरिस्सम-खिन्नाण नराण वीसमहाणं । एगाण होइ रमणी, अण्णाण जिणिंदवरधम्मो ॥ २६८ ॥ तुल्लेवि उअरभरणे, मूढ अमूढाण पिच्छसु विवागं । एगाण नरयदुक्खं, अण्णेसिं सासयं सुक्खं ॥ २६९॥ जीवंति पुहविपडिआ, भयरवपडिआवि केवि जीवंति । जीवंति खग्गछिन्ना, चट्ट च्छिन्ना न जीवंति । २७० ॥ आवायमित्तगुरुएहिं तह पेरंतलहुअभूएहिं । घंटानिनायसरिसेहिं लजिमो लोअपिम्भेहिं ।। २७१ ॥ नलिण मिणं मलिणमिणं, विरसमिणं गंधवज्जियमिणं च । मालइरत्तो भमरो, परिहरह विआरिसं कुसुमे ॥ २७२ ॥ अइहासो १ अइतोसो २, अइदुजाण-माणुसेहिं संवासो । अइउबभडो अ वैसो, पंचवि गुरुअरस लहुअंति ॥ २७३ ॥ कालंमि अणाईए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं ।
१-५९ लाख कोडाकोडी, २७ सहस कोडाकोडी, ४० कोडाकोडी, अङ्कतोऽपि यथा-५९२७०४०००००००००॥ ८४ वरसे १ पूर्वाङ्ग (2) ८४ लाख पूर्वाह्न १ पूर्व (२)। ८४ लाख पूर्वे १ त्रुटिताङ्ग (३)। एतलउ आदिनाथ आउषु गाथोक्त ॥ २-शाश्वतजिनस्तवने वृत्ती सूत्रेऽपि यथा-पडिमा पुण गुरुआओ, पणधणुसयलहुअसत्तहत्याओं ॥ ३-कलाय:-त्रिपुटाख्यधान्यविशेषः । ४ वट्टयणका-शिखारहिता वृत्ताकाराश्चणकविशेषाः ॥ ५-लहा-कुसुम्भपीत०, कंगू-तन्दुलाः, कोद्रयविशेषः। शणं त्वप्रधानं बरदृत्ति 'बरटी' इति प्रसिद्धम् । ६-तस्य हि एतादृशी शक्तियेया चक्रवर्तिस्कन्धावारमपि यो गृहीयाद्विनाशयेद्वान प्रायश्चित्तं प्राप्नुयात्, भाष्यवृत्तौ ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
तं नत्थि संविहाणं संसारे जं न संभवई ॥ २७४ ॥ अरिहंतो असमत्थो, तारणे लोआण-दीहसंसारे । मग्गे देसणकुसलो, तरंति जे मगि लग्गति ॥ २७५ ॥ दस पुवा वुच्छिन्ना संपुन्ना, सुरभवंमि संपत्ते वइरंमि महासत्ते, संघयणं अद्धनारायं ।। २७६ ।। रिसहो १ रिसहस्स सुया ९९, भरहेण विवजिआ नवनवई । अट्ट य भरहस्स सुया, सिद्धा इकमि समयंमि ॥ २७७ । वासाण वीससहस्सा, नवसय तिअमास पंचदिणपहरा । इक्का घडिआ दोपल, अक्खरगुणयाल जिणधम्मो ॥२७८ ॥ अद्धामलग[य]पमाणे, पुढ विकाए हवंति जे जीवा । ते पारेवयमित्ता, जंबुद्दीवे न मायंति ॥ २७९ ।। एगंमि उदगबिंदुंमि, जे जीवा जिणवरेहिं पन्नत्ता । ते जइ सैरिसवमित्ता, जंबुद्दीवे न मायति ॥ २८॥ मोहम्ममि दिवड्डा, अडाइजा य हुंति माहिंदे । पंचेव सहस्सारे, छ अचय सत्त लोगते ।। २८१ ॥ दो कोडाकोडीओ, पणसिय-लक्खा य हुंति कोडीओ। इगुत्तर सहसकोडी, चउसय कोडीओ नायबा ॥ २८२ ॥ अट्ठावीसं कोडी, लक्खा सगवन्न चउदस सहस्सा । दोय सयापणसीया, चवंति देवीओ इंदस्स ।। २८३ ॥ इह भरहे केवि जीवा, मिच्छद्दिही य भहया भावा । जे मरिऊणं नवमे, वरिसे होहिंति केवलिणो ।। २.८४ ॥
बारसहिं जोयणेहिं, सोअं परिगिण्हए सह । रूवं गिण्हइ चक्, जोअणलक्खाओ साइरेगाओ ।। गंधं रसं च फासं, जोअणनवगाउ सेसाई ॥ २८५ ॥ पणसयसत्ततीसा, चउत्तीस सहस्स लक्ख इगवीसा पुक्खरदीवड्डनरा, पुवेण अवरेण पिच्छंति ॥ २८६ ॥
[पुष्पमालावृत्तौ ४३४ ॥] कालतियं, वयणतियं लिंगतिय तह परोक्ख पञ्चक्खं । उवणयऽवणयचउकं, अज्झत्थं चेव सोलसमं ।। २८७ ॥
[इति श्रीवृहकल्पे; प्रवचनसारे १४० द्वारेऽपि ३६४ पन्ने ॥ ] __उम्मगदेसणाए, चरणं नासिंति जिणवरिंदाणं । वावन्नदसणा खलु, न लब्मा तारिसा द8 ॥ २८८ ॥ [ आभिग्गहियं-अणभिमाहियं-तह अभिनिवेसियं चेव । संसइयं अणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा एवं 1 अक्खंडियचारित्तो वयगहणाओ य जो भवे तित्थं । तस्स सगासे दसण,-वयगणं तह य सोही य ॥ २८९ ॥ तरिअबा य पइन्ना, मरिअवं वा समरए समत्थेणं । असरिसजणउल्लावा, न हु सहिअधा कुलपसूएणं ॥ २९० ॥ जंबुद्दीवे चक्की, उक्कोसं तीस चउ जहन्नेणं । धायइपुक्खरदुगुणा, एमेव य केसवाईआ॥ २९१ ॥ एगदिणे जे देवा, चवंति तेसि पि माणसा थोवा । कत्तो मे मण. यभवो, इअ चिंताए सुरो दुहिओ ॥ २९२ ॥ जोइ १ वण २ ॥ बीआए । तईयं असुरकुमारा, वेमाणिय जंति सत्तसु वि ॥ २९३ ।। ते उडमचुअं जाव, भवणवई
१-सणीजातिपुष्पं कापि वृक्षमुकुरः। २-अप्का यस्य सर्षपप्रमाणभणनेन पृथ्वीतः सूक्ष्मत्वम् । ३-भगवत्यां १४ शतके ८ उद्देशके सिद्धिशिलात उपरि अलोको योजनम् एकं, तन्न इदं योजनं उत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नं ज्ञेयं यतस्तस्य योजनस्योपरितनकोशस्य षड्भागे सिद्धावगाहना धनुस्त्रिभागयुक्त त्रयस्त्रिंशदधिकधनुः शतत्रयमानाभिहितरूपा उत्सेघालयोजनाश्रयणत एष युज्यत इति । ४-शब्दं-मेघगजेनाशब्दरूपम् १, चक्षुः सातिरेकयोजनलक्षाद् रूपं गृह्णाति विष्णुकुमारादेरिव खचरणपुरोवर्तिगर्ताईतर्गतलोष्ठादिदर्शनात् , इदमभाखरपदार्थापेक्षया भाखरपदार्थापेक्षया तु पणसये ति गायोक्तं पटुधाणादिशके देवादिकर्पूरादीनामिव गंध तिक्तकटुकादिरसं । ५-उपनयः स्तुतिः. अपनयो-निन्दा तयोः चतुष्कम्-उपनयापनयचतुष्कम् , 'रूपवती स्त्री' इति उपनयवचनम् १, 'दुःशीला' इति अपनयवचनं २, 'रूपवती स्त्री किन्तु दुःशीला' इति उपनयापनयवचनम् ३, कुरूपा स्त्री किन्तु सुशीला इति अपनयोपनय० ४, ६-अन्यचेतसि निधाय विप्रतारकबुद्ध्या अन्यत् विभणिधुः पुनरपि सहसा यशेतसि तदेव वक्ति यत्तत् षोडशमध्यात्मवचनम् । ७-तत्सम्बन्धि स्वयं विनष्टसम्यग्दर्शनाः तादृशा द्रष्टुमपि न कल्पते किं पुनस्तैः समं सहवासादयः । गाथा.२
"Aho Shrut Gyanam"
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
जाव जंति सोहम्मे । जोइ वण पंडगवणं, असंखदीबोदहितिरियं तु ॥ २९४ ॥ [ दो पढमकप्पपुढविं, दो दो दो बीय-तईय-चउस्थि । चउ उवरिम ओहीए, पासंति य पंचमि पुढविं ॥१॥ छहि छग्गेविजा, सत्तमिमियरे अणुत्तरसुराओ । किंचूणलोगनालिं, असंखदीवोदहिं तिरियं ॥२॥] मेल्हेइ सोहम्माओ, कोवि सुरो लोहगोलगं हिट्ठा। भारसहस्समयं सो, छम्मासेहिं च छदिणेहिं ॥२९५॥ छप्पहरछघडिआहिं, जावइयं इकामिज तावइआ। रज्जू तयद्धमणो, दीवसमुदंऽतिमो जैलही ॥ २९६ ॥ पणयालीसं आगम,-समग्ग-गंथाण हुँति छल्लक्खा । पणयालीस सहस्सा, पंचसया चेव चउयाला ॥२९७॥ संविमासंजयाणं, दिजइ घिप्पइअ पढमभंगो य। संजइवरगे दिजह, नवि घिप्पड कारणे बीओ ॥ २९८ ॥ गिहि १ अन्नतिथिआणं २, नवि दिजइ धिप्पए अ नवरं तु । नवि दिजइ नवि घिप्पइ, पासत्स्थाईसु सबेसु ॥ २९९ ॥ सुरलोअवाविमज्झे, मच्छाई नस्थि जलयरा जीवा । गेविजे नहु वावी, वाविअभावे जलं नस्थि ।। ३००॥ चेइयदवं दुविहं, पूआ १ निम्मल्ल २ भेयओ तत्थ । आयाणाई दवं, पूआरित्थं मुणेअवं ॥ ३०१ ॥ अक्खयफलबलिवत्थाइ संतिअं जं पुणो दविणजाय । तं निम्मल्लं बच्चइ, जिणगिहकम्ममि उवओगो ॥ ३०२॥ अह पुचि चिअ केणइ, हविज पुआ कया सुविहेण । तंपि सविसेससोहं, जह होइ तहा तहा कुजा ॥३०॥ निम्मलंपि न एवं, भण्णइ निम्मल्ललक्खणा भावा । भोगविणटुं दवं, निम्मलं चिंति गीयत्था ॥३०४॥ इत्तो चेव जिणाणं, पुणरवि आरोवणं कुणंतु जहा । वत्थाहरणाईणं, जुगलिअ कुंडलिअमाईण ॥ ३०५ ।। कहमन्त्रह एगाए, कायाईणं जिणिदपडिमाणं । विजयाई वनि अट्ठसयं लूहंताया समए !! ३०६ ॥ जे निचमप्पमत्ता, गंठिं बंधति गंठिसहियंमि । अट्ठसयं लूहंता सग्गाऽपवग्गसुक्खं, तेहिं निबद्धं सगंठिमि ॥३०७]! भणिऊण नमुक्कार, निच्च विम्हरण वजिया धन्ना। पारंति गंठिं सहिअं गंठिंसह कम्मकंठीहिं॥ ३०८ ॥ पोरिसि १ चउत्थ २ छढे ३, काउं कम्म खवंति जं मुणिणो। तं नो नारयजीवा, वाससयसहस लक्खेहिं ॥ ३०९॥ सत्तरिसयमुक्कोसं, वीस जहन्नण विहरमाणजिणा । समयखित्ते दस वा जेम्म पइवीसदसगं वा ॥ ३१० ॥ पायमिह कूरकम्मा, जीवा भवसिद्धियावि दाहिणए । नेरइअतिरिअमणुआ,सुराइठाणेसु गच्छंति !! ३११ ।। अट्ट १ दुवालस २ सोलस ३, चउत्तिहारे हिं पउरमडेहिं । दसहि तिहारा वड्डे, एगओ होइ उववासो ॥ ३१२ ।। गिह १ जोइ २ भूसणंगा ३, भोअण ४ भायण ५ तहेव वत्थंगा ६ । चित्तरसा ७ तुडिअंगा ८, कुसुमंगा ९ दीविअंगा य १० ॥ ३१३ ।। बहुरयणविणिम्माया, भवणदुमा अट्ठभूमिआ दिवा । सयणासणसन्निहिआ, तेएण निदाहरविसरिसा ॥३१४॥ जोइदुमाणं उरि, ससिसूरा जत्थ वञ्चमाणाऽवि । ताणं पभवोऽपहया, निअयंपि छविं विमुंचंति ॥ ३१५ ॥ वरहार कणयकुंडल, मउडालंकारनेउराईणि । नियअंगभूसणाई आहरणदुमेसु जायंति ॥ ३१६ ॥ अट्ठसयखज्जयजुओ, चउसट्टी तह य वंजणविअप्पो । उप्पज्जा आहारो, भोअणरुक्खेसु रसकलिओ ॥ ३१७ ॥ भिंगारथालवट्टय, कचोलयवद्धमाणमाईणं । कंचणरयणमयाई, जायंति अ भायणंगेसु ।। ३१८ ॥ खोमदुगुल्लयवालय,-चीणंसुअ पट्टमाइआई च । वत्थाणि बहुविहाई वत्थंगदुमा पमाणति ।। ३१९ ॥ कायंबरी पसन्ना, आसवजोगा तहेवऽणेग विहा । चित्तंगरसेसु
१-रजु र्भवेत् । २-खयम्भूरमणसमुद्रः, प्रकारान्तरेण रज्जुप्रमाणमाह। ३-पार्श्वस्थादीनां न दीयते नापि तेभ्यो गृह्यते। ४-महाविदेहेषु जघन्यतः । ५-जन्म आश्रित्य महाविदेहेषु २०, भरतैरावतेषु १० स्युः। ६-त्रुटिताशास्तुततविततघनशुषिरमेदभिन्नहुकारैरातोयैः फलैरिव उपशोभितास्तिष्ठन्ति । कुसुमागास्तु-विचित्रसरसमुरमिपञ्चवर्णमाल्यमालाभिराकीर्णाः सदैवासते। दीपिकाङ्गास्तु-यथा इह स्निग्धाः प्रज्वलन्त्यः कनकमणिमध्यो दीपिका उद्योतं कुर्वाणा दृश्यन्ते तद्विश्रसा परिणतप्रकृष्टोद्योतेन सर्वमुद्योतयन्तस्तिष्ठन्ति ॥ ७-विसापरिणामेन ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
१९
सया, पाणयजोगा उ जायंति ॥ ३२० ॥ फालो अचित्तो अह आविओ वा, चउरंगुलं विस्थडओ असंधिमं । विस्सामहेडं तु सरीरयस्स, दोसा अवटुंभगया न एवं ॥ ३२१ ॥ एक पाउरमाणे, खोमिअं उन्निअं च लहुमासो । दुन्नि अ पाउरमाणे, अंतो खोमी वहिं उन्नी ॥ ३२२ ॥ छैप्पइअ पणगरक्खा, भूसा उज्ज्ञायणा य परिह रिआ। सीयत्ताणं च कयं, तेण खोमं न बाहिरओ ॥ ३२३ ॥ पंढमचरिमा उ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि बज्जेजा। पायं ठवे सिणेहातिरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥३२४॥
श्रावकविधौ पण्डितराजपरमार्हतधनपालेनोक्तम् ॥ ] पंचविह विसयसुक्खं, उवभुंजइ परमिएसु दिवसेसु । तिवाभिलासचिरओ, परिहरओ पंचसु तिहीसु ॥ ३२५ ।। जह दीवा दीवसयं, पईवई सोवि दिप्पई दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पं च परं च दीवंति ॥ ३२६ ॥ कयवयकम्मयभावो १, सीलत्वं चेव तह य गुणवत्तं २१३ । रिउमइववहरणं चिअ ४, गुरुसुस्सूसा य बोधवा ५ ॥ ३२७ ॥ पययणकोसल्लं पुण, ६ छठें ठाणं तु होइ नायवं । छहाणगुणेहिं जुओ, उक्कोसो सावगो होई ॥ ३२८ ॥
मैथुनप्रसक्तयोहि स्त्रीपुंसयोरुत्कृष्टतोऽष्टादशलक्षजीवा विनश्यन्ति । यदुक्तम् - मेहुणसन्नारूढो, नव लक्खं हणेई सहुमजीवाणं । केवलिणा पन्नत्तं, सदहिअवं पयत्तेण ॥ ३२९ ॥ इत्थीजोणीइ संभवंति बेइंदिया उ जे जीवा । एको व दो व तिणि व, लक्ख हुत्तं च उक्कोसं॥२३॥
संसक्तायां योनौ एते द्वीन्द्रियाः शुक्रशोणितसंभवास्तु गर्भजपचेन्द्रिया इमेपंचिंदिया-मणुस्सा इगनरसंभुत्तनारिगन्भमि । उक्कोसं नवलक्खा, जायंते एगवेलाए ।। ३३१ ॥ नवलक्खाणं मझे, जायइ इक्कस्स दुण्ह व समत्ती । सेसा पुण एमेव य, विलयं वचंति तत्थेव ॥३३२।।
संमूच्छिमपञ्चेन्द्रियमनुष्या अपि असंख्येयास्तथाहिअसंख इत्थीनरमेहुणाओ, मुच्छंति पंचिंदिअमाणुसाओ। नीसेस अंगाण विभत्तिचंगे, भणइ जिणो पनवणा उवंगे ॥ ३३३ ॥ सदुद्धरणनिमित्तं, गीअत्थगवेसणा तु उक्कोसं । जोअणसयाई सत्त उ, बारस वरिसाइं कायवा ।। ३३४ ॥ अगीअत्थो न विआणइ, सो ऊ चरणस्स देइ अणऽहियं । ता अप्पाणं आलोअगं च पाडेइ संसारे ॥ ३३५ ॥ जं जय अगीअस्थो, जं च अगीअत्थनिस्सिओ जयई । वट्टावेई गच्छं, अणंतसंसारिओ होई ॥ ३३६ ॥ श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं, धनं वपेदाशु शृणोति दर्शनम् । कृतकृत्यं पुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः ॥ ३३७ ॥ तेरसकोडिसयाई, चुलसीकोडीओ बारस य लक्खा । सगसीइ सहस दो सय, सवग्गं छकभंगीए ॥ ३३८ ॥ १३८४१२८७२०० एतावन्तः ।। सुन्नासुन्नो मीसो, तिविहो संसारचिट्ठणाकालो । तिरियाण सुन्नवज्ज्ञो, सेसाणं होइ तिविहो वि ।। ३३९ ॥ नाणस्स केवलीणं, धम्मायरिअरस सबसाहूणं । माई अवनवाई, किबिसि भावणं कुणई ।। ३४०॥
इति श्रीभगवतीवृत्ती प्रथम शतके द्वितीयोद्देशके ५० पत्रे ॥1 जलदोण १ मद्धभारं २, समुहाइं समूसिओ उ जो णव उ ३ । माणु १ म्माण २ पमाणं ३, तिविहं खलु लक्खणं एयं ॥ ३४१ ॥
श्रीभगवतीवृत्त द्वितीयशतके प्रथमोद्देशके १९९पत्रे ॥ ] १-विस्तृतः-अन्तः सन्धिरहितः । २-एवंविधःपर्यस्तिकापट्टो योगपट्टो विश्रामहेतोः शरीरस्य गृह्यते, एवमवष्टम्भदोषा न स्युः । अयं च स्थविर १ ग्लान २ वाचनाचार्याणां ३ कल्पते नान्येषाम् । ३-कप्पसिए० छप्पइआ न भवति इअरहा वहू भवंति पणओ उल्लि अंतो उन्नियं पाउणिजमाणं मलीमसा य कंबली दुग्गंधा विहिपरिभोगेण सावि उज्झयणया परिहरिया पडगम्भकंबलिइ सीयत्ताणं कयं भवइ, एएण कारणेणं सोमियं बाहिं न पंगुरिजद । निशीथे ॥ ४-प्रथमचरमपौरुषी वर्जयित्वा उभयोरर्द्ध वर्जयित्वा उष्णे पात्रं स्थापयेत् अवश्याय-महिका-हिमवर्षा रक्षार्थ मध्ये पात्रं प्रवेशयेत् ॥ ओघनियुक्तिः (१४५)
"Aho Shrut Gyanam"
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
___ मस्तकशूचिविनाशे, तालस्य यथा भुषो भवति नाशः । तद्वत्कर्म विनाशो, मोहनीयस्य क्षये नित्यं ॥ ३४२ ॥
[श्रीआचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धे।] जे उ दाणं पसंसंति, वह मिच्छंति पाणिणं । जे उ णं पडिसेहिंति, वित्तिच्छेअं करिति ते ॥३४३॥
श्रीआचारागप्रथमश्रुतस्कन्धे षष्ठाध्ययने २३३ पने। जम्मा १ भिसेअ २ निक्खमण ३ चरण ४ नाणुप्पया य ५ निशाणे ६। दिअलोअभवण ७ मंदर ८, नंदीसर ९ भोमनगरेसु १०॥ ३४४॥ अट्ठावय ११ उर्जिते १२ गर्यगपयए अ १३ धम्मचक्के अ १४ । पास १५ रहावत्तनगं १६, चमरुप्पायं च वंदामि !! ३४५ ॥
इदं गाथाद्वयं श्रीआचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धप्रासे तृतीयचूलायां श्रीआचारागनियुक्तौ ३८५ पन्ने ॥] अलिअ न भासिअवं, अस्थि हु सच्चंपि जं न वत्तबं । सञ्चपि होइ अलिअं, जं परस्पीडाकर वयणं ॥ ३४६ ॥
[इति श्रीआचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशके वृत्तौ ३५६ पत्रे॥] सत्तरिसयमुक्कोसं १७०, इअरे दस १० समयखेत जिणमाणं । चोत्तीस पढमदीवे, अणंतरऽद्धे य ते दुगुणा ॥ ३४७ ।।
[इति आचाराङ्गवृत्तौ चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशके १६२ पत्रे ॥ ] यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः [आश्रवाः] । तावन्तस्तद्विपर्यासा-निर्वाणसुखहेतवः॥३४८॥
[आचारागवृत्तौ ४ अध्ययने २ उद्देशके १६४ पत्रे ॥] कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥३४९॥
[इति श्रीस्थानाङ्गवृत्तौ ॥] जेसिमवड्डो पुग्गल, परिअट्टो सेसओ अ संसारे। ते सुक्खपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्हपक्खाओ ॥ ३५० ॥ मूलं १ साह २ पसाहा ३, गुच्छ ४ फले ५ छिंद पडिअभक्षणया ६ । सवं १ माणुस २ पुरिसा ३, साउह ४ झुज्झंत ५ धणहरणा ।। ३५१ ॥ (?) लिङ्गादानविधिमाह -
["पुंश्वामुहो उ उत्तरमुहो व देजाऽहवा पडिच्छेज्जा । जाए जिणादओ वा, हवेज जिण. चेझ्याई वा ॥ १ ॥"]
[श्रीस्थानाङ्गे २ स्थाने । उद्देशके वृत्तौ ५७ पत्रे ॥ ] १-जन्मभूमी १, अभिसेओ-जस्थ रायाभिसेओ वा २, निक्खमणो-जहिं निक्खंतो ३, चरणंकुम्मारगामा अहिअगामादि जत्थ हिंडंतो ४, नाणुप्पायभूमी ५, निवाणभूमी ६, भावे तस्स आगादं दसणं भवति । इति श्रीआचाराङ्गचूर्णौ । २-गजानपदे दशार्णकूटवर्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचके, तथा अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावर्ते पर्वते वैरवामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमत् वर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रणोत्पतनं कृतम् ॥ ३-"सेभिक्खू वाजायभासा सच्चा सुहमा जाय भासा असञ्चामोसातहप्पगारं भासं असावजं जाव अभूओवधाइयं अभिकखं भासं भासिजा" वृत्तिः-स भिक्षुः यां पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-या च भाषा सत्या 'सूक्ष्मा ति कुशाग्रीयया बुद्ध्या पर्यालोच्यमाना मृषाऽपि सत्या भवति, यथा सत्यपि मृगदर्शने लुब्धकादेरपलोप इति, उक्तञ्च-'अलियं' इत्यादि, आचारालवृत्तौ । ४-अर्द्धपुद्गलपरावतः किञ्चिन्यूनः । ५-शुक्लो विशुद्धत्वात्पक्षोऽभ्युपगमः शुक्लपक्षस्तेन चरन्तीति शुक्लपाक्षिकाः, शुक्लत्वं च क्रियावादित्वेन, इति स्थानाङ्गवृत्तौ। ६-साउह-आयुधसहितः । -पुष-पूर्वाभिमुखः १ उत्तराभिमुखो २ वा दद्यात् गुरुः । अथवा प्रतीच्छेच्छिष्यो यस्या जिनादयो वा दिशिजिनाः मनःपर्यायज्ञानिनः अवधिसंपन्नाश्चतुर्दशपूर्वधरा नवपूर्वधराश्च जिनचैत्यानि वा यस्यां सा दिषि भासतानि तदभिमुखो दयादपवा प्रतीदिति गाथार्थः ॥ १॥ इति पशवस्तुकसौ २३ पो॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
भूए अणाइकाले, केई होहिंति गोअमा ! सूरी । जेसिं नामग्गहणे, नियमेणं होइ पच्छित्तं ॥३५२॥ एअं गच्छववत्थं, दुप्पणिहाणतरं तु जो खंडे । तं गोअम! जाण गणिं, निच्छयओअणंतसंसारिं ॥३५३॥
[इदं गाथाद्वयं श्रीमहानिशीथे पञ्चमाध्ययने ४२ पत्रे ॥] सूईहिं अग्गिवन्नाहिं, संभिन्नस्स निरंतरं । जावइअं गोअमा! दुक्खं, गन्भे अट्ठगुणं तहा ॥३५४॥ गम्भाओ निष्फडंतरस, जोणीजंतनिपीडणे । कोडिगुणं तयं दुक्खं, कोडाकोडिगुणं पि वा ॥ ३५५ ॥
[श्रीमहानिशीथे पञ्चमाध्ययने ।] जह सगडक्खोवंगो, कीरइ भरवणकारणा नवरं । तह गुणभरवहणत्थं, आहारो बंभयारीणं ॥३५६॥
[श्रीउत्तराध्ययने अष्टमाध्ययने वृत्तौ २९४ पन्ने ॥] दो वाससहरसठिई, देवाणं होइ विसयपरिभोगो। पणसय पणसय हाणी, जोइसिअ-भवण-वणयराण ॥३५७|| चउविहसंघसमेयं, मुणिगणधेअं वि पत्तजयसे। वीरजिणंदं नमिङ, थुणामि च उवीसजिणसंघ ॥३५८॥ सिरिपुंडरीयगोयमपमुहा गणहारिणो महामुणिणो । चउदससयवावन्ना (१४५२), जयंतु निच्चं दुरिअहरणा॥३५९॥ मुणिउसहसेणपमुहा-ऽडयालसहस्स लक्ख अडवीसा (२८४८०००)। वंभी सुंदरिचंदण चोआललक्खा छञ्चत्तसहस्सा (४४४६०००)॥ ३६०॥ चउरसयाछडहिया, सेयंसाणंदकामदेवा य । पणपन्नलक्खसहसातिपन्नया (५५५३४०६) सावया सरह ॥ ३६१ ।। सुभदा सुलसा रेवई, एगा कोडी अवरलक्खा य । नवनवइसहसतिसया पन्नासा (१० १९९३५०) साविया सरह ।। ३६२ ॥ सिरिसुहमजंबुपमुहा, दुसहस्स चउत्तरा जुगपहाणा (२००४) । तत्तुल्ला मुणिवसहा, इगारलक्खा सहस्स सोला (१११६०२०) ॥ ३६३ ।। जिणभत्तनिवा उ इगारलक्खा सोल सहस्स वीस हिया (१११६०२०)। एए पभायसमए, सरिअवा भवभावेणं । ३६४ ॥ एअं
घ, गुणरयणमयं सरेइ जो भयो । पइदियहं तिकालं, सो पावे निज्जरं गुरुअं॥ ३६५ ।। ससमं पत्तं, निरवज्ज इक्खुरससमं दाणं । सेअंससमो भावो, हविजा जइ मम्गिअं हुज्जा ॥३६६॥
पूरी, उवझाया साहुसाहुणीओ अ 1 सावय-साविअरूवं, वंदू संघं तिकालभवं ॥३६७॥ इअ विमलगुणोहं चत्तनीसेसदोहं, विजिअपबलमोहं भिन्नभावारिजोहं । थुगइ तवमहग्धं जो सया सबसंघ, लहइ असिव सिग्छ; छिन्नसंपुन विग्धं ॥ ३६४ ॥
जिणकप्पिया य साहू, उक्कोसेणं तु एगवसहीए । सत्त य हवंति कहम वि, अहिया कइयावि नो हुँति ।। ३६९ ॥
[प्रवचनसारोद्धारे गा. ५३९ ४८१ पत्रे ॥] आयरिय १ उवज्झाए २, तवस्सि ३ सेहे ४ गिलाण ५ साहूसुं६ । समणोन्न ७ संघ ८ कुल ९ गण १०, वेयावञ्च वइ दसहा ॥ ३७० ।।
[प्रवचनसारोद्धारे गा. १६१ ॥] मुहपोत्ति १ चोलपट्टो २, कैप्पतिगं ५ दो निसिज ७ रयहरणं ८ । संथारु ९ त्तरपट्टो १०, दस पेहाऽणुग्गए सूरे ॥ ३७१ ॥
[प्रवचनसारोद्वारे गा. ५९१ ४८३ पत्रे ॥]
१-गुणानं आसओ दवं, एगदवस्सिया गुणा! लक्खणं पजवाणं तु, उभओ अस्सिया भवे ॥१॥ श्री उत्तराध्ययने २८। (५५७ पन्ने) २-ज्योतिष्काणां १५००, भवनपतीनां १०.०, व्यन्तराणां ५०० वष णि परिभोगः। ३-यद्यपि चैकस्यां वसती उत्कृष्टतः सप्त जिनकल्पिकाः प्रतिवसंति तथापि परस्परं न भाषन्ते, धर्मवार्तामपिन कुर्वन्ति वीथ्यामपि बैकस्यामेक एव जिनकल्पिकः प्रतिदिनमटति न पुनः पर इति । ४-समणोन्न-एकसामाचारीकाः । साध्वादिचतुर्विधसंघःएकजातीयवहुगच्छसमुदायः । कुलं-चन्द्रादि, गणस्तु-एकाचार्यप्रणेयः साधुसमूहः । ५-कप्पतिर्ग-द्वौ सौत्रौ एक ऊर्णिकः । 'दो निसिजा-रे निषधे-रजोहरणस्य, एका सूत्रमयी अभ्यन्तरेनिषद्या, द्वितीया बाधा पादप्रोग्छनरूपा ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
गाथासहस्री।
पडिलेहणं कुणतो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पञ्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छ वा ॥ ३७२ ॥ पुढवी आउक्काए तेऊ वाऊ, वणस्सइतसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हपि विराहओ भणिओ॥३७३ ।।
[प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ १५६ पत्रे ॥] मणगुत्तिमाइआओ, गुत्तीओ तिन्नि हुंति नायबा । अकुसलनिवित्तिरूवा, कुसलपवित्तिस्सरूवा य ॥ ३७४ ।।
[प्रवचनसारोद्धारे गा. ५९५ १६७ पत्रे ॥] लट्ठी १ तहा विलही २, दंडो य ३ विदंडओ य ४ नाली य ५ । भणियं दंडगपणगं, वरूखाणमिणं भवे तस्स ॥ ३७५ ॥ लट्ठी आयपमाणा १, विलटि चउरंगुलेण परिहीणा ! दंडो बाहुपमाणो ३, विदंडओ कक्खमित्तो उ ४ ॥ ३७६ ॥ लट्ठीए चउरंगुल समूसिया दंडपंचगे नाली ५ । नइपमुहजलुत्तारे, तीए थग्गिज्जए सलिलं ॥ ३७७ ॥ बज्झइ विलट्ठीऍ जवणिआ विलट्ठीए कत्थइ दुवारं । घट्टिलए ओवरसयतणयं तेणाइरक्खट्टा ।। ३७८ ।। उउबद्धंमि उ दंडो ४, विदंडओ घिप्पए वरिसयाले ५ । जं सो लहुओ निजइ, कपंतरिओ जलभएणं ।। ३७९ ॥ उँवसमसे णिचउक्क, जायइ जीवरस आभवं नूनं । ता पुण दो एगभवे, खवगसेणी भवे एगा ॥ ३८० ॥
[प्रवचनसारोद्धारे गाथा ६६९-६७३-४८६ पत्रे ॥] उचासणं समीहइ विणयं न करेइ गवमुबहइ । बुढो न दिक्खिअबो, जइ जाओ वासुदेवेणं ॥३८१॥
[प्रवचनसारोद्धारे गा. २२९ ॥] मुलजु पुण तिविहं, जहण्णय १ मज्झिमं च २ उक्कोसं ३ । जहण्णेणहारसगं, सयसाहस्सं च उकोसं ॥ ३८२ ॥ चउदस १ दस य २ अभिण्णे, निअमा सम्मं तु सेसए भयणा । मैइ ओहि विवज्जासे, होइ हु मिच्छं न सेसेसु ॥ ३८३ ।।
_[वृहकल्पेऽपि-उ० ६] विहे गेलण्णम्मि २ अ, निमंतणे ३ दबदुल्लहे ४ असिवे ५ । ओमोदरिय ६ पओसे ७, भए ८ य गहणं अणुनण्णातं ॥ ३८४ ॥
[प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ बृहद्भाष्ये महानिशीथे ९ उद्देशकेऽपि ॥]
१-आभ्यां भेदाभ्यां वारगुप्तेः सर्वथा वाम् निरोधः १, सम्यम् भाषणं च आभ्यां भेदाभ्यां वाग् गुप्तेः २ रूपं प्रतिपादितं भवति, भाषासमिती तु वाक्प्रवृत्तिरेवेति वारगुप्तिभाषासमित्यो दः । २-बज्झइ०-भोजनसमये सागारिकादिरक्षायै। ३-उउ०-भिक्षाभ्रमणे प्रद्विष्टद्विपदचतुष्पदादिवारणार्थ वृद्धत्वेऽवयम्भार्थ च । ४-उवसम०-ते पुनः उपशमश्रेण्यौ एकस्मिन् भवे उत्कर्षतो वे भवे । ५-बुडो०-सप्ततिवर्षेभ्यः परतो वर्षशतायुष्कापेक्षमिदम् , अन्यथा यस्मिन् काले उत्कृष्टमायुस्तदशधा विभज्याष्टमनवमदशमभागेषु वर्तमानस्य वृद्धत्वमक्सेयम् । ६-जहण्णण यस्याटादश रूप्यका नाणकविशेषा मूल्यं तजघन्यं वरम् एतादृशमूल्यमपि न ग्रायं, किन्तु अष्टादशरूप्यकेभ्योऽपि यदल्पमूल्यं तद् ग्राह्य मिति भावः । ७-मइ०-किचिन्यूनपूर्वधरादौ भजना सम्यक्त्वं वा स्यान्मिथ्यात्वं वा स्यादित्यर्थः, मतेरवधेश्च विपर्यासे मत्यज्ञाने विभङ्गज्ञाने च मिध्यात्वं भवति, शेषयोस्तु मनःपर्यवज्ञान-केवलज्ञानयोमिथ्यात्वं न भवत्येव ।। ८-दुविहे०-गाढतरे १ आगाढतरे च २ ग्लानत्वे शध्यातरपिण्डोऽपि प्रायः। गाढतरे बीन् वारान् आहिण्यते यदि न लब्धं ग्लानप्रायोग्यं तदा शय्यातरपिण्डोऽपि प्राह्यः। आगाढतरे पुनः शीघ्रमेव शय्यातरपिण्डो ग्राह्यः । गृहिनिमन्त्रणे शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् तं गृहीत्वा पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः ३। दुर्लमे च क्षीरादिद्रव्ये आचार्यादीनां प्रायोग्ये अन्यत्रालभ्यमाने तत्रैव गृहन्ति ४ । अशिवे दुष्यन्तरोपद्वादिके ५। अवमौदार्ये च दुर्भिक्षेऽन्यत्र भिक्षायामलभ्यमानायाम् ६ । प० राज्ञा प्रद्विष्टेन सर्वत्र भैक्ष्ये निवारिते प्रच्छन् तहेऽपि गृह्यते ७ । अन्यत्र तस्करादिभये ८ तत्रापि खीकुर्वन्ति ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री |
२३
सवेऽपि पैढमजामे, दुण्णि य वसहाण आइमा जामा । तइओ होइ गुरूणं, चउत्थ सवे गुरू सुअई || ३८५ || आलोअणापरिणओ, सम्मं संपङिओ गुरुसगासे । जइ अंतरावि कालं, करिज्ज आराहओ तह वि ॥ ३८६ ॥
[ श्रीउत्तराध्ययनवृत्तावपि ॥ ]
अद्धमसणरस सबं, जणस्स कुज्जा दवरस दो भागो । वायपरिचारणट्ठा, छब्भागं ऊणगं कुजा ॥ ३८७ ॥ सीए दवरस एगो, भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवस्स दुण्णा, तिष्णि वि सेसाओ भत्तस्स || ३८८ || कम्ममसंखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो । अन्नयरंमि वि जोए, सज्झायंमि विसेसेणं ॥ ३८९ ॥
[ श्रीउत्तराध्ययनवृत्तौ २३ अध्ययने १८ द्वारे ॥ ] छट्ठमदसमदुवालसेहिं अबहुस्सुअस्स जा सोही । ततो बहुतरिअगुणा, हवई जिमिअस्स नाणिस्स ।। ३९० ॥
[ श्रीउत्तराध्ययनवृत्तौ ३१ अध्ययने ॥ ] ततादिवाद्वियुक्तेन कर्त्तव्यं नृत्यकोविदैः । चत्वारो मुख्यगातारो, द्विगुणाः समगायनाः ॥ ३९९ ॥ अष्टौ च गायिन्यः प्रोक्ताः २०, तालधारिचतुष्टयम् २४ । मार्दङ्गिकास्तु चत्वारो २८, वांशिकानां चतुष्टयम् ३२ ॥ ३९२ ॥ एवं चोत्तमवृन्दं स्यात् कर्त्तव्यं च सदा बुधैः । मध्यमं स्यात्तदर्द्धन, तदर्द्धन लघु स्मृतम् ॥ ३९३ ॥
[ इति द्वात्रिंशद्विधं नाटकं लौकिकम् ॥ उस भरहो १ अजिए सगरो २ मघवं ३ सणकुमारो य ४ । धन्मस्स य संतिस्स य, जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ॥ ३९४ ॥ संती ५ कुंथू अ ६ अरो ७, अरिहंता चेव चक्कवट्टी अ । अरिमल्ली अंतरे पुण, हवइ सुभूमो ८ अ कोरवो ॥ ३९५ ॥ मुणिसुख नमिम्मि य हुंति दुवे पउमनाह ९ हरिसेण १० । नमिनेमिसु जयनामो ११, अरिट्टपासंतरे बभो १२ ॥ ३९६ ॥ अहेब गया मोक्खं, १ सुभूमो बंभो य २ सत्ता पुढविं । मघवं १ सणकुमारो २, सणकुमारं गया सग्गं ॥ ३९७ ॥ भीमनासो १ महाभीमो २, रुद्रनामा तृतीयकः ३ । महारुद्रश्च ४ कालश्च ५, महाकाल ६ श्रतुर्मुखः ७ । नरवक्त्रः ८ कच्छुलाख्यो ९, नचैते नारदाः स्मृताः ॥ ३९८ ॥ जत्थ न दीसंति गुरू, पञ्चसे उट्ठऊण सुपसंता । तत्थ कहे जाणिजइ, जिणवयणं अमिअसारिच्छं ॥ ३९९ ॥ न हणइ १ न हणावेइ २, हणतं नाणुजाणई ३ । न पयइ ४ न पयावेई ५, पयंत नाणुजाणई ७ ॥ ४०० ॥ न किणइ ७ न किणावेई ८ किणतं नाणुजाणई ९ । जो भिक्खू तस्स तं होई, नवकोडीविसुद्धयं ॥ ४०१ ॥ दर्शनानि षडेवाहु-जैनं १ मीसांसकं २ तथा । बौद्धं ३ नैयायिक ४ वैशेषिकं ५ साय६ मिति क्रमात् ॥ ४०२ ।। पञ्चक्खाण १० मभिग्गह ४, सिक्खा ७ तव १२ पडिम ११ भावणा १२ खित्तं १४ | धम्मो ४ पूया य तहा १७, गिहिउत्तरगुणइगुणनवई ८९ (९१) १ ||४०३ ॥ जो अविओवि संघे, भक्तिं तिथुनई सया कालं । अविरइसम्म हिट्ठी, पभावगो सावगो सोडावे ॥ ४०४ ॥ आउथूिलहिंसाइ-मज्जमंसाइ चायओ । जहण्णो सावओ वुत्तो, जो नमुक्कारधारओ || ४०५ ॥ धम्मजुग्गगुणाइण्णो, छक्कमो बारसावओ । गिहत्थो असयायारो, सावओ होइ मज्झिमो ॥ ४०६ ॥
१- पढम० - जाग्रति गीतार्थः प्रज्ञापनादिसूत्रगुणनेन जाग्रति, तृतीये यामे गुरुः रात्रिं जाग्रति गुरुस्तु शेते, अन्यथा निद्रावशेन व्याख्यानादि कत्तुं न शक्नुवन्ति । २- भत्ते०- अतिशीते १ मध्यमे शीतकाले तु द्वौ पानीयस्य तु त्रयो भागा भक्तस्य २ मध्यम उष्णकाले द्वौ पानस्य न्नयो भक्तस्य ३, अत्युष्णे काले त्रयः पानीयस्य द्वौ भक्तस्य ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
गाथासहस्त्री।
उक्कोसेणं तु सट्टो उ, सचित्ताहारवजओ। एगासणभोई य, बंभयारी तहेव य ।। ४०७ ॥ अह न सकेइ काउं, एगभुभत्तं सया पुणो । दिवसस्स अट्ठमे भागे, तओ भुंजे सुसावओ ॥४०८ ॥ जिणभवणं १ जिणबिंवं २, जिणभत्तो राय ३ जिणमओ मंती४। साइसया आयरिया ५, पंचजोआ जिणमयंमि ॥४०९॥ आवीइ १ ओहि २ अंतिअ ३, बलायमरणं च ४ विसदमरणं च ५॥ अंतोसल्लं६ तब्भव ७, बालं ८ तह पंडिअं ९ मीसं १० ॥ ४१०॥ छ उमस्थमरण ११ केवलि १२ विहाणसं १३ गिद्धपिट्ठमरणं च १४ । मरणं भत्त १५ ( भत्तप्पचक्खाणं), इंगिणि १६. पाओवगमणं च १७ ॥ ४११ ॥ पण्णा १ ऽण्णाण २ परीसह, नाणावरणमि हुँति दो चेव । इको अ अंतराए, अलाभपरीसहो चेव ॥ ४१२ ॥ अरई १ अचेल २ इत्थी ३, निसी हिआ ४ जायणा य ५ अकोसा ६ । सकारपुरकारे ७, चरित्तमोहंमि सत्तेव ।।४१३॥ दंसणमोहे सण-परीसहो निअमया हवइ इको। सेसा परीसहा खलु, इकारस वेअणिज्जमि ।। ४१४ ।। बावीसं बायरसंपराइ चउदस य सुद्धमरागमि । छउमत्थवीअरागे, चउदस इकारस जिणंमि ॥ ४१५ ॥ वीसं उक्कोसपए, वदंति जहण्णओ अइक्कं च । सी-उसिण--चरिअ-निसी हिआ य जुगवं न वटुंति ॥ ४१६ ॥ ईसीपब्माराए, उवरिं खलु जोअणस्स' जो कोसो। कोसस्स य छभाए, सिद्धागोगाहणा भणिआ ॥ ४१७ ॥ तिण्णव धणुसयाई, धणुतित्तीसं च धणुतिभागो अ। इअ एसा उक्कोसा, सिद्धाणोगाणा भणिया॥४१८॥ सिज्झति जत्तिया खलु, इहहिं ववहाररासिमझाओ। इंति अणाइवणस्सइ-मज्झाओ तत्तिआचेव ॥ ४१९॥ चउहा अणंतजीवा, उवरि उवरि अणंतगुणिआओ। अभविअ १ सिद्धा २ भविआ ३, जाईभवा ४ चउत्थाओ॥ ४२०॥ जमालि १ तीसगुत्तो २, आसाढो ३ आसमित्त ४ गंगोअ५। रहगुमित्त ६ गुत्त ७ माहिल ८, अट्टेव य निह्नवा भगिआ ॥४२१ ॥ सेणिअ १ सुपास २ पुट्टिल ३, संखो ४ मयगो ५ उदाइ६ पेढालो ७ । सुलसा ८ रेवइजीयो ९, नव जीवा बद्धमाणस्स ॥४२२॥ गयकुंभि १ संखमझे २, मच्छमुहे ३ वंसि ४ वराहडाढासु ५ । सप्पसिरे ६ तह मेहे ७, सिप्पउरे ८ मुत्तिआ हुंति ॥ ३२३ ॥
जहिं नत्थि सारणा वारणा य पडिचोअणा य गच्छम्मि । सो अ अगच्छो गच्छो मोत्तयो संजमत्थीहिं ।। ४२४॥
[इति स्थानाजवृत्तौ । उववाएण सायं १, नेरइओ देवकम्मुणा वावि । अज्झवसाणनिमित्तं ३, अह्वा कम्माणुभावेणं ।। ४२५ ॥
[इति जीवाभिगमसूत्रे, एवमेव श्रीवसुदेवहिण्डावपि ॥] नेरैइआणुप्पाओ, उक्कोसं पंचजोअणसयाई । दुक्खेणभिहुआणं, वेअणसहसंपगाढाणं ।। ४२६ ॥
[जीवाभिगमवृत्तौ ॥] तेआकम्मगसरीरा, सुहुमसरीरा य जे अपजत्ता । जीवाण मुक्कमेत्ता, वचंति सहस्ससो भे॥४२७||
[जीवाभिगमे ॥] १-मरणं द्वैधा-सविचारम् अविचार च, सहविचारेण चेष्टया वर्तते यत्सविचार, तद्विपरीतमविचारम् , तत्र सविचारं वैधा-भक्तप्रत्याख्यानम् इंगिनीमरणं च । इंगिनीमरणं च विधिना प्रपद्य शुद्धस्थण्डिलस्थ एकाक्येव कृतचतुविधाहारप्रत्याख्यानः स्थण्डिलस्यान्तः छायातः उष्णे उष्णावस्थायां स्वयं संक्रामति, तथा चाह-इंगियमरणविहाणं, आपश्वजंतु
यणं दाउं । संलेहणं च काउं, जहा समाही जहा कालं ॥१॥ पञ्चवत्ति आहारं, चउचिई नियम गुरुसगासे । इंगियदेसंमि तहा, चिटुंपि हु इंगियं कुणइ ॥२॥ इंगितां-तस्कालयोग्यां चेष्टाम् । २-तिण्णेव०-३३३ धनुष, १ हाथ, ८ अॉल सिद्धस्यावगाहनामानं पञ्चशतधनुर्देहमानं यदा त्रिभागोनं क्रियते तदा एतद्भवति विभागमान १६६ धनुष, २ हाथ, अंगुल १६ ३-एतस्या व्याख्याने जघन्यत उत्पातो गव्यूतमात्रम् , एतत्र संप्रदायादवसीयते ॥ .
"Aho Shrut.Gyanam"
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
२५
: यथा लोहं सुवर्णत्वं, प्राप्नोत्यौषधयोगतः । आत्मध्यानात्तथैवात्मा, परमात्मत्वमभुते ॥ ४२८॥
[इति सङ्घाचारवृत्तौ ॥] ". दिसि-पवण-गाम-सूरिय-छायाएँ पमजिऊण तिक्युत्तो । जस्सोग्गहोत्ति काऊणं वोसिरे आयमेज्जा वा ॥ ४२९ ॥
उत्तरपुवा पुजा, जम्माएँ निसिअरा अभिवडंति । घाणाऽरिसा य पवणे, सूरिअगामे अवण्णो उ॥४३०॥
[इति श्रीओपनियुक्तिसूत्रे १२५-पत्रे पवस्तुक सूत्रे २५७ पत्रे ॥] इदानीं 'छायाए'त्ति व्याख्यानयवाहसंसत्तरगहणी पुण छायाए निगयाय वोसिरई। छायाऽसइ उण्हंमि वि, वोसिरिअ मुटुत्तगं चिढे ४३१
[इति श्रीओधनियुक्ति सूत्रे १२५ पत्रे पञ्चवस्तुक सूत्रे २५७ पत्रे ॥] चउविह अणंता जीवा, उवरि उवरि अणंतगुणणाए । अभविअ १ सिद्धा २ भविआ ३, जाई भविआ ४ चउत्था य ।। ४३२ ॥ सिद्धा सिद्धि पत्ता १, सेसा तिण्णेव सयललोगंमि । किंतु अभवा १ जाईभवा २, न कयाइ सिझंति ।। ४३३ ॥
[इति गाथाद्वयं जीवाभिगमे ॥] अवलंबिऊण कज्ज, जं किंचिवि आयरंति गीअत्था। थोवाऽवराहबहुगुण, सवेसिं तं पमाणंति ॥४३४॥
[इति संघाचारहवृत्तौ ३९४ पत्रे ॥] तम्हा सवपयत्तेणं, जो नमुकारधारओ । सावओ सोऽवि दट्टयो, जहा परमबंधवो ॥ ४३५ ॥
[संघाचारवृत्तौ ३७१ पत्रे ॥ ] जो जीवइ परिससयं, दिणे दिणे माणगंमि एगंमि । छप्पन्न हुँति मूडा, चालीसा चेव सेईओ ॥ ४३६ ॥
[उपदेशरसालप्रन्ये ३९४ पत्रे ॥] ताराबलादिन्दु १-रयेन्दुवीर्या-दिवाकरः संक्रममाण उक्तः २। प्रहाश्च सर्वेऽपि बलेन भानो, भवन्त्य ३-शस्ता अपि सुप्रशस्ताः ॥ ४३७ ।।
[रखमालायाम् ॥] बैलक्षपक्षादिगते हिमांशौ, शुभे शुभं पक्षमुदाहरन्ति ।। सितेतरादावशुभे शुभं च २, पक्षावनिष्टौ भवतोऽन्यथा तौ ॥ ४३८ ॥ राशौ राशौ द्वादशेन्दोरवस्थाः, प्रोक्ताः कैश्वित्सूरिभिः प्रोषिताद्याः । यात्राजन्मोद्वाहकालेषु नूनं, सज्ञा तुल्यं तत्फलं चिन्तनीयम् ॥ ४३९ ॥
तासां नामानि
१-'दिसि०'-उत्तरायां पूर्वायां च दिशि पृष्टं न दातव्यं लोकविरोधात् , तथैव पवनग्रामसूर्याणां च पृष्ठं दत्वा न व्युत्सृजनीयं लोकविरोधादेव तथा छायायां प्रमार्जयित्वा "तिक्खुतो' वारत्रयं निर्लेपनं वा पानकेन एवमेव कुर्यात् । रात्री दक्षिणायां दिश उत्तरायां दिशि देवाः प्रयान्ति इति लोके श्रुतिः ॥ २-उत्तरापूर्वा च लोके पूज्या, सूर्यग्रामयोः पृष्टदानेऽवर्णवादः । ३-संसक्तग्रहणे कृमिसंसक्तोदर इत्यर्थः । यदा असौ साधुर्भवेत् तदा वृक्षच्छायायां निर्गतायां व्यत्सृजति । अथ छाया न भवति ततश्च व्युत्सृज्य मुहर्तमानं तिष्ठेत् येन ते कृमयः स्वयमेव परिणमते ॥ ४-अवलम्ब्य-आश्रित्य कार्य यत्किश्चिदाचरन्ति सेवन्ते गीतार्था आगमविदः स्तोकापरावं बहुगुणं मासकल्पविहारवत्सर्वेषां जिनमतानुसारिणां तत्प्रमाणमेव उत्सर्गापवादरूपत्वादागमस्येति गाथार्थः ॥ ४३४ ॥ इति पश्चकवस्तुकवृत्तौ ॥ ५-बलक्ष०-शुक्ल प्रतिपत् । ६-सिते० कृष्णप्रतिपत् । ७-यदि शुकप्रतिपदि चन्द्रोऽशुभस्तदा स पक्षोऽप्यनिष्टः, अथ कृष्णपक्षप्रतिपदि यदि चन्द्रः शुभसादा स पक्षोऽनिष्टः । गाथा.४
"Aho Shrut Gyanam"
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
गाथासहस्री।
प्रेमास १ नष्टाख्य २ मृता ३ जयाख्या ४, हास्यं ५ रति ६ क्रीडित ७ सुप्त ८ भुक्ताः ९। ज्वरालया १० कम्पित ११ सुस्थिते च १२, द्विषसंख्या हिमगोरऽवस्था ॥ ४४० ॥
धीरखमालायाम्सम्मत्तंमि अ लद्धे, पलिअपुहत्तेण सावओ हुन्जा। चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होति ॥४४१॥
[पञ्चाशवृत्तौ।] जम्हा दसणनाणा, संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं । चारित्तजुआ दिती, विसेस एतेण चारित्तं ॥४४२॥
[इति संस्तारकवृत्तौ ॥] सिअकमल १ कलस २ सथिअ ३, नंदावत्त ४ वरमल्ल ५ दामाणं ६ । तेसिपि मंगलाणं, संथारो मंगलं अहि ॥ ४४३ ॥
[इति संस्तारकप्रकीर्णके ५४ पत्रे ॥] जं बद्धमसंखिजाहिं असुहं भवसयसहस्सकोडीहिं । एगसमएण विहणइ, संथारं आरहंतो अ॥४४४॥
[इति संस्तारक प्रकीर्णके गा० १०८ ६० पत्रे ॥] भाव जिणप्पमुहाण वि, सधेसिं जइवि वंदणा तह वि । जिणचेइआणे पुरओ, कीरइ चिइवंदणा तेण ॥ ४४५॥ जिणबिंबाभावे पुण, ठवणागुरुसक्खिया वि कीरंती । चिइवंदणचित्र इमा, तत्थवि परमिटि ठवणाओ॥ ४४६ ।। अहवा जत्थ व तत्थ व, पुरओ परिकप्पिऊण जिणबिम्बं । कीरइ बुहेर्हि एसा, नेआ चिइवंदशा जम्हा ॥ ४४७ ॥
[इति गाथात्रयं वृहरकल्पभाग्योकं श्रीसद्धाचारवृत्तौ १३ पन्ने] उस्सग्गओ नेव सुअं पमाणं, न वाऽपमाणं कुसला वयंति । अंधो य पंगुं वहते स चावि, कहे ति दोण्हं पि हिआय पंथं ॥ ४४८॥
[बृहत्करूपभाष्ये उ० २॥] - पंचण्ह, मोहसण्णा १, हेऊ सन्ना बेंदिआईणं । सुरनारयगम्भुन्भव-जीवाणं कालिगी सण्णा ॥४४९ ॥ छउमत्थाणं सन्ना, सम्मदिट्ठीण होइ सुअणाणं । मइवावारविमुक्का, सण्णारहिआ य केवलिणो ॥ ४५० ॥ जत्तिअतुमित्ता वारा, तु बंधते मुंचते जत्तिआ वारा। जत्ति अक्खर लिहई, तत्ति लहुगा य आवजे ।। ४५१ ।।
[बृहत्कल्पभाष्ये ॥ उ.३]
१-अश्विन्यादीनीन्दुभुक्तानि भानि षष्टि (६०) हृतानि स्वभुक्तनाडीसंयुकं द्विनं नन्द ९ हतं त्रिधा अंशादि त्रिंशद्भागातराश्यादि जायते चेष्टकालकः । उदयादिष्टकालस्तु षड्गुणस्तत्र योजयेत् ॥ २-यदा चन्द्रो मेषराशी स्यात्तदा प्रवासाद्णनीयं, यदा वषराशी तदा मष्टाद्णनीयम् । एवं मिथुनादिराशिषु मृतादिभ्यो गणनीयम् । ३-सावल्या हि कर्मस्थितेः सम्यक्त्वं लभते तस्याः पल्योपमपृथक्त्वे क्षीणे देशविरतः श्रावको भवेत् ततः संख्यातेयु सागरेषु क्षीणेषु सर्वविरतिचरणं लभ्यते ।। ४-चनु भावाईदादीनामप्यत्र वन्दना क्रियते तत्कथं चैत्यवन्दना ? इत्युच्यते-सत्यं प्रायेणाऽस्याश्चैत्याने करणात् तथा च बृहदाय तथाहि भावेति । ५-'ठवणा जिणाण' इति पाठान्तरम् । ६-उत्सर्गतः-सामान्येन श्रुतं सूत्रं नैव प्रमाणं न वा अप्रमाणं किन्तु पूर्वापराऽविरुद्धवृद्धसंप्रदायागतेन अर्थेन युक्त प्रमाणम्, अन्यथा पुनरप्रमाणमित्येवं कुशलाः-तीर्थकरगणधरा बदन्ति, तथाहि-यथा किल कश्चिदन्धो देशान्तरं गन्तुमनाः स्वयं मार्गमपश्यन पंगुं गन्तुमशक्तं चक्षुष्मत्तया स्कन्धे निवेश्य वहति, स चापि पहुयोरपि आत्मनस्तस्य हिताय गर्ताप्रपाताधुपद्रवरक्षणाय पन्थान-मार्गम् तं कथयति एवं परमार्थेनाऽप्रबोधितं यदन्धस्थानीय सूत्रं, तद यदा पङ्गुस्थानीयमर्थमात्मन उपरि कृतं वहति तदा सोऽप्यर्थः सूत्रनिश्रया गच्छन् सम्यरिवषयविभागदर्शितया निष्प्रयपाय मुकिमार्गमुपदिशतीव्यतः अर्थसव्यपेक्षमेव सूत्रं प्रमाणामिति ॥
"Aho Shrut.Gyanam"
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री। वित्ती उ सुवण्णस्स, बारस अद्धं च सयसहस्साई । तावइ चिअ कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं ॥ ४५२ ॥ एतं चेव पमाणं, नवरं रययं तु केसवा दिति। मंडलिआण सहस्सा, वित्ती पीई सयसहस्सा ॥ ४५३ ॥ भत्तिविभवाणुरूवं, अन्ने वि अदिति इन्भमाईआ। सोऊण जिणागमणं, निउत्तमनिओइएसुं वा ॥ ४५४ ॥
[श्रीबृहत्कल्पभाष्ये गा० १२०७-९३७१ पत्रे.] इक्केण सुद्ध अच्छं,-विलेण इअरेहिं दोहिं उववासो । नवकारसहिअएहिं, पणयालीसेहिं उववासो ॥ ४५५ ॥
[योगविधौ ॥] गच्छमि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे । गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सड्डी ॥४५६॥ किं कारणं चमढणा, दवरूखओ उम्गमो वि य न सुज्झे। गच्छंमि नियय कजं, आयरिय १ गिलाण २ पाहुणए ३ ॥ ४५७ ॥
[श्रीबृहत्करूप भाष्ये गा० १५८३-४ ॥] रयणियर १ दिणयराणं २, नक्खसाणं ३ महाग्गहाणं च ४ । चारविसेसेण भवे, सुहदुक्खविही मणुस्साणं ॥ ४५८ ॥
.[जीवाभिगमसूत्रे ३३४ पन्ने वृतौ च सूरप्रज्ञसौ २-३ प्रामृते च ॥] पैडिणीअ १ तेण २ सावय ३, उन्मामग ४ गोण ५ साण ६ अणप्पज्झे ७ । सीअं च दुरधिआसं ८, दीहा ९ पक्खीव १० सागरिए ११ ॥४५९ ॥ अहि १ सावय २ पञ्चस्थिसु ३, गुरुगा सेसेसु दुति चउलहुगा । तेणे गुरुगा, लहुगा आणाइ विराहणा दुविहा ॥ ४६० ॥
[बृहरकल्पभाष्यवृत्ती गा० २३५८-६० ६६८ पत्रे ॥] दंडकवाडे मंथंतरे अ संहरणया सरीरत्थे । भासाजोगनिरोहे, सेलेसी सिझणा चेव ॥ ४६१ ॥
[विचारमन्थे ।] कारणसंविग्गाणं, आहारादीहिं तप्पए जो उ । नीआवित्तणुतप्पी, तप्पक्खि वण्णवाई अ॥४६२॥
[व्यवहारभाष्ये उद्देशके ॥]
१-'अइसेसी'ति, अतिशेषाणि स्निग्धमधुरदव्याणि यत्र प्राप्यन्ते तानि कुलानि अतिशायीनि 'सहि'त्ति दानश्रद्धाधन्ति एवंविधानि कुलानि स्थापयेत् आचार्यः। २-किमित्याह-'किं कारण मित्यादि । कुलस्थापना क्रियते स्थापनाकुलेषु एक गीतार्थसंघाटकं मुक्त्वा येनान्ये साधवो न प्रविशन्ति ॥ ४-आह-किं तत्कारणं येन द्वारं पिधीयते ? उच्यते-'पडिणीयेत्यादि, उद्घाटिते द्वारे प्रत्यनीकः प्रविश्य हननमपद्रावणं वा कुर्यात् १, स्तेनाः-शरीरस्तेना उपाधिस्तेना वा प्रविशेयुः २, एवं श्वापदाः सिंहव्याघ्रादयः ३, उद्रामका:-पारदारिकाः ४, गौर्बलीवर्दः ५, श्वा-प्रतीतः ६, एते वा प्रविशेयुः। 'अणप्पज्झेति,'-अनात्मवशः-क्षिप्तचित्तादिः स द्वारेऽपिहिते सति निर्गच्छेत् ७, शीतंवा दुरविसहं हिमकणानुषक्तं निपतेत् ८, दीर्घा वा-सर्पाः ९, पक्षिणो वा काककपोतप्रभूतयः विशेयुः १०, सागारिको वा कश्चित्प्रतिश्रयमुद्घाटितद्वारं दृष्ट्वा तत्र प्रविश्य शयीत वा विश्राम वा गृहीयात् ११! ४-अहि० अहिषु १ श्वापदेषु २ प्रत्यर्थिषु ३ वा प्रत्यनीकेषु प्रत्येकं चत्वारो गुरुगाः, शेषेषु उद्धामकादिषु सागारिकान्तेषु चतुर्लघुकाः, स्तेनेषु गुरुका लघुकाश्च भवन्ति, तत्र शरीरतेनेषु चतुर्गुरुकाः उपधिस्सेनेषु चतुर्लधुकाः । आज्ञादयश्च दोषाः । विराधनाश्च संयम विराधना-आत्मविराधना द्विविधा तत्र संयमविराधना-स्तेनैरुपधावपहते। तृणग्रहणमग्निसेवनं वा कुर्वन्ति, सागारिकादयो वा तप्ताऽयोगोलकल्पाः प्रविष्टाः सन्तो निषदनं शयनादि कुर्वाणा बहुना प्राणातीयानामुपमर्दनं कुर्युः, आत्मविराधना तु प्रत्यनीकादिभिः परिस्फुटैव ॥ ५-कारण कारणेषु-अशिवाऽवमौदर्यादिषु सुसंविमानां सुसंयतानामाहारादिभिस्ततिः प्रत्यर्पणं कृतवान् , तथा यः संविमानां नीचैवृत्तिवर्तनं यस्य स तथा, किमुकं भवति ? स तान् वन्दते न पुनर्दापयति तथा अकल्पं किमपि प्रतिसेव्य अनु-पश्चात् 'हा दुष्टुं कृतं हा दुष्टं कारित'मित्यादिरूपेण तपति सन्तापमनुभवतीत्येवंशीलोऽनुतापी, तथा तेषां संविग्नानां पक्षस्तत्पक्षः, तत्र भवस्तत्याक्षिकः सुसं
"Aho Shrut Gyanam
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री |
विवाणुसारओ पुण, सड्डेणं संजयाण दायचं । गुणविरहिआणमुचिअं, सगुणाण पुणो सुभतीए ॥ ४६३ ॥
२८
[ जीवानुशासनस्त्रे ६ अधिकारे २७ पत्रे ॥ ] तित्थाइसेस संजय १, देवी वेमाणियाण २ समणीओ ३ । भवणवइवाणमंतर २, जोइसियाणं च देवीओ ॥ ४६४ || भवणवई १ जोइसिया २, बोधवा वाणमंतरसुरा य ३ । वेमाणिआ य १ मणुया २, पयाहिणं जं च निस्साए ॥ ४६५ ॥ केवलिनो तिउण जिणं, तित्थपणामं च भग्गओ तरस | मणमाईवि णमंता, वयंति सद्वाण सद्वाणं ॥ ४६६ ॥ इतं महड्डिअं पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । नवि जंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं ॥ ४६७ ॥ विरओ जो पुण जाणं, कुणति १ अजाणं च अप्पमत्तो व २ । तत्थवि अज्झत्थसमा, संजायइ निजरा न चओ || ४६८ ॥ अस्सायमा आओ, जावि अ असुहा हवंति पगडीओ | निंबरससलवोव पए, न होंति ता असुहया तस्स ॥ ४६९ ॥
[ इदं (४६४ - ४६९) गाथाषकं श्रीबृहत्कल्पभाष्ये आवश्यक नियुक्ति वृत्तौख २३२ पत्रे ॥ ] इr वीसं बावन्नं च जिणहरे गिरिसिरेसु संधुणिमो । इंदाणरायहाणिसु, बत्तीसं सोलसयं वंदे ॥४७० ॥ [ नन्दीश्वरस्तोत्रे ॥ ] चत्वारोऽञ्जनशैलगा दधिमुखोत्तंसश्रियः षोडश, द्वात्रिंशथ निदेशतो रतिकरेष्वेवं द्विपञ्चाशतम् । इन्द्राणां वरराजधान्युपगता द्वात्रिंशतोऽमूचतुर्युक्ताशीतिमहं जिनेन्द्र निलयान् वन्दे सु नन्दीश्वरे ॥ ४७१ ॥ [ नन्दीश्वरस्तोत्रवृत्तौ ॥ 1
एगारस अंगाई, कालिअसुत्तं [ वयंति ] भांति तत्तन्नू । दिट्ठीवाओ सबो, न होइ कालियसुअं निअमा || ४७२ ॥ कालिअसुअस्स कालो, भणिअं अज्झयणगुणणविसयाई । विवसस्स पढमपच्छिम-जामा एवं तिजामाए ।। ४७३ ॥
[ इदं गाधाद्वयं यतिदिनचर्यायां ८४ पृ० ॥ ] एसा जिणाण आणा, खिंचाईआ य कम्मुणो भणिआ । उदयाकारणं जं, तम्हा सबत्थ जइअवं ॥ ४७४ ॥
[ श्रीसूर्यप्रशतिसूत्रे पञ्चवस्तुके जीवाभिगमवृत्तौ ३३९ पत्रे च ॥ ] प्रभावं १ ब्रह्महत्या च २, दरिद्रस्य च यद्धनम् ३ । गुरुपत्नी ४ देवद्रव्यं ५, स्वर्गस्थमपि पातयेत् ॥ ४७५ ॥
[ इति श्राद्धविधी ७७ पत्रे ॥ ]
विनपाक्षिक इत्यर्थः, तथा वर्णवादी श्लाघाकारी विहितानाम् । ततः किम् ? इत्याह - "पावस्स उवचियस्स वि पडिसाडणे" -त्यादि, एवममुना प्रकारेण संविझतर्पणादिना अद्यापि पार्श्वस्थेन सतोपनीतं तथापि तस्य पापस्य परिशातनभाव करोति, इत्यादि व्यवहारभाष्यवृत्तौ ३ उद्देशके ॥ १- विहवा० विभवानुसारतो निज द्रव्यौचित्येन पुनः श्राद्धेन श्रावकेन संयतेभ्यः साधुभ्यो दातव्यं देयं किमविशेषेण ? इत्याह-गुणविरहितानां ज्ञानादिगुणशून्यानामुचितं योग्यं, सगुणानां पुनर्विशिष्टज्ञानादिवतां सुभक्त्या आन्तरप्रीत्येति गाथार्थः ॥ २- खित्ता० शुभक्षेत्रे शुभा दिशमभिमुखीकृत्य शुभतिथिनक्षत्रमुहूर्त्तादौ प्रत्राजन तारोपणादि कर्त्तव्यं नान्यथा । अपि च क्षेत्रादयोऽपि कर्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिरुक्ताः, ततोऽशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीं प्राप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वा उदयामासादयेयुः, तदुदये व गृहीतव्रतभङ्गादिदोषप्रसङ्गः । शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामभ्यां तु प्रायो नाशुभकर्मविपाकसंभव इति निर्विघ्नं सामायिकादिपालनं नियमादवश्यं छद्मस्थेन सर्व्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यम् ॥ इति श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तौ ॥ ३ साधारणद्रव्यम् - इत्यर्थः ॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री। आयरिए गच्छमि अ, कुलगणसंघे अ चेइअविणासे । आलोइअपडिकतो, सुद्धो नं निजरा विउला ॥ ४७६॥
[श्रीबृहस्कल्पभाष्ये ३ खण्डे गा० २९६३-८३० पत्रे ॥] मुल्लं विणा जिणाणं, उवगरणं चमरछत्तकलसाई । जो वावरेइ मूढो, निअफजे सो हवइ दुहिओ ॥४७७ ॥ नीअगो खवे कम्म, उच्चगो निबंधई [ए] | सिढिलं कम्मगंठिं तु, वंदणेणं नरो करे ।। ४७८ ॥
[इदं गाथाद्वयं श्रीरखशेखरसूरिकृते श्राद्धविधिप्रकरणे ७९ पत्रे ॥] गुरुवंदणमवि तिविहं, तं फिट्टा १ छोभ २ बारसावत्तं ३ । सिरिनमणाइसु पढमं १, पुण्णखमासमणदुगि बीअं ॥ ४७९ ॥ तइअं तु वंदणदुगे ३, नमिहो आइमं सयलसंधे । बीअं तु दसणेण य, पयहिआणं च तइअंतु ॥ ४८०॥
इदं गाथाद्वयं भाष्यसरकं श्राद्धविधिप्रकरणे ॥] अविसहणाऽतुरिअगई, अणाणुवत्ती अ अवि गुरूणपि । खणमित्तपीइरोसा, गिहिवच्छलया य संचइआ ॥ ४८१ ।।
बृहकल्पभाष्ये संपाइमरयरेणू, पमजणट्ठा वयंति मुहपोत्तिं । नासं मुहं च बंधइ, तीए वसहिं पमजतो ॥४८२।।
[इति पूजापञ्चाशके ॥] आययणं निस्सकडं, पक्षविहीसुं च कारणे गमणं । इअराभावे तस्सत्ति भावबुद्धृित्यमोसरणं ॥४८३।। पूरिति समोसरणं, अनासइ निस्सचेइएसुं पि । इहरा लोगविरुद्धं, सद्धाभगो असहाणं ॥ ४८४ ॥ .,
[ इति चैत्यवन्दनकुलकवृत्तौ ४९ पत्रे ॥ तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिझियावे य धुवम्मि । अणिगूहिअबलविरिओ, सवत्थामेण उज्जमई ॥ ४८५॥
[इति तपागच्छीयश्रीरतशेखरसूरिकृते श्रीआचारप्रदीपे ॥] पाणीहि उ संसत्ता, पडिलेहा होइ केवलीणं तु । संसत्तमसंसत्ता, छउमत्थाणं तु पडिलेहा ।।४८६।। 'संसज्जइ धुवमेयं, अपेहि तेण पुश्व पडिलेहा । पडिलेहिमि संसजइत्ति संसत्तमेव जिणा ।।४८७॥
[श्रीओधनियुक्तौ १.५पत्रे
१-आयरिए० आचार्यस्य वा गच्छस्य वा कुलस्य वा चैत्यस्य वा विनाशे उपस्थिते सति सहसयोधिप्रमृतिना खवीर्यमहापयता तथा पराक्रमणीयं यथा तेषामाचार्यादीनां विनाशो नोपजायते, सच तथा पराक्रममाणो यद्यपराधमापनस्तथापि आलोचितप्रतिक्रमतः शुद्धः गुरुसमक्षमालोच्य मिथ्यादुष्कृतदानमात्रेणेवासौ शुद्धः इति भावः, कुतः ? इत्याह-यद्यस्मात्कारणाद्विपुला महती निर्जरा कर्मक्षयलक्षणा तस्य भवति पुष्टालम्बनमवलम्च्य भगवदाज्ञया प्रवर्त्तमानत्वादिति ॥ २-मुलं० देवसत्कं व झालरीमेयोदि गुरूणामपि सङ्घस्यापि वाऽग्रे न वाद्यम् । केचित्त्वाहः-पुष्टालम्बने यदि देवझल्लयो व्यापार्यते तदा पूर्व बहुनिष्कयो देवस्य मोच्यो यतः-'मुल्ल'मित्यादि । ३-अविसहणा. सर्वसाधूनामवर्णवादमाह-अहो अमी साधवोऽविषहणा न कस्यापि पराभवं सहन्ते अपि तु खपक्षपरपक्षापमाने संजाते सति देशान्तरं गच्छन्ति । तुरियगई'त्ति अकारप्रश्लेषादत्वरितगतयः मायया लोकावर्जनाय मन्दामिनः अननुवर्तिनः प्रकृत्यैव निष्ठुराः गुरूणामपि महतामपि आस्तां सामान्यलोकस्य इत्यपिशब्दार्थः । द्वितीयोऽपि शब्दः संभावनायां, संभाव्यन्ते एवंविधा अपि साधव इति क्षणमात्रप्रीतिरोषाः तदैव रुष्टास्सदैव च तुष्टा अनवस्थितचित्ता इत्यर्थः, गृहिवत्सलास्तैस्तैश्चाटुवचनैरात्मानं गृहस्थस्य रोचयन्ति अतिसंचयितः सुबहुवस्त्रकम्बल्यादिसंग्रहशीला लोभ बहुला इति भावः । इति बृहद्भाष्यवृत्तौ॥ ४-अनयोईत्तिस्तत्र-केवलिनः प्रत्युपेक्षणां प्रतिपादयन्नाह'आययण'मित्यादि। ५-'पाणीहि प्राणिभिः संसकं यद्रव्यं तद्विषया प्रत्युपेक्षणा भवति केवलिनां । संसक्तद्रव्यविषया. १ असंसकद्रव्यविषया २ च छद्मस्थानां प्रत्युपेक्षणा भवति। ६-अन्येन वा कारणेन केवलिनः प्रत्युपेक्षां कुर्वन्तीति. दर्शयन्नाह-संसिबइ-' संसज्यते प्राणिभिः सह संसर्गमुपयाति ध्रुवम्'-अवश्यमेतद् वस्त्रादि अप्रत्युपेक्षितं सत् तेन पूर्वमेव,
"Aho Shrut Gyanam"
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री ।
।
भुंजइ अणंतरेणं, दुन्नि उ वेलाउ जो निओगेणं । सो पावे उववासा, अट्ठावीस तु मासेणं ॥ ४८८॥ दस वरससहरसाउँ, भुंजइ जो अण्णदेवयाभत्तो । पलिओवमेकोडी पुण, होइ ठिई जिणवरतवेणं ॥ ४८९ ॥ [ इदं गाथाद्वयं श्रीपद्मचरित्रे श्राद्धविधिकौमुद्यां श्रीरखशेखरसूरिणाऽपि उक्तं तथा ॥ ] संघाडगस्स गुच्छो, अणेगजीवो उ होइ नायो । पत्ता पत्ते अजीआ, दुभि अ जीवा फले भणिआ ।। ४९० ॥
[ श्रीप्रज्ञापनायां प्रथमे पदे, वनस्पतिसप्ततिकायां च ॥ ] म १ मक्खण २ संघाडग ३ गोरसजं बिदल ४ जाणिअमणतं ५ । अण्णायफल ६ वयंगण ७, पंचुंबरिमवि ८ न भुंजंति ॥ ४९१ ॥
[ श्रीजिनवल्लभसूरिकृतभ्राढकुलके श्रावकाणामभक्ष्यनियमाधिकारे श्रीचन्द्राचार्यकृतयोगविधावपि ] जं नाम १ दंसण २ चरित ३ भावओ विक्खभावाओ । भवभावओ य तारेइ, तेण तं भावओ तित्थं ॥ ४९२ ॥ द होवसमादिसु वा, जं तिसु थिय महवदंसणाईसुं । तो तित्थं संघो शिअ, उभयं च विसेसणविसेसं ॥। ४९३ || अहवा सम्मदंसण-नाणचरित्ताइं तिन्नि जस्सऽत्था । तं तित्थं कोविमिदमत्थो वत्थुपज्जाओ ।। ४९४ ॥
[ इदं गाथात्रयं श्रीस्थानाङ्गटीकायां प्रथमाध्ययने ३३ पत्रे ॥ ] सामसेस्सि होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अखविअमिच्छो लहइ सम्मं ॥ ४९५ ।। खीणंमि उदिष्णंमि, अणुदिते असेस मिच्छन्ते । अंतोमुहुत्तकालं उबसमसम्मं लहर जीवो ॥। ४९६ ॥
[ इति श्रीस्थानावृत्ती २ स्थाने ४८ पत्रे ] संप्पो संरंभ १ परिताव करो भवे समारंभो । आरंभो उहवओ ३, सुद्धनयाणं तु सबेसिं ॥४९७॥ [ स्थानाङ्गे ३ स्थाने १ उद्देशके वृत्तौ १०८ पत्रे ॥ सुअनाणम्मि अभत्ती १ लोगविरुद्धं २ पमत्तछलणा य ३ । विज्जासाहण वेगुण्ण ४ धम्मया ५ एव मा कुणसु ॥ ४९८ ॥
[ स्थानाङ्गवृत्तौ ४ स्थाने र उद्देशके २१४ पत्रे ॥ ]
२
जिना:- केवलिनः प्रत्युपेक्षणां कुर्वन्ति, यदा तत् पुनरेवं संविद्यते इदमिदानीं वस्त्रादिकं प्रत्युपेक्षितमपि उपभोगकाले संसज्यते तथा संसकमेव जिना:- केवलिनः प्रत्युपेक्षन्ते न स्वनागतमेव पलिमन्यदोषादिति ॥ १- भुंजइ० भोजनताम्बूलजलब्यापरमदी हि प्रत्यहं प्रत्यहं घटीद्वय घटीद्वय संभवे मासे एकोनत्रिंशद्धटीचतुष्टयं भवेत्, अष्टाविंशतिरुपवासाः, यदुक्तं पद्मखरित्रे - 'भुंजइ०' इत्यादि गाथाद्वयम् । २-भावतीर्थ सङ्घीयतो ज्ञानादिभावेन तद्विपक्षादज्ञानादितो १ भवा
२ भावभूतात्तारयतीत्याह- 'जंनाण०' इत्यादि । ३- त्रिषु वा क्रोधामिदाहोपशम १ लोभतृष्णानिरास २ कर्ममलापनय ३ लक्षणेषु ज्ञानादिलक्षणेषु वा अर्थेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम्, आह- 'दाहोव० ४- त्रयो ज्ञानादयोऽथ वस्तूनि यस्य तद् अर्थम्, आह च 'सम्भ०' इत्यादि ५- इहोपशमिक श्रेणिमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादोपशमिकं भवति १ यो वा अनादिमिथ्यादृष्टिरकृत त्रिपुजक एवाक्षीणमिथ्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं भवतीतिः ॥ आरम्भः पृथिव्याद्युपमर्दनम् १ संरम्भः पृथिव्यादिविषये एव मनः संक्लेशः २, समारम्भस्तेषामेव सन्तापः ३ अथवा कृतत्रिपञ्चकः ॥ अरिहन्त १ सिद्ध २ चेहय ३ सुए य ४ धम्मे य ५ साहुवग्गेय ६ आयरिय ७ उवज्झाए, ८ पer ९ दंसणे विणओ ॥ १ ॥ इति दशविधो विनयः २ । वायण १ पुच्छणा २ चेव, तहेव परियहणा रे अणुपेहा ४ धम्मका ५, सज्झाओ पंचहा भवे ॥ २ ॥ इति पञ्चविधः खाध्यायः २ । ऊणोदरियं पणा, समासेण वियाहियं दव्वओ १ खित्त २ कालेणं ३ भावेणं ४ पज्जवेहि ५ य ॥ ३ ॥ इति ऊनोदरीय प्रकारः ६ । उत्तरा० । अकाले स्वाध्यायकरणे एतानि दूषणानि 'सुअनाणे 'त्यादि -
"Aho Shrut Gyanam"
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री। खण्डिते १ संधिते २ छिन्ने, ३ रक्ते ४ रौद्रे च ५ वाससि । दानं १ पूजा २ होमं ३, स्वाध्यायो ४ विफलं भवेत् ॥ ४९९ ॥
[श्री उमास्वातिषाचकविनिर्मितपूजाप्रकरणे १६ गाथा ॥] आलोयण १ पडिकमणे २, मीस ३ विवेगे ४ तहा विउस्सग्गो ५। तव ६ छेअ ७ मूल ८ अणवट्ठिया अ ९ पारंचिए १० चेव ॥ ५०० ।।
[इति दशविधयायश्रितः॥] पडिकमणे १ सज्झाए २, काउस्सग्गा ३ वराह ४ पाहुणए ५ । आलोअण ६ संवरणे ७, उत्तमहे अ ८ वंदणयं ९ ॥ ५०१ ॥
[हेतुगमें श्रीआवश्यकलियुक्तौ च ॥] जाहेवि तह न तरे, ताहे निविद्वेग पाउणे खोमे । तेण वि असंथरं तो, दो खोमि पाउणे ताहे ॥५०२॥
[तहावि असंघरं तो तइ ओणि पाउणेहति ॥1
श्रिीमोधनियुको भाष्ये, एवं सन्देहदोलावलीसूत्रेऽपि ६९ पन्ने । तथाहि ] उस्सग्गनयेणं सावगस्स परिहाणसाडगादवरं । कप्पइ पाउरणाई, न सेसमववायओ सिनि ॥ ५०३ ॥ एवं कयसामइआवि साविगा पढमनयमएणेह । कडिसाडग १ कंचुय २ मुत्तरिज ३ वस्थाणि धारेइ ।। ५०४॥
[सन्देहदोकावल्यां गा० ४६-४७ ६८-६९ पत्रे, पुनस्तत्रैव गा...] थीअपएणं तिण्हुवरि, तिहिं उ पत्थेहिं पाउअंगी उ । सामाइअवयं पालइ, तिपयं परिहरइ पडिकैमणे ॥ ५०५ ॥ जो पुण सिलिआइविणा, मुहसुद्धिमित्थ काउमसमत्थो । सो कडुअकसायरसं, सिलिअं गिण्हइ न से भंगो ।। ५०६ ॥ जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥५.७॥
[श्रीसमवायाङ्गसूत्रे वृहत्कल्पभाष्ये मा० ११७० पञ्चवस्तुक सूत्रे २३२ पत्रे ॥] ओसरणे १ जिणभवणे २, उच्छुचणे ३ खीररुक्खवणखंडे ४ । गंभीरसाणुणाए, एमाइपसरमा खित्तमि ॥ ५०८ ॥
[पञ्चवस्तुसूत्रे गा० १०९॥] सो हु तवो कायबो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेई । जेण न इंदिअहाणी, जेण य जोगा न हायति ॥ ५०९ ।।
१-जाहे. श्रावकः सामायिकस्थ उत्कृष्ट : अप्रावरण एव तिष्टति तदानीं तस्य यतीभूतत्वात् । अपवादस्तु को तदाह शीतादिकारणमाश्रित्य त्रीणि उत्तरीयाणि प्रावरीतुं कल्पन्ते नाधिकानि, तान्यपि कालप्रतिलेखितानि यतिवृत्तित्वात्, यतीनां च शीताद्यपवादे कल्पत्रयस्य क्रमेण प्रावरणमुक्तम् 'ओघ.' यत एव प्रावरणपरिभोगः अपचादिकोऽत एवासौ परिधानादन्यदर्ता शीतदंशमशकादिकारणतः प्रतिसे वितुकाम एव सामायिकग्रहणक्षणे प्रावरणं संदेशयति नान्यथा यथा उष्णकालादौ ।। २-कृत. सामायिकश्राविकाया वरमुत्सर्गतः, अपवादे तु षट्क पर प्रतिक्रमणे आपवादिकवस्त्रत्रयं परिहरति ।। ३-"जं अनाणी.' यदशानी कर्म क्षपयत्यसंवेगादीभिर्वर्षकोटी मिस्सत् ज्ञानी तिसृभिर्गुप्तः सन् गुप्तिभिः क्षपयत्युच्छासमानेणेति गाथार्थः ॥५०७६ पञ्चवस्तुकवृत्तौ श्रीहरिभद्रसूरिकृतायाम्। ५-कस्मिन् क्षेत्रादी प्रव्रज्या दातव्या? इत्येतदाह 'मोसरणे.' समवसरणे भगवदध्यासिते क्षेत्रे वृत्ते तद्भावो वा १ जिनभवने अर्हदायतने २ 'इक्षुवने' प्रतीते ३ क्षीरवृक्षषनखण्ट अश्वत्थादि वृक्षसमूहे ४ गम्भीरसानुनादे महाभोगप्रतिशब्दयति ५ एवमादौ प्रशस्तक्षेत्रे, आदिशब्दात् प्रदक्षिणावर्त्तजलपरिप्रह इति गाथार्थः ॥ ५०८॥ ६ -'सो हु- तद्धितपः कर्तव्यमशनादि येन मनोमङ्गलम् असुन्दरं न चिन्तयति शुभाध्यवसायिनिमित्तत्वात् कर्मक्षयस्य तथा येन नेन्द्रियहानिस्तद्भावे प्रत्युपेक्षणाद्यभावात् येन नव योगा चक्रवालसमाचार्यन्तर्गता व्यापारा न हीयते इति गाथार्थः ॥ ५०९॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
: गाथा सहस्री |
न व किंचि अणुनायं, पडिसिद्धं वादि जिणवरिंदेहिं । तित्थगराणं आणा, कज्जे सवेण होअवं ॥ ५१० ।।
[ श्रीपञ्चवस्तुकसूत्रे २५१ पत्रे ॥ ] जो हुन उ असमत्थो १, बालो २ वुड्डो व ३ रोगिओ वावि । सो आवस्तयजुत्तो, अच्छिज्जा निज्जरापेही ॥ ५११ ॥
।
सम्मत्तंमि उ लद्धे, पलिअपुहुत्तेण सावगो हुजा [होइ ] । चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होई ॥। ५१२ ॥
[पंचवस्तुकसूत्रे २५८-२७५ पत्रे प्रवचनसारोद्धारेऽपि ॥ ] जे दंसणवावना, लिंगम्गहणं करिंति सामण्णे । तेर्सि पि अ उववाओ, उक्कोसो जाव गेविज्जे ॥५१३ ॥ [पञ्चवस्तुकसूत्रे २८० पत्रे ॥ ] afga भुंजइ १ छक्कायपमद्दणो २ घरं कुणइ ३ । पश्चक्खं च जलाए, जो पियइ ४ कहण्णु सो साहू || ५१४ ॥
[ पञ्चवस्तुकसूत्रे १२०२ गाथा २८६ पत्रे ॥ ] सुखइ य वयररिसिणा, कारवर्णपि हु अणुट्टिअमिमरस । वायगगंथेसु तहा, एअगया देसणा चैव ॥ ५१५ ॥
[ वस्तुकसूत्रे गाथा १२२७२८७ पत्रे ।। ] अगुणविप्पमुको, जो देइ गणं पवत्तिणिपयं वा । जोऽवि पढिच्छर नवरं, सो पावइ आणमाईणि ॥ ५१६ ॥
वूढो गणहरसदो, गोअमपमुद्देहिं पुरिससीहेहिं । जो तं ठवइ अपत्ते, जाणंतो सो महापावो ॥ ५१७ ॥ कालोचिअगुणरहिओ, जो अ ठवावेइ तह निविद्वेपि । जो अणुपालइ सम्मं, विसुद्धभावो ससती ॥ ५९८ ॥ एव पवत्तिणिसदो, जो बूढो अज्जचंदणाईहिं । जो तं ठबइ अपत्ते, जाणतो सो महापावो ॥ ५१९ ॥
।
[ पञ्चवस्तुकसूत्रे गा० १३१८ तः गा० १३२१२९० पत्रे ॥ ] आवरिस १ णिसीहि २ मिच्छा ३, पुच्छण ४ मुबसंपयंमि गिहिएस ५ | अण्णा सामायारी, न होइ से सेसिआ पंच ॥ ५२० || आवस्सिअं १ निसीहिअ २ मोतुं उवसंपयं च गिहिए ३ | सेसा सामायारी, न होइ जिणकप्पिए सन्त ।। ५२१ ॥
[पत्र० गा० १४२३-१४२४२९४ पत्रे ॥ ] आयारवत्थु तइअं, जहण्णयं होइ नवमपुवस्स । तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिण्णाई ॥ ५२२ ॥ पैढमिलयसंघयणा, घिईऍ पुण वज्जकुडुसामाणा । परिवज्र्जति इमं खलु कप्पं सेसाओ ण उ कयाइ ।। ५२३ ॥
[पञ्चवस्तुकसूत्रे गाथा १४२९ - १४३० २९४ पत्रे ॥ ]
१- नैव किञ्चिदनुज्ञातम् एकान्तेन प्रतिषिद्धं वापि जिनवरेन्द्रैर्भगवद्भिः किन्तु तीर्थङ्कराणामा ज्ञेयम् यदुत कार्ये सत्येन भवितव्यं न मातृस्थानतो यत्किंचिदवलम्बनीयमिति गाथार्थः ॥ ५१० ॥ २- संहननद्वारमाश्रित्याह - 'पढ०' प्रथमेल्लकसंहननाः= ऋषभनाराचसंहनना इत्यर्थः । धृत्या पुनर्वज्रकुड्यसमानाः प्रधानवृत्तय इति भावः, प्रतिपद्यन्ते एनं खलु कल्पमधिकृतं जिनकल्पं, शेषा न तु कदाचित्तदन्य संहनिन इति गाथार्थः ॥ ५२३ ॥ पचवस्तुकवृत्ती |
"Aho Shrut Gyanam"
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
मासं निवसइ खित्ते, छवीहीओ अ कुणइ तत्थवि अ । एगेगमडइ कम्माइवजणत्थं पइदिणं तु ॥५२४॥ (पं. गा. १४५८)॥ एंगाए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्त जणा। अवरोप्परसंभासं, वर्जिता कहवि जोएणं ॥५२५॥ (पं. गा. १४७८) । वीहीए एक्काए, एको चिअ पइदिणं अडइ एसो । अण्णे भणंति भयणा, सा य ण जुत्तिक्खमा णेआ॥ ५२६ ॥ (पं. गा. १४७९)॥ विसंघाइ १ रसायण २ मंगलत्थ ३ विणए ४ पयाहिणावत्ते ५। गुरुए ६ अडज्झ ७ ऽकुत्थे ८, अट्ठ सुवण्णे गुणा हुंति ॥५२७॥ (पं. गा. ११९२)॥ इअ मोहविसं घायइ १, सिवोवएसा रसायणं होइ २ । गुणओ अ मंगलत्थं ३ कुणइ ४ विणीओ ५ अ जोगत्ति ॥५२८॥ (पं. गा. ११९३)॥ मंगाणुसारि पयाहिण ७, गंभीरो गुरुअओ तहा होइ । कोहग्गिणा अडझो, अकुत्थ सइ सीलभावेणं ॥ ५२९ ॥ (पं. गा. ११९४)॥जिणा बारसरूवाणि, थेरा चोहसरूविणो । अजाणं पणवीसंतु, अओ उर्दू उवगहो ॥५३०॥ (पं. गा. ७७१) ।। पत्तं १ पत्ताबंधो २, पायढवणं च ३ पायकेसरिया ४ पडलाइँ ५ रयत्ताणं ६, गोच्छओ ७ पायनिजोगो च ॥५३॥ (पं.गा. ७७२)। तिण्णेव य पच्छागा ३, रयहरणं चेव होइ मुहपोत्ती । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु ॥५३२।। (पं. गा.७७३) ॥ बिअतिअचउकपणगं, नवदस एकारसेव वारसगं । एए अट्ठ विगप्पा, उबहिमि उ हुंति जिणकप्पे ॥ ५३३ ॥ (पं. गा.७७५)। एए चेव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो अ। एसो चोदसविहो, उवही पुण थेर कप्पमि ।। ५३४॥ (पं.गा. ७७९)।। एए चेव उ तेरस, अभिन्नरूवा हवंति विण्णेआ । उवहिविसेसा नियमा, चोइसमे कमढए चेव १४ ॥५३५॥ (पं. गा. ७८१)॥ उग्गहऽ १५ गंतगपट्टो १६, अड्डोरुअ १७ चलणिआ १८ य बोधवा । अभितर १९ बाहिनिसणी य २० तह कंचुए चेव २१ ॥५३६ ॥ (पं. गा. ७८२)|| ओकच्छिअ २२ वेकच्छिय २३ संघाडी २४ चेव खंधकरणी २५ अ । ओहोवहिम्मि एए, अजाणं पण्णवीसं तु ॥५३७॥ (पं.गा. ७८३) । तिन्नि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मझिम पमाणं । एत्तो हीण जहन्नं, अइरेगयरं तु उक्कोसं ॥५३८॥ (पं. गा.७९२)।। इणमन्नं तु पमाणं, निअगाहाराओं होइ निष्फन्नं । कालापमाणसिद्धं, उदरपमाणेण य वयंति ॥५३९।। (पं. गा.७९३)॥ पत्ताबंधपमाणं, भाणपमाणेण होइ कायबं । जह गंठिम्मि कयंमी, कोणा चउरंगुला - १-मासकल्पद्वारावयवार्थमाह-'मांस' मासं निवराति क्षेत्रे एकं, षड्वीथी: करोति गृहपङ्गिरूपाः परिकल्प्य तत्रापि वीथीकदम्बके, एकैकामटति वीथीं कर्मादिवर्जनार्थम् अनिबद्धतया प्रतिदिनमिति गाथार्थः ॥ ५२४ ।। २-'एगाए' एकस्यां वसतौ बाह्यायां उत्कृष्टतो वसन्ति सप्त जनाः, कथमित्याह-परस्पर संभाषणं वर्जयन्तः सन्तः कथमपि योगेनेति गाथार्थः ॥ ५२५॥ ३-'वीहीए.' वीथ्यां त्वेकस्यामेक एवं प्रतिदिनमटति एष जिनकल्पिकः, अन्ये भणन्ति-भजना, सा च न युक्तिक्षमा ज्ञेयाऽत्र वस्तुनीति गाथार्थः ॥ ५२६॥ ४-'वीस.' सुवर्णगुणानाह-विषघाति सुवर्णम् १, तथा रसायनं वयःस्तम्भनम् २, 'मङ्गलार्थ' मङ्गलप्रयोजनम् ३, विनीतं-कटकादियोग्यतया ४, प्रदक्षिणावत अग्नितप्तं प्रकृत्या ५, गुरु सारतया ६, अदाचं सारतयैव ५, अकुथनीयमत एव ८, एवमष्टौ सुवर्णे गुणा भवन्ति असाधारणा इति गाथार्थः ॥ ५२७ ॥ ५-दान्तिकमधिकृत्याह-"इहमो०" इति मोहविष घातयति केषां चित् शिवोपदेशात् १, तथा रसायनं भवति. अत एव परिणतान् मुख्यं २ गुणतश्च मङ्गलार्थ करोति प्रकृल्या विनीतश्च योग्य इति कृत्वा एष गाथार्थः ॥ ५२८ ॥ ६-'मग्गा' मार्गानुसारित्वं सर्वत्र प्रदक्षिणावर्सता गम्भीरश्चेतसा गुरुस्तथा भवति क्रोधाग्निना अदाह्यो ज्ञेयः, अकुथनीयः सदोचितेन शीलभावेनेति नाथार्थः ॥ ५२९ ५५ ७-पात्रादीनि उपधिमुपभुजते इति वाक्यशेषः, एवं 'स्थविराः' पात्रादि १४ उपधिरूपवन्तः, आर्याणां संयतीनां पञ्चविंशतिरेव अत ऊर्ध्वम् औपग्रहिक उपधिः ।। आर्या अधिकृत्याह--८-"पतं" गाहा “पत्ता" ९-पात्रबन्धप्रमाणं किम् ? इत्याह-भाजनप्रमाणेन करणभूतेन भवति कर्तव्यम् । किंविशिष्टम् ? इत्याह-यावद् ग्रन्थौ कृते सति कोणौ चतुरडुलौ भवतः त्रिकालविषयत्वात्सूत्रस्यापवादिकमिदं सदा मध्यभावात् इति गाथार्थः ।। ५४०॥ गाथा० ५
"Aho Shrut Gyanam"
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
गाथासहस्री।
होति ॥ ५४० ॥ ( पं. गा. ७९८ ) ॥ पत्तगठवणं १ तह गोच्छओ अ२ पायपडिलेहिणी ३ चेव । तिण्हपि ऊ पमाणं, विहत्थि चउरंगुलं चेव ।। ५४१ ॥ (पं. गा. ७९९) ॥ जेहि सविया न दीसइ, अंतरिओ तारिसा भवे पडला। तिष्णि व पंच व सत्त वा, कयलीपत्तोवमा सुहमा (लहुया)॥५४२॥ (पं. गा. ८०३)॥ गिम्हासु तिन्नि पडला, चउरो हेमंत पंच वासासु ! उक्कोसगा एए एत्तो पुणमज्झिमे वोच्छं॥५४३॥ (पं. गा.८०५)।। अड्राइज्जा हत्था दीहा बत्तीसगुला रुंदा । बिइअं परिग्गहाओ, ससरीराओ उ निष्फन्नं ।। ५४४॥ (पं. गा.८८६)॥ माणं तु रयत्ताणे, भाणपमाणेण होइ निष्फन्नं । पायाहिणं करितं, मज्झे चउरंगुलं कमइ ।। ५४५॥ (पं. गा. ८०८) ॥ कप्पा आयपमाणा, अड्डाइज्जा उ आयया हत्था । दो चेव सुत्तिआ, उन्निओ तइओ मुणेअबो ।। ५४६ ॥ (पं.गा. ८१२)॥ बत्तीसंगुलदीहं, चउवीसं अंगुलाइ दंडो से । सेस दसा पडिपुन्नं, रयहरणं होइ माणेणं ।। ५४७ ॥ (पं. गा. ८१४) ॥ चउरंगुलं विहत्थी, एअं मुहणंतगस्स उ पमा । बीओ वि अ आएसो, मुहापमाणाउ निप्फनं ॥ ५४८ । (पं. गा. ८१६)। जो मागहओ पत्त्थो, सविसेसयरं तु मत्तगपमाणं । दोसुवि दश्वग्गणं, वासावासे अ अहिगारो ॥५४५॥ (पं. गा. ८१८)॥ दुगुणो चउम्गुणो वा, हत्थो चउरस्स चोलपट्टो उ । थेरजुवाणाणऽहा, सण्हे थुल्लंमि अविभासा ॥ ५५०॥ (पं. गा. ८२१) ॥ कमढपमाणं उदरप्पमाणओ संजईण विष्णेअं। सइगहणं घुण तस्सा, लहुसगदोसा इमासिं तु ।। ५५१ ॥ (पं. गा. ८२४ ) ॥ दोनि तिहत्थायामा, भिक्खट्टा एक एक उच्चारे । ओसरणे चउहत्था, निसण्णपच्छायणे मसिणा ।। ५५२॥ (पं. गा. ८३१) ।। पीढग-निसिज-दंडग; पमजणी घट्टए डगलमाई । पिप्पलग सूइ नहरणि, सोहणगदुगं जहण्णो उ ॥ ५५३ ।। (पं. गा. ८३४ ) ।।
[एताः त्रिंशद्गाथाः ३० श्रीपञ्चवस्तुके ॥] ओअण १ जण २ पाणग ३, आयामु ४ सिणोदगं ५ च कुम्मासा ६ डगलरा ७ सरक्ख ८ सूई ९, पिप्पलमाई १० उ उवओगो ।। ५५० ।
[श्रीपिण्डनियुक्तौ गाथा ३७-१७ पत्रे ॥] जह कारणं तु तंतू, पडस्स तेसिं च हुँति पम्हाई । नाणाइतिगरसेवं, आहारो मोक्ख नेमस्स ॥५५१॥
[इति पिण्डनियुक्ती गा० ७०-२८ पत्रे ] निच्छयनयस्स चरणायविघाए नाणदंसणवहोऽवि । ववहारस्स उ चरणे, हयमि भयणा उसेसाणं५५२
[पिण्डनियुक्तौ १०५-४२ पने] आणाए चिअ चरणं, तभंगे जाण किं न भग्गति ? । आण च अइक्तो, कस्सा एसा कुणइ सेसं ॥ ५५३ ॥ जो जवायं न कुणइ, मिच्छद्दिठी तओ हु को अन्नो । यड्ढे अ मिच्छत्तं, परस्स संकं जगेमाणो ॥ ५५४ ॥
[इति गाथाद्वयं 'निच्छय०'गाथा वृत्तिगतं ६९ पन्ने]
१-पात्रस्थापनम् ऊर्णमयं, तथा गोच्छकश्च पात्रप्रतिलेखनी चय मुहपोत्ती, एतेषां त्रयाणामपि प्रमाणे प्रस्तुतं वितस्तिश्चतुरमुलं चैव षोडशाङ्गुलानीति ॥५४१॥२-'जे हि०' यैः सविता आदित्यो न दृश्यते अन्तरितः सामान्येन तादृशानि भवन्ति स्वरूपेण पटलानि तानि च त्रीणि वा पञ्च या सप्त वा, कालापेक्षया कदलीगर्भापमानि मसृणलक्ष्णानि लघूनि बहुलकानीति गाथार्थः ॥५४२॥ -'गिम्हासु०' रसमान्येन तादृशा भवन्ति खरूपेण पटलानि तानि च त्रीणि वा, ग्रीष्मेषु सर्वेष्वेव त्रीणि पटलानि भवन्ति कालस्यात्यन्तरूक्षत्वाद् द्रुतं पृथिवीरजःप्रभृतिपरिणतेः, तेन पटलभेदायोगादिति, चत्वारि पटलानि हेमन्ते कालस्य स्निग्धत्वात् विमर्दैन पृथिवीरजःप्रभृतिपरिणतेः, तेन पटलभेदसंभवादिति, पञ्च वर्षासु सर्वाखेव पटलानि भवन्ति कालस्यात्यन्तस्निग्धत्वात् अतिचिरेण रजःप्रभृतिपरिणतेः, तेन पठलभेदयोगादिति, 'उत्कृष्टान्येतानि' तत् स्वरूपापेक्षया चेहोत्कृष्टत्त्वपरिग्रहः, अत्यन्तशोभनांने पटलान्येवं भयन्ति अनः गुन: अत ऊर्द्ध मध्यमानि स्वरूपेण पटलानि यावन्ति भवन्ति तावन्ति वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ ५४३ ।।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
इंधण-धूमे गंधे, अवयवमाईहिं सुहुमपूई उ सुंदरमेयं पूई चोयग भणिए गुरू भणइ जेसिं तु एस पूई, सोही नवि विजए तेसिं । ५५५ ।। (पिं० २५८) इंधणअगणीअवयव, धूमो बको अ अन्नगंधो अ । सबं फुसंति लोभ, भन्नइ सबं तओ पूई ॥ ५५६॥ (पिं० ५९) हत्त्यसयं खलु देसो. आरेणं होइ देसदेसो य । आइन्नंमि उ तिगिहा, ते चिअ उक्ओगपुबगा।॥ ५५ ॥ जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गरस । सा होइ निजरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥५५८॥
[पिण्डनियुक्ती गा० ११०-१७१८५ पत्रे ॥] निरया उ नरभवम्मि अ, देवो होऊण पंचमे कप्पे। तत्तो चुओ समाणो, वारसमो अमम तित्थयरो॥५४९॥
[इति रखसश्चये ॥ वाई अ १ खमासमणे २, दिवायरे ३ वायग ४ त्ति एगहा । पुतगयंमि अ सुत्ते, एए ४ सदा पउद॒ति ।। ५६० ॥ ___ आसाढबहुलपक्खे १, भद्दवए २ कनिए य ३ पोसे य ४। फग्गुण ५ वइसाहेसु य ६, नायबा ओमरताउ ॥ ५६१ ॥
[श्रीउत्तराध्ययने २६ अध्ययने १५ गाथा ॥] निस्सग्गु १ वएसरुई २, आगारुइ ३ सुत्त ४ बीयरुइमेव ५। अभिगम ६ वित्थाररुई ७, किरिआ ८ संखेव ९ धम्मरुई १० ॥ ६६२ ॥
श्रीउत्तराध्ययने २८ अध्ययने १६-१७ गाथा ५६३ पन्ने ॥] नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूर्ण दसणे उ भइअवं । सम्मानचरित्ताई जुगवं पुर्व व सम्मत्तं ॥ ५६३ ॥
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होइ चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमो. क्खस्स निवाणं ॥ ५६४ ।।
[श्रीउत्तराध्यगने २८ अध्ययने २९-३० गाथा ५६६ पत्रे ॥] अवरण्हे सिद्धिगया, संभव १ पउमाम २ सुविहि ३ बसुपुज्जा ४ । सेसा-उसभाईआ ८ सेयंसंता य पुबण्हे ।। ५६५ ।। धम्म १ अर २ नमी ३ वीरा ४, अवरत्ते पुनरत्तए सेसा ।।
[इति सिद्धप्राभृते ॥] तेवीसईसूअगडे, रूवाहिएसु सुरेसु अ । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥ ५६६ ॥
[श्रीउत्तराध्याने ३१ अध्ययने १६ गाथा ६१२ पत्रे ॥] एतलघुवृत्तौ यथाभवण १ वण २ जोइ ३ वेमाणिआ य दस अट्ट पंच एगविहा । इइ चउवीसं देवा, केई पुण बिंति अरिहंता ॥ ५६७ ॥ पुढवि १ दग २ अगणि ३ मारुष ४, वणस्सइ ५ बि ६ ति ७ चउ, पणिंदिअ ९ अजीवा १०१ पेहो ११ पेह १२ पमजण १३, परिठवण १४ मणो १५ वई १६ काए १७॥ ५६८ ॥
[श्रीउत्तराध्ययने ३१ गाथा लघुवृत्तौ १७ असंयमभेदाः ॥] चउदारतिसोवाणं, मज्झे मणिपीढयं जिणतणुचं । दो घणुसयपिहु दीहं, सङ्कदुकोसेहि धरणिअला ॥ ५६९॥
[श्रीउपदेशसप्ततिग्रन्थे २३ उपदेशे ॥] वत्सदेशेऽस्ति कौशाम्व्यां, शतानीकसहोदरी । कर्मतो बालविधवा, जयन्ती परमाहती ॥५७०॥
[श्रीउत्तराध्ययने कमलसंयमीवृत्तौ ॥1
"Aho Shrut Gyanam"
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
भारण्डपक्षिणः ख्यातात्रिपदा मर्त्यभाषिणः । द्विजीया द्विमुखा एकोदरा भिन्नफलैषिणः ॥ ५७१ ।।
[प्रतिक्रमणवृत्तौ तपाकृतायाम् ॥] बायरपुढवी १ जल २ जलण ३ पवण ४ पत्तेअवण ५ निगोएसु ६ । सत्तरिकोडाकोडी, अयराणं नाह ! भमिओहं ॥ ५७२ ॥
[कायस्थितिसूत्रे ९ गाथा ॥] पुढवी १ आउ २ वणस्सई ३, गब्भयपजत्तसंखजीवेसु ५ । सग्गचुआणं वासो, सेसा पडिसेहिआ ठाणा ॥ ५७३ ॥ मद्य १ मांसाशनं २ रात्रिभोजनं ३ कन्दभक्षणम् ४ । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां, तीर्थयात्रा १ जप २ स्तपः ३ ॥ ५७४ ॥ वृथा चैकादशी प्रोक्ता ४, वृथा जागरणं हरेः ५। वृथा च पौष्करी यात्रा ६, वृथा चान्द्रायणं तपः ७ ॥ ५७५ ॥ यस्मिन् गेहे सदाऽत्यर्थ, मूलकः पच्यते जनैः । श्मशानतुल्यं तद्वेश्म, पितृभिः परिवर्जितम् ॥ ५७६ ।। मूलकेन समं चानं, यस्तु मुझेन्नरोऽधमः। तस्य शुद्धिर्न विद्येत, चान्द्रायणशतैरपि ।। ५७७ ।। मूलकं भक्षयित्वा यः, कुरुते विष्णुपूजनम् । व्यर्थ तद्वैष्णवं पुण्यं, कृतं वर्षशतेन च ॥ ५७८ ॥
[इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मूलकपरिहारः॥1 यस्तु वृन्ताक १ कालिङ्ग २ मुलका ३ ऽलाबु ४ भक्षकः । अन्तकाले स मुढात्मा. न स्मरिष्यति मां प्रति ॥ ५७९ ॥ भुक्तं हालाहलं तेन, कृतं वाऽभक्ष्यभक्षणम् । येन व्यादनं देवि !, कृतं मूलकभक्षणम् ।। ५८०॥ नीली च वापयेद्यस्तु, मूलकं यस्तु भक्षयेत् । वृन्ताकभक्षणादेव, नरो यात्येव
१८१ ॥ पलाण्डु १ गृजनं २ चैव, रसोनं ३ सूरणं ४ तथा। मत्स्यं मांसं च नानीयात् , मूलकं तु विशेषतः ॥ ५८२ ॥
[मानवीस्मृतौ वृन्ताकादीनां परिहारः ॥] मृते स्वजनमात्रेऽपि, सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे, भोजनं क्रियते कथम् ॥ ५८३ ॥ उदकमपि न पातव्यं, रात्रावत्र युधिष्ठिर ! । तपस्विना विशेषेण, गृहिणा तु विवेकिना ।। ५८४ ॥
[पमपुराणे ॥] रात्रौ ये सर्वदाऽऽहार, वर्जयन्ति सुमेधसः । पक्षोपवासस्य फलं, ध्रुवं मासेन जायते ।। ५८५ ।। चतुर्मासे तु संप्राप्ते, रात्रिभोज्यं करोति यः । तस्य शुद्धिन विधेत, चान्द्रायणशतैरपि ॥५८६॥ स्नानाचं वर्यते यत्र, तथा वह्वेश्च तर्पणम् । देवपूजा तपो दानं, भुज्यते तत्र किं निशि ॥ ५८७ ॥
[इति महाभारते रात्रिभोजनपरिहारः॥] सप्तग्रामेषु यत्पापं अग्निना भस्मसात्कृते । तस्य तद्भवति पापं, मधुविन्दुप्रभक्षणे ॥ ५८८ ॥ यो ददाति मधु श्राद्धो, मोहितो धर्म लिप्सया । स याति नरकं घोरं, खादकैः सह लम्पटैः ॥ ५८९ ॥ मेदमूत्रपुरीपाद्यै, रसाद्यैर्वर्जितं मधु । छर्दिलालामुखस्रावै,-रभक्ष्यं ब्राह्मणैर्मधु ॥ ५९० ॥
इति महाभारते मधुभक्षणपरिहारः॥] नवसमरहिं जहन्नं तु, मुहुत्तं एगएगबुडीए । एगसमएण ऊणं, उकिटं जाव दोघडिअं ॥ ५९१ ॥
[विचारसत्तरीप्रन्थस्यावचूर्णी श्रीमहेन्द्रसूरिविरचितायाम् ॥] __ रत्तो १ दुट्ठो २ मूढो ३, पुचि बुग्गाहिओ अ चत्तारि । एए धम्मा अणरिहा, अरिहो पुण होइ मज्झत्थो ॥ ५९२ ॥
__ [तपारत्नशेखरस्कृितश्राद्धविधिप्रकरणे ॥] [ददस्वान्नं नराधिप-आशु प्रीतिकरं लोके किं दत्तेनापरेण ते॥] अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः, अनमोजः सुखौषधे । तस्मादन्नसमं दानं, न भूतं न भविष्यति ॥५९३॥ मिध्यादृष्टिसहस्रेषु, बरमेको हणुव्रती ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
अणुव्रतिसहस्रेषु, वरमेको महाव्रती ॥ ५९४ ।। महाव्रतिसहस्रेषु, वरमेको हि तात्त्विकः । तात्त्विकेन समं पात्रं, न भूतं न भविष्यति ।। ५९५॥ शत्रुञ्जये कोटिगुणं, स्वभावात्स्पर्शतो मतम् । मनोवचन कायानां, शुद्ध्याऽनन्तगुणं भवेत् ॥ ५९६ ॥ एकैकस्मिन् पदे दत्ते, शत्रजयगिरिं प्रति। भवकोटिसहस्रेभ्यः, पातकेभ्यः प्रमुच्यते ॥ ५९७ ॥ ऋषिहत्यादिभिः पापै-र्भवकोटिकृतैरपि । मुच्यते दर्शनादस्य, स्पर्शनात्तु किमुच्यते ? ॥ ५९८ ॥ कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतान्यपि । इदं तीर्थ समासाद्य, तिर्यवोऽपि दिवं गताः ॥ ५९९॥ पल्योपमसहस्रं तु, ध्यानालक्षमभिग्रहात् । दुष्कर्म क्षीयते मार्गे, सागरोपमसंमितम् ।। ६०० ॥ शत्रुञ्जये जिने दृष्टे, दुर्गतिद्वितयं क्षिपेत् । सागराणां सहस्रं तु, पूजास्नानविधानतः ॥६०१ ॥ तंबोल १ पाण २ भोअण ३-वाणह ४ थीभोग ५ सुअण ६ निवणं ७ । मुत्तु ८ चारं ९ जूअं १०, वजे जिणमंदिरस्सन्ते ॥६०२ ॥ समणी १ मनगयवेअं २, परिहारि ३ पुलाय ४ मप्पमत्तं ५ च । चउदसपुदि ६ आहारगं ७ च न य कोइ संहरइ ।। ६०३ ।। चुल्लग १ पासग २ धन्ने ३, जूए ४ रयणे अ ५ सुमिण ६ चके अ७ । चम्म ८ जुगे ९ परमाणू १०, दस दिटुंता मणुअलंभे ॥ ६०४ ॥ सुचेताः केतकीनेता, विनेता क्रूरकर्मणाम् । सप्तग्रामसहस्रेश, श्चतुर्धा राज्यमातनोत् ॥६०५ ॥ १ ॥ कोशायैकं १ बलायैक २ मेकमन्तःपुराय ३ सः । दयादानाय ४ राज्यस्य, भागं चैकमकल्पयत् ॥ ६०५ ॥ २ ॥
इति प्रदेशिराजाधिकारे। भद्दो सवायलक्खं १, तयद्धमुलं लहेइ मंदकरी २ । तस्सद्धं मिगहत्थी ३, तयद्धमवि मिस्सजाइगओ४ ॥६०६॥
सङ्घाचारटीकायामिवम् । जित्वा वर्षशतेनाऽथ, षट्खण्डामपि मेदिनीम् । क्रियमाणोत्सवः पौरै-ब्रह्मदत्तोऽविशत्पुरे ॥६०७॥
इत्युपदेशचिन्तामणौ।
अतिवृष्टि १ रनावृष्टि २,-मूषकाः ३ शलभाः ४ शुकाः ५ । स्वचक्रं ६ परचक्रं च ७, सप्तै ता ईतयः स्मृताः ॥ ६०८ ॥ गणिमं जाईफलपुष्फ-फलाई १ धरिमं तु कुंकुमगुडाइ २ । मेज चोप्पड़लोणाई ३, वत्थरयणाई परिच्छेनं ॥ ६०९ ।।
इति बृहत्कल्पे। अवत्तमक्खरं पुण, पंचण्हवि थीणगिद्धिसहिएणं । नाणावरणुदएणं, बेदियमाईकमवि सोही ॥ ६१० ॥ तं चिअ विसुज्झमाणं, बेंदियअमाई कमेण विण्णेअं । जा होतऽणुत्तरसुरा, सबविसुद्धं तु पुत्वधरा ॥ ६११ ॥ संवच्छरेण भिक्खा, लद्धा उसभेण लोगनाहेण ! सेसेहिं बीअदिवसे, लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ६१२ ॥ मग्गे १ अविप्पणासो २, आयारे ३ विणयया ४ सहायत्तं ५। पंचविहँ नमुक्कारं, करेमि एएहिं हेऊहिं ।। ६१३॥ मिच्छेव १ सासणे वा २, अविरयसम्ममि ३ अहिगए वावि । जंति जिआ परलोए, सेसिकारस गुणे मोत्तुं !! ६१४ ॥ छावलियं सासाणं, समहिअतित्तीससागरचउत्था । देसूणों पुषकोडी, पंचमग तेरसंमि पुणो ॥ ६१५ ॥ लहुपंचक्खरचरिमं, तइ छट्ठा व बारसं जाव। इअ अट्ट गुणट्ठाणा, अंतमुहुत्ता य पत्तेयं ।। ६१६ ॥ आवस्सगस्स १ दसका-लिअस्स २ तह उत्तरज्म ३ मायारो ४ । सूअगडे ५ निज्जुत्ति, वुच्छामि तहा दसाणं ६ च ॥ ६१७ ॥ कप्पस्स ७ य निति, ववहारस्सेव ८ परमनिउणस्स । सूरिअपनत्तीए ९, वुच्छं इसिभासिआणं १० च ॥ ६१८॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
श्रीभद्रबाहुस्वामिकृता दशनियुक्तयस्तरप्रतिपादकमिदं गाथाद्वयं ज्ञेयम् । वीरु १ सहाण २ पमाओ, अंतमुहुत्तं १ तहेव अहोरत्तं २ । उवसग्गा पासस्स य १ वीरस्स २ य न उण सेसाणं ॥६१९ ॥
इति प्रमादकाल उपसर्गाश्च । आरिअमणारिएसुं, पढमस्स य १ नेमि २ पास ३ चरिमाणं ४ । सेसाण २० आरिएमुं, छउमस्थत्ते विहारो अ॥ ६२०॥
इति विहारभूमिः। सुमइस्स निच्चभत्तं १, मल्ली २ पासाण २ अट्ठमो आसी । वसुपुज्जस्स चउत्थं, क्यंमि सेसाण छट्टतवो ॥ ६२१ ॥
इति २४ जिननततपः । वसुपुजो छसयजुओ १, मल्ली २ पासो ३ नरतिस्सयसहिआ। चउसहस्सजुओ उसहो ४, इग वीरो ५ सेस १९ सहस्सजुआ ॥ ६२२ ।।
इति २४ जिनवतपरिवारः । सुमई १ सिअस २ मल्ली ३, नेभी ४ पासाण ५ दिक्ख पुबण्हे । सेसाण १९ पच्छिमण्हे, जायं च चउत्थमणनाणं ॥ ६२३ ॥
इति २४ जिनानां व्रतज्ञानं च । - सको अ लक्खमोलं, सुरसं ठवइ सबजिणखंधे। वीरस्स वरिसमहिअं, सया वि सेसाण तस्स ठिई ॥ ६२४ ॥
इति २४ जिनदेवदूष्यं तस्य कालश्च । अट्ठमभत्तंमि कए, नाणुसह १ मल्लि २ नेमि ३ पासाणं ४ । वसुपुज्जस्स चउत्थे ५, सेसाणं १९ छहभत्ततवे ॥ ६२५ ॥
इति २४ जिनज्ञानतपः। उसहस्स दुससहस्सा १, विमलस्स य छच २ सत्त अणंतस्स ३ । संतिम्स नवसयाई ४, मल्लि५ सुपासाण ६ पंचसया ॥६२६ ॥ पउमस्स तिसयअडहिय ७, नेमिजिणंदस्स पणसयछत्तीसा८। धम्मस्स अडहिअसयं ९, छसयाई वासुपुज्जस्स १०॥ ६२७ ॥ पासस्स तित्तीसु मुणि ११, वीररस य नत्थि १ सहससेसाणं १२ । अडतीससहसचउस्सय, पणसीई सबपरिवारे ॥ ६२८ ॥
इति २४ जिनमोक्षपरिवारः। देसिअ १ राइअ २ पक्खिअ ३, चउमासिअ ४ संबच्छरीअ५ नामाओ। दुण्डं पण पडिकमणा, मज्झिमगाणं २२ तु दो पढमा ।। ६२९ ॥ साहूण सिद्धिगमणं, असंख १ अड २ चउ ३ ति ४ संख ५ पुरिसा जा । संजायमुसह १ नेमी २ पासं ३ अंतिम ४ सेस ५ मुक्खाओ ।। ६३० ॥
इति २४ जिनानां युगान्तकरभूमिः । तेसिं चिअ नाणाओ, मुणीण गयकम्मयाण सिद्धिगओ। अंतमुहुत्ते दु २ ति ३ चउ ४, वरिसेसुं इगदिणाईसु ।। ६३१ ॥
इति २४ जिनानां पर्यायान्तकरभूमिः । सड्ढदुवालसकोडी, सुवण्णवुट्ठी अ होइ उक्कोसा। लक्खा सड्दुवालम्र, जहण्णिआ होइ वसुहारा ॥ ६३२ ।।
इति वसुधाराप्रमाणम् ।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
जह कहवि अ असमत्थो, होइ सरीरस्स दिवजोगेणं । तो उत्तरकालंपि हु, पूरिजा असढभावो उ ॥ ६२३ ॥ । इति ज्ञानपञ्चम्यधिकारे।
आरुहणे ओरहणे, णिसिअण गोणाइणं च गाउम्हा । भुम्माहारच्छेदे, उवकमेणंच परिणामो॥६३४॥ पडिकमओ गिहिणो नि हु, सगवेला पंचवेल इअरस्स । पूजासु तिसंझासु अ, होइ तिवेला जहन्नेणं ॥ ६३५ । बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ। पुरिसस्स महि लियाए, अट्ठावीसं भवे कवला ।। ६३६ ॥ कवलाण य परिमाणं, कुक्कुडअंडगपमाणमेत्तं तु । जो वा अविगिअवयणो, वयणम्मि छुहेज वीसस्थो ।। ६३७ ॥ सुत्तस्थविऊ लक्खण-जुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ अ । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वायेइ आयरिओ ॥ ६३८ ॥ सम्मत्तनाणदंसण-जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू। आयरिअढाणजोगो, सुत्तं वाए उवज्झाओ ॥ ६३९ ॥
[संबोधप्रकरणे गा० १८६-२५ पत्रे ॥] तवसंजमजोगेसुं, जो जोग्गो तत्थ तं पयट्टेइ । असहुं च निवत्तेई, गणतत्तिल्लो पवित्तीओ॥६४०॥
[संबोधप्रकरणे गा. १९१-२५ पत्रे ] थिरकरणा पुण थेरो, पवित्ति व वारिएसु अत्थेसु । जो जत्थ सीअई जई, संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ ६४१॥
[संबोधप्रकरणे गा० १८५-२५ पत्रे पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो उजुओ अ तेअंसी । संगहकुसलो सुत्तत्थविऊ गणाहिवई ॥६४२।। उट्ठावणा पहावण, खेत्तोवहि, मग्गणासु अधिसाई । सुत्तत्थतदुभयविऊ, गणवच्छो एरिसो होई ॥६४३॥
[संबोधप्रकरणे गा० १९४-२६ पत्रे ॥] सत्तविआरण पावंअणंतगुणिअंच एक्कभूअस्स । भूअस्स असंखगुणं, पावं इकस्स पाणस्स ॥ ६४४॥ बेंदिअ तेंदिअ चरिंदी तह य चेव पंचिदी। लक्खसहस्स तह सय-गुणं च पावं मुणेयवं ।। ६४५॥ ओरालिअं च दिवं, मणवयकारण करणजोगेणं । अणुमोअणकारावण-करणेणहारसा बंभं ॥६४६॥ दो घयपला महुपलं, दहिअस्सद्धाढयं मिरिअवीसं । दसखंडगुलपलाई, एसॉ रसालू निवइजोगो ।। ६४७॥ अजाण साविआण य, अकालचारित्तदोसभावाओ। ओसरणंमि न गमणं, दिवसतिजामे निसि कहंता॥ ६४८ ।। विटद्धा सुरहिं जलथलय दिवकुसुमनीहारिं । पयरंति समंतेणं, दसद्धवन्नं कुसुमवासं ।। ६४९ ॥
संघाचारघूत्ती आगमगाथेयमिति प्रोक्तमस्ति [९९ पन्ने] । चिइवंदणा तिभेआ, जहनिआ १ मज्झिमा य २ उक्कोसा ३ । इकिक्कावि तिभेआ, जहन्नमझिमिअउक्कोसा ॥ ६५०॥ एगनमुक्कारेणं, चिइवंदणया जहन्नयजहन्ना । बहु नमुकारेहिं अ, नेआ उ जहण्णमज्झिमिआ ॥६५१॥ सच्चिअ सक्कथयंता, जहण्णउक्कोसिआ मुणेअन्वा ३ । नमुकाराइ चिय
१-'आल्हणे शकटे गवादिपृष्ठेषु च लवणादीनां यद्भूयो भूय आरोहणमवरोहणं च, तथा यत्तस्मिन् शकटादौ लवणादिभारोपरि मनुष्या निषीदन्ति तेषां गवादीनां च यः कोऽपि पृष्ठादिगानोष्मा तेन वा परिणामो भवति, तथा यो यस्य भौमादिकः पृथिव्यादिक आहारस्तम्यवच्छेदे तस्य परिणामः उपक्रमः शस्त्रम् , उपक्रम्यन्ते जीवानामायूंषि अनेनेति व्युत्पत्तेः, तच शस्त्रं विधा-स्वकायश १ परकायशस्त्र २ तदुभयशस्त्रं ३ चेति। तत्र खकायशस्त्रं यथा लवणोदकं मधुरोदकस्य, कृष्णभूर्म वा पाण्ड्डभूमस्येति १, परकायशस्त्रम्-अग्निरुदकस्य, उदकं वा अग्नेरिति २, तदुभयशस्त्र-योदकमृत्तिका शुद्धोदकस्येति, एवमादीनि सचित्तवस्तूनां परिणमने कारणानि मन्तव्यानि ।।
"Aho Shrut Gyanam"
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
दंडग-इगथुई मज्झिमजण्णा ४ ॥ ६५२ ॥ मंगल सकत्थय चिअदंडकथुईहि मज्झिममज्झिमिया ५॥ मझिमउक्कोसा पुणे, सच्चिअसिलोगतिन्निथुईहिं ।। ६५३ ॥ उक्कोसजहण्णा पुण, सचिअसकत्थयाइ संजुत्ता । जा थुइजुअलदुगेणं, दुगुणिअ चिइदंडयाइ पुणो ॥ ६५४ । उक्कोसमज्झिमा सा ८, उकोसुकोसिआ य पुण नेआ । पणिवायपणगपणिहाण-तिअगथुत्ताइसंपुण्णा ९ ॥ ६५५ ॥ एसा नवप्पयारा, आइण्णा वंदणा जिणमयंमि । कालोचिअकारीणं, अणग्गाहाणं सुहा सबा ॥ ६५६ ।। उकोसा तिविहा वि हु, कायवा सत्तिओ उभयकालं। सेसा पुण छब्भेआ, चेइअपरिवाडिमाईसु ॥६५७॥
एता अष्टौ गाथा वृहद्भाष्यस्य संघाचारवृत्तौ [१७६ पत्रे ] उक्तरूपतया लिखिताः सन्ति । मइनाणं १ सुअनाणं २, ओही ३ मणनाण ४ केवलनाणं ५। पढमदुनाण परोक्खा, नाणतिर्ग जीवपञ्चक्खं ॥ ६५८ ॥ सामण्णण छ दवा, मइसुअनाणी अ दो वि जाणंति। ओहीनाणी पुग्गलखं जाणेइ नो अन्नं ॥६५९॥ मणपज्जवनाणी पुण, मणचिंतिअपज्जवे वि आणेइ । केवलनाणि छदबा, चाणइ पासइ सपज्जाया ॥ ६६०॥ उग्गह १ ईह २ अवाओ ३, अ धारणा ४ एव हुंति चत्तारि । मइनाणे एआई, भेआ वत्थू समासेणं ॥६६१॥ उग्गह इक्वं समयं ईहावाओ ३ महत्तमेगं (मद्धं-मन्तं इति पाठान्तरम् ) तु । कालमसंखं संखं, च धारणा होइ नायवा ॥६६२॥ पंचहि वि इंदिएहिं, मणसा अत्थुम्गहो मुणेअबो। चक्खिदिअमणरहि, वंजणमीहाइअं छद्धा ॥६६३॥ उप्पत्तिआ १ वेणयिआ २, कम्मइआ ३ पारिणामिआ ४ । बुद्धी चउश्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥६६४॥ मइनाणस्स य भेआ, उग्गहमाई घरविहं तं तु । इंदिअनोइंदिपुढो, नवरं वंजणच उन्भेअं ।। ६६५ ॥ छ चउक्का चउवीस, वंजणचउक्केण अट्ठवीसं तु । सुअनिस्सि तु एअं, बुद्धिचउक्केण बत्तीसं ॥ ६६६ ॥ बहुविह खिप्प अणिसिअं, संदिद्धधुवाण सेअराणं च । बारसगुणट्ठवीसा, चउबुद्धिजुआ तिसयचाला ॥६६७॥
[एवं मइनाणं सम्मत्तं ॥१॥] अक्खर १ सण्णी २ सम्म ३, साईअं ४ खलु सपजवसि ५ च । गमिअं ६ अंगपविढे ७, सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ६६८ ॥ अक्खरसुअमिह तिविहं, घडसरिसो सण्णिअक्खरो होई । बंजणभासासहो, लद्धक्खरमत्थपडियोहो ॥ ६६९ ॥ ऊससि नीससिअं, निच्छूढं खासिअंच छीयं च । निस्सिंघियमणुसारं, अणक्खरं छेलिआईअं ॥ ६७०॥ सण्णा मणविन्नाणं, जेसिं सा अत्थि ते उ सण्णित्ति । मणविण्णाणविमुक्का, असण्णिणो मंडुकाईआ ॥ ६७१ ॥ हेऊवाउवएसा, जह कीडिअ दीहकालउवएसा । तत्कालकरणचिंता, सम्मजुए दिद्विवाया य ॥ ६७२ ॥ मिच्छा सम्मे पत्ते, साइ सुअं होइ सम्मदिहिस्स । अभविअजीवे अ पुणो, अणाइअं सुअं अनाणं तु ॥ ६७३ ॥ पज्जवसाणेण जुअं, केवलिनाणस्स होइ सुअनाणं । सुअमण्णाणमभबे, अपजवसि मुणेअव्वं ॥ ६७४ ॥ अंगपविढं गमिश्र, सुगम पडिवक्खसंजुअं सम्मं । इअ चउदसभेअजुअं, सुअनाणं विवरीअं नेअं॥ ६७५ ॥
[॥ एवं सुभनाणं सम्मत्तं ॥ २॥] अणुगामि अणणुगामी, अवडिअमणवट्ठिअं च विन्ने। तह हीअमाणयं वड्डमाणयं बोहि चउभेअं ॥ ६७६ ॥ तप्पागारे पल्लग-पडहझल्लरिमुअंगपुप्फज्झये । तिरिअमणुएसु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ ॥ ६७७ ॥
नेरइअ भवण वणयर-जोइसकप्पालयाणमोहिस्स ।विजऽणुत्तराण य, हुंतागारा जहासंखं ॥६७८॥ अहवा बहुप्पयारं, असंखलोअप्पएसपरिमाणं ! लोगगयरूविवा-णं तत्ताओ अणंतविहे ॥ ६७९ ॥
[॥ एवं ओहीनाणं सम्मसं ॥३॥]
"Aho Shrut Gyanam"
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री।
४१
रिउमइविडलमईहि अ, मणपजवनाणवन्नणं समए । अड्डाइअंगुलूणं, पढमं बीअंतु नरखेतं ॥६८०॥
[॥ एवं मणपजवनाणं सम्मत्तं ॥४॥] केवल १ मिग २ मसहायं ३, असोंहारण ४ मणंत ५ मपरिसेसं ६ च । केवलसदस्स इमे, अत्था छच्चेव नायचा ॥ ६८१ ॥ आइतिनाणं तुरिआ, मणनाणं छहया उ खीणतं । केवलमंतदुगंमी, मिस्से मिस्सं तु आइतिगं ॥ ६८२ ॥ पंचण्हं नाणाणं, वक्खाणमिणं समासओ भणिों । छब्बीसागाहाहिं, रइअं हरिभद्दसूरीहिं ।। ६८३ ।।
[॥ इति ज्ञानपञ्चकविवरणप्रकरणं श्रीहरिभद्दसूरिकृतम् ॥] संसारहेतुभूतायाः, यः क्षयः कर्मसन्ततेः । निर्जरा सा पुनढेधा, सकामाकामभेदतः ॥ ६८४ ॥ श्रमणेषु सकामा स्यादकामा शेषजन्तुषु । पाकः स्वत उपायाच्च, कर्मणां स्याद् यथाऽऽप्रवत् ॥ ६८५ ॥ कर्मणां नः क्षयो भूयादित्याशयवतां सताम् । वितन्वतां तपस्यादि, सकामा शमिनां मता ।। ६८६ ॥ एकेन्द्रियादिजन्तूनां, सज्ज्ञानरहितात्मनाम् । शीतोष्णवृष्टिदहनच्छेदभेदादिभिः सदा ॥ ६८७ ॥ कष्टं वेदयमानानां, यः शाटः कर्मणां भवेत् । अकामनिर्जरामेना-मामनन्ति मनीषिणः ॥ ६८८ ॥ तपःप्रभृतिभिर्वृद्धि, व्रजन्ति निर्जरा यतः । ममत्वं कर्म संसार, हन्यात्तां भावयेत्ततः 11 ६८९ ॥ इदं गाथाषटुं श्रीप्रवचनसारोद्धारे ६८ कारणद्वारे (पत्र १५९) तत्रापि तृतीये भावनात्ये अवान्तरद्वारे, वृत्तौ
तु एवं तथाहि-'अथ निर्जरा भावना' इति । पासत्थाइविबोहिअ केइ जिया वयइ कारावई जिणमंदिरु तम्मयभाविअइ तं किर निस्साचेइओ अववाई ण भणिओ तिहिं पतिहिहिं कीरइ वंदणु कारणिओ ॥ ६९० ॥ (३३ गाथा) ॥ धम्मित धम्मुकजु साहंतउ, पर मारइ कीरइ जुझंतउ । तु वि तसु धम्मु अत्थि न हुनासइ, परमपइ निवसइ सो सासइ ॥ ६९१ ॥ जइ किर फुल्लइ लब्भइ मुल्लिण तो वाडिअ न करहि सहु कूविण । थावर घरहट्टइ न करावहि, जिणधणु संगहु करि न वद्धारहि ॥ ६९२ ॥ जइ किर कु वि मरंतु घरट्टइ, देइ त लिजहि लहणावट्टई । अह कु वि भत्तिहि देइ त लिजहि, तब्भाडयधणि जिण पूइजइ ॥६५३॥ हास खिड हुड्डु वि वजिजहि, सहु पुरिसेहि वि केलि न किजहिं । रत्तिहिं जुवइपवेसु निवारहिं, न्हुवशु नदि न पइट्ठ करावहिं॥ ६९४॥ [इदं वृत्तपञ्चकं (२६-२८-२९-३८) श्रीजिनदत्तसूरिकृतोपदेशरसायनग्रन्थस्य ४२ पत्रे । तस्य व्याख्या तु
पृथगलिखितविशेषनवमपत्रादवसेया॥] एत्तोचि पडिसेहो, दृढं अजोगाण वनिओ समए । एअस्स पाइणोऽविअ, बीति विहि एस ऽइसइणा ॥ ६९५ ॥
[इति श्रीहरिभवसूरिकृतपन्नवस्तुके गा० ५२१-२६१ पत्रे । चारित्रभङ्गेऽपि चारित्रदान लाभाय ॥] पच्छन्नो भोत्तवं, जइणा दाणाओं पडिनिअत्तेणं । तुच्छगजाइअदाणे, बंधो इहरा पदोसाई ॥६९६॥
[पञ्चवस्तुके गा० ३९१, ६४ पत्रे u] एएसि वयपमाणं, अट्ठ समाउत्ति वीअरागेहिं । भणिअं जहन्नयं खलु, उकोसं अणवगलोत्ति ॥ ६९७ ॥ तदहो परिभवखितं, न चरणभावोऽविपायमेएसिं । आहञ्चभावकहर्ग, सुत्तं पुण होइ नायबं ।। ६९८ ॥
गाथा.६
"Aho Shrut Gyanam"
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
गावापानी। एष पूर्णपक्षः, उत्तममाहभण्णइ खुगभायो, कम्मखोवसमभावपभवेणं । घरणेण किं विरुज्झइ, जेणमजोगत्तिसग्गाहो ॥ ६९९ ॥
एतदेव स्पष्टयतितक्कम्मखओवसमो, चित्तनिवंधणसमुभवो भणिओ । न उ धयनिबंधणो चिय, तम्हा एआणमविरोहो ॥ ७००॥
इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमिति दर्शयतिगयजोबगावि पुरुसा, बालुव समायरंति कम्माणि ! दोग्गइनिबंधणाई, जोवणवंताऽवि ण य केवि ॥ ७०१॥
इदं गाथापचकमपि पत्रवस्तुकसूत्रख गा० ५०, ५१, ५६-५९-१०-१३ पन्ने ॥] भत्राष्टवर्षेभ्योऽर्वागपि दानं प्रोक्तम्--- घउद्दसिं १ पण्णरसिं च २, वज्जेज्जा अट्ठमि च ३ नवमि ४ च । छहिं च ५ चलधि ६ बारसिं च सेसासु दिजाहि ।। ७०२ ॥
एतासु तिथिषु दीक्षा न देवातिसु उत्तरासु तह रोहिणीसु कुजा उ सेहनिक्खमणं । गणिवायए अणुण्णा, महबयाणं च आब्हणा ॥७०३ ॥
एतेषु नक्षत्रेषु दीक्षादिदानं कार्यम् । वर्जनीयनक्षत्राण्याहसंझागयं १ रविगयं २, विदुरं ३ सग्गह ४ विलांब च ५ । राहुगयं ६ गहभिन्नं च ७, वजए सत्त नक्खत्ते ॥ ७०४ ॥
[पलवस्तुके गा० १११-३, २० पत्रे] एतानि सप्त नक्षत्राणि दीक्षायां वर्जनीयालि । एतेषामों यथा-- अस्थमणे संझागयं १, रविगयं जहिं ठिओ उ आइचो २ । विदेरमवहारिअ ३, सग्गह कूरग्गहठिअं ४ तु ॥ ७०५ ॥ आइश्चपिट्टओ जं, विलंबि ५ राहुगयं तु जहिं गहणं ६। मझेणं जस्स गहो, गच्छइ त होइ गहभिन्नं ॥ ७०६ ॥ . एतेषां फलं यथा--
संझागयंमि कलहो १, आइञ्चगए अ होइ निवाणि २। विदुरे परविजओ ३, सग्गहम्मि अ विग्गहो होइ ४ ॥ ७०७ ॥ दोसो अभंगयत्तं, होइ कुभत्तं विलंबिनक्खत्ते ५ । राहुगयंमि अ मरणं ६, गहाभिने सोणिउग्गालो ७ ॥ ७०८ ॥
[पश्चवस्तुकटीका २० पन्ने]
[ इति दीक्षाविषये गाथाः॥] चिइवंदण रयहरणं, अट्टा सामाइयस्स उस्सग्गो । सामाइतिगकङ्कण, पयाहिणं चेव तिक्खुत्तो ॥७०९॥ गुरवो वामगपासे, सेहं ठावित्तु अह वए दिति । इशिकं तिक्खुत्तो, इमेण ताणमुववउत्ता ॥ ७१०॥
[इदं गाथाद्वयं पञ्चवस्तुके (२२ पत्रे) वारत्रयं सामायिकोच्चारप्रतिपादकम् ॥] सवित्त १ दव २ विगई ३, वाणहि ४ तंबोल ५ वरथ ६ कुसुमेसु ७ । वाहण ८ सयण ९ विलेवण १०, बंभ ११ दिसि १२ न्हाण १३ भत्तेसु १४ ॥ ७११ ॥
[एतस्या विवरणं विशेषस्यबहे ८५ द्वारे ॥
"Aho Shrut Gyanam"
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्री । चतुस्तिलैर्जवः प्रोक्त–श्चतुर्जवैश्च अङ्गुलम् । चतुर्भिरडलैमुष्टि-चतुर्मुष्टिमितः करः ॥ १२ ॥ चतुर्हस्तैश्च दण्डः स्यात्, क्रोशस्तै सिहस्रकैः । चतुर्भिः क्रोशकैश्वाथ, योजनं परिकीर्तितम् ॥ ७१३ ॥ शतयोजनो देशः स्याच्छतदेशं तु मण्डलम् । शतमण्डलः खण्डः स्यान्नवखण्डा वसुन्धरा ॥ ७१४ ॥
[इति गाथात्रयं गणिते ॥] अन्तरङ्गारिषड़र्ग,-परिहारपरायणः । कामक्रोधलोभमान,-मदहर्षा अमी मताः ।। ७१५ ॥ पुत्वभवे सो पेच्छइ, इकं दो तिन्नि जाव नवमं वा । उवरिं तरस अविसओ, सभावओ जाइसरणरस ।। ७१६ ॥
[इन्द्राचार्यकृतयोगविधौ ।] चउदस वासाणि तया, जिणेण उप्पाडिअस नाणस्म । तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्थीए समुप्पन्ना ॥ ७१७ ॥ जेट्ठा सुदंसणजमालिऽणोज सावस्थि तेंदुगुजाणे । पंचसया य सहस्सं, ढंकेण जमालि मोत्तूणं ।। ७१८ ॥
[इति प्रथमो जमालिलियः ॥ १॥] सोलस वासाणि तया, जिणेण उप्पाडियस नाणस्स । जीवपएसियदिट्ठी, उसभपुरंमी समुप्पन्ना ॥ ७१९ ॥ रायगिहे गुणसिलए, वसु चोइसपुवि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा णयरी, मित्तसिरी कूरपिंडाई ॥ ७२०॥
[इति द्वितीयस्तिष्यगुप्तनिवः ॥ २ ॥] चोदा दो वाससया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। अबत्तयाण दिट्ठी, सेयवियाए समुप्पन्ना ॥ ७२१ ॥ सेअवि पोलासादे, जोगे तद्दिवसहिअयसूले अ। सोम्मि नलिणिगुम्मे, रायगिद्दे मुरिअ बलभद्दे ॥ ७२२ ॥
- [इति भाषाढाचार्यशिष्यमणस्तृतीयो निहवः ॥३॥] वीसा दो वाससया, तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । सामुच्छेइअदिट्ठी; मिहिलपुरीए समुप्पना ॥ ७२३ ॥ मिहिलाए लच्छिपरे, महगिरिकोडिण्ण आसमिते अ। नेउणियाणुप्पवाए, रायगिहे खंडरक्खा य ।। ७२४ ॥
__ - [इति अश्वमित्रश्चतुर्थो लिङ्गवः ॥ ॥] - अट्ठावीसा दो वाससया, तइआ सिद्धिं गयरस वीरस्स । दो किरिआणं दिट्ठी, उल्लुगतीरे समुप्पन्ना ॥ ७२५ ॥ णहखेडजणव उल्लुग, महगिरिधणगुत्त अज्जगंगे । किरिआ दो रायगिहे, महासवो तीरमनिणाए । ७२६ ॥
[इति गाजेयनिहवः पबमः॥५॥] __ पंचसया चोआला, तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजिआए, तेरासियदिति उत्पन्ना ।। ७२७ । पुरिमंतरंजि भुयगुह, बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते अ । परिवायपोट्टसाले, घोसणपरिसेहणा वाए ।। ७२८ ॥
[इति रोहगुप्तनामा षष्ठो निहवः ॥ ६॥] पंचसया चुलसीया, तइआ सिद्धिं गयस्स वीरस्स । [अबद्धि ] अवट्ठिआण दिट्ठी, दसपुरनयरे समुपन्ना ॥ ७२९ ।। दसपुरे नगरुच्छुधरे, अञरक्खिअधूसमित्ततिअगं च । गोहामाहिल नवमट्ठमे
"Aho Shrut Gyanam"
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
सु पुच्छा य विंझस्स ।। ७३० ॥ पुट्ठो जहा अबद्धो, कंचुइणं कंचुओ समन्नोइ । एवं पुट्ठमबद्धं, जीवं कम्मं समन्नेह [इ] ॥ ७३१ ॥
[इति गोष्ठामाहिलः सप्तमो निहवः॥७॥1 छवास सयाई नवुत्तराहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो बोडिआण दिट्ठी, रहबीरपुरे समुप्पना ॥७३२॥
[इति दिगम्बरमतप्रवर्तकः सहस्रमल्लनामा सर्वविसंवादी अष्टमो निहवः ॥ ८॥ आ. चू. पृ. ४२७] एताः षोडश गाथाः श्रीआवश्यकचूर्णितो लिखिताः सन्ति । आसां व्याख्या सम्बन्धसहिता मत्कृत विशेषसवहतो ज्ञेया ॥ ___ हत्वा नृपं पतिमवेक्ष्य भुजङ्गदष्टं, देशान्तरे विधिवशागणिकाऽस्मि जाता। पुत्रस्य संगमधिगम्य चितां प्रविष्टा, शोचामि गोपगृहिणी कथमच तक्रम् ॥ ७३३ ॥ ___ आहाकम्मपरिणओ, फासुअभोईवि बंधओ होइ । सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मेवि सो सुद्धो ।। ७३४ ॥
[इति पिण्डनियुक्तौ २०७ गाथेयम् ७४ पत्रे ॥ ] जह जह पएसिणी जाणुगंमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुं डरायरस ।। ७३५ ॥
[इति पिण्डनियुक्तौ ४९८ गाथासम्बन्धः श्रीमलयगिरिकृत वृत्तौ पृ० १४२] मिक्तं पविटेण मएऽज दिटुं, पमयामुहं कमलविलासनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुटु नायं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३६ ॥ फलोदएणं मि गिहे पविट्ठो, तत्थासणत्था पमया मि दिहा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नाय, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३७ ॥ मालाविहारंमि मएऽज्ज दिट्ठा उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुह नायं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३८ ॥ खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पओगे गयमाणसस्स । किं मज्झ एएण विचिंतिएणं, सकुंडलं वा वयणं नवत्ति ॥ ७३९ ॥ उल्लो सुक्को अ दो छूढा, गोलया मट्टिआमया । दोऽवि आवडिआ [कुहे] भित्ते, जो उल्लो तत्थ [सोध्थ] लग्गई ॥७४०॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥ ७४१॥
[आचाराशनियुक्तौ चतुर्थाध्ययने द्वितीयोद्देशकमान्ते १७० पत्रे गाथाषट्कम् ॥] नेसप्पे १ पंडुयए २, पिंगलए ३ सपरयण ४ महपउमे ५ । काले अ६ महाकाले ७, माणवग ८ महानिहीं संखे ९ ॥ ७४२ ॥
[इति नवनिधिनामानि ॥] चकहपइठ्ठाणा, अहुस्सेहा य नव य विक्खंभे । बारस दीहा मंजूससंठिआ जण्हवीए मुहे ॥ ७४३॥
[इति याभ्यः सकाशामव निधानानि निस्सरन्ति तास मञ्जूषाणां मानम् ॥] वेरुलिअमणिकवाडा, कणयमया विविहरयणसंपुण्णा । ससिसूर 'चकलक्षण अणुसमवयणो ववत्तीया ॥ ७४४ ॥
[इति मञ्जूषास्वरूपम् प्रवचने ५०६ ॥] [अंतमुहत्तं, जहनिओ किहिओ असंखिजं । सेवंति विसयसेवा, नायचा सवदेवाणं ॥ १ ॥ एवं देवाणु खलु, उज्जअ हाणी उ जइवि संभवइ । तइआओ रूवसंपय, अखंखगुणयाओ देवाणं ॥ २ ॥ वक्खोए वेमाणिय, कंठे तह होइ जोइसाणं तु। भुइमा भवणयराणं, सीसट्ठाणेसु भुवणाई ॥ ३ ॥ सामन्ना य तायत्तीसा य, पारयियारक्खलोअपाला य । अणीयपइनभिओगा, किनिसिय
"Aho Shrut Gyanam"
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
४५ दस भवण वेमाणी ॥ ४ ॥ संखेण भवणवासी, विंतरदेवा य पडहसदेणं । उट्ठति ससंभंता, जोइसिया सिंहनादेणं ॥ ५॥ कप्पाहि वावि च लिया, घंटानाएण बोहिया संता । सवड्वसमुदएणं, इंति इह माणुसं खित्तं ॥६॥
पुक्खलवइ-विजए, पुलविदेहमि पुंडरगिरिए । कुंथु अरहंतरंमि य, जाओ सीमंधरो भयवं ॥ १॥ मुणिसुबयजिण नमिजिण अंतररजं च इत्त निक्खंतो । सिरिउदयदेव पेढालअंतरे पावई मुक्खं ॥२॥
(इति सीमन्धरस्य जन्मनो मोक्षस्य च कालः) आदौ मयैवाऽयमदीपि नूनं, तन्नो दहेन्मामवहीलितोऽपि । इति भ्रमादङ्गुलिपर्वणाऽपि, स्पृश्येत नो दीप इवाऽवनीपः ।। ७४५ ॥ कम्मं १ मम्म २ जम्म ३, तिनि वि एयाइ मा भणिज्जासु । मम्माइसु विद्धो पुण, मारिज सयं मरिजा वा ॥ ७४६ ॥ चक्खुजुरं चरिंदिसु, तं चिअ बारस पणिदि तसकाए । जोए वेए सुक्काए भवसन्नीसु आहारे ।। ७४७ ॥ सन्तोऽप्यसन्तोऽपि परस्य दोषा, नोक्ताः श्रुता वा गुणमावहन्ति । वैराणि वक्तुः परिवर्द्धयन्ति, श्रोतुश्च सन्वन्ति परां कुबुद्धिम् ॥ ७४८॥ वाचको १ वञ्चको २ व्याधिः ३, पञ्चत्वं ४ मर्मभाषक: ५ । योगिनामप्यमी पश्न, प्रायेणोद्वेगकारकाः ॥ ७४९ ॥ कएवि अन्नस्सुवयारजाए, कुशंति जे पञ्चुवयारजुम्मं । न तेण तुल्लो विमलोवि चंदो, न चेव भाणू नहि देवराया ॥ ७५० । स्वामिभक्तो १ महोत्साहः २, कृतज्ञो ३ धामिकः ४ शुचि: ५। अकर्कशः ६ कुलीनश्च ७, शास्त्रज्ञा ८ सत्यभाषकः, ९ ॥ ७५१ ॥ विनीतः १० स्थूललक्षश्चा ११ ऽव्यसनी १२ वृद्धसेवकः १३ । अशूद्रः १४ सत्त्वसंपन्नः १५, प्राज्ञः १६ शूरो १७ ऽचिरक्रियः १८ ॥ ७५२ ॥ पूर्व परीक्षितः सर्वोपधासु १९ निजदेशजः २० । राजार्थ-वार्थ-लोकार्थ-कारको २१ निःस्पृहः २२ शमी २३ ॥ ७५३ ॥ अमोघवचनः २४ कल्पः २५, पालिताशेषदर्शनः २६ । पात्रौचित्येन सर्वत्र, नियोजितपदक्रमः २७ ॥ ७५४ ॥ आन्वीक्षिकीत्रयीवार्ता-दण्डनीतिकृतश्रमः २८ । क्रमागतो २९ वणिकपुत्रो ३०, भवेन्मत्री न चापरः ॥ ७५५ ।।
इति श्रीकुमारपालचरित्रे उदयनमनिस्थापने ३० गुणाः ॥ विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो, जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि । आकर्णदीर्घोज्वललोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नाऽन्धकारे ॥ ७५६ ॥ नाऽहं स्वर्गफलोपभोगतृषितो, नाभ्यर्थितस्त्वं मया; सन्तुष्टस्तृणभक्षणेन सततं, साधो ! न युक्तं तव । खर्गे यान्ति यदि त्वया विनिहता, यज्ञे ध्रुवं प्राणिनोः यज्ञ किं न करोषि मातृपितृभिः, पुत्रैस्तथा बान्धवैः ॥ ७५७॥ कामराग १ स्नेहरागा २,-वीपत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् , दुरुच्छेदः सतामपि ॥ ७५८ ॥ नवीन जिनगेहस्य, विधाने यत्फलं भवेत् । तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ ७५९ ॥ सन्मृत्तिका १ ऽमलशिलातल २ रूप्य ३ दारु ४, सौवर्ण ५ रत्न ६ मणि ७ चन्दन ८ चारुबिम्बम् । कुर्वन्ति जैनमिह ये स्वधनानुरूपं,
। ७६०॥ पृथ्वीनाथसुता भुजक्षचरिता जंजीरिता मुण्डिता, क्षुरक्षामा रुदती विधाय पदयोरन्तर्गतां देहलीम् । कुल्माषाम् प्रहरद्वयव्यपगमे शर्पस्य कोणे स्थितान्, दद्यात्पारणकं तदा भगवतः सोऽयं महाभिग्रहः ॥७६१॥ सम्यक्त्वधारी १ पथि पादचारी २, सच्चित्तवारी ३ वरशीलधारी ४ । भूस्वापकारी ५ सुकृती सदैकाऽऽहारी ६ विशुद्धां विदधाति यात्राम ॥ ७६२ ॥ दशशनासमं चक्री, दशक्रिसमो ध्वजः। दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ।। ७६३ ॥ वेश्या रागवती सदा तदनुगा पडूभी रसैर्भोजन, शुभ्रं
"Aho Shrut Gyanam"
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयःसङ्गमः। कालोऽयं जलदागमस्तदपि यः कामं जिगायाऽऽदरात् , तं वन्दे युवतीप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥ ७६४ ॥ हस्तात्प्रस्खलितं १ क्षितौ निपतितं २ लमं तथा पादयोः ३, यन्मूर्होर्द्धगतं ४ धृतं कुवसने ५ नाभेरधो यद्धृतम् । स्पृष्टं दुष्टजनै ७ धनैरभिइतं ८ यहषितं कीटकै, स्त्याज्यं तत्कुसुमं १ फलं २ दलमपि ३ श्राद्धैर्जिनार्याक्षणे ॥ ७६५ ॥ आदौ मजनचारु चीरतिलकं नेत्राञ्जनं कुण्डलं, नासामौक्तिकपुष्पहारकुण्डलं झङ्कारकं नूपुरम् । अङ्गे चन्दनलेपकचकमणी क्षुद्रावली घण्टिका, ताम्बूलं करकङ्कणं चतुरता शृङ्गारकाः षोडश ॥ ७६६ ॥ स्नानं १ कुन्तलधूपनं च २ कबरीगुम्फः ३ करे वीटकं ४, चीरं ५ चन्दनलेप ६ कञ्चक ७ रदोद्योता ८ अना ९ ऽलक्तकम् १० । ताम्बूलं ११ तिलकं १२ च पत्रलतिका १३ कर्पूरपूर १४ स्तथा, पुष्पाणां मुकुटो १५ नखेषु रचना १६ शृङ्गारकाः षोडश ।। ७६७ ॥
प्रकारान्तरम् -
क्षौरं १ मजन २ वन ३ शीर्षतिलकं ४ गात्रे विलेपार्चनं ५, कर्णे कुण्डल ६ मुद्रिका च ७ मुकुटं ८ पादौ च चमोर्जितौ ९ । हस्ते खड्ग १० पटाम्बरं ११ कटिछुरी १२ विद्याविनोदो १३ मुखे, ताम्बूलं १४ करकङ्कणं १५ चतुरता १६ शृङ्गारकाः षोडश ॥ ७६८ ॥ कन्यागोशसभेरीदधिफलकुसुमं पावको दीप्यमानो, नागेन्द्रोऽश्वो रथो वा नृपतिरभिमुखः पूर्णकुम्भो द्विजो वा। वेश्या खी सान्द्रमांसं जलचरयुगलं सिद्धमन्नं [यतिर्वा ] शतायुः, प्रस्थाने प्रस्थितानां यदि भवति ध्रुवं सिद्धिरेवं नराणाम् ॥ ७६९ ।। भेरीमृदङ्गमृगमर्दलशङ्खवीणा, वेदध्वनिः सधवमङ्गलगीतघोषा । पुत्रान्विता च युवतिः सुरभिः सवत्सा, धौताम्बरश्च रजकोऽभिमुखः प्रशस्तः ।। ७७० ।। वार्ताकृत् १ पल्लवग्राही २, निद्रालु ३ रतिचञ्चलः ४ । अनुत्थितसमुत्थायी ५, व्याख्यानाऽनह पञ्चकम् ॥ ७७१ ॥ न चौरग्रामं न च राजमारं, प्रयाणकाले न च भारवाह्यम् । एतद्धनं सर्वधनप्रधानं, विद्याधनं सत्पुरुषा बहन्ति ।। ७७२ ॥ अमश्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अनाथा [ निर्धना] पृथिवी नास्ति, आनायाः खलु दुर्लभाः ॥ ७७३ ॥ असारस्य पदार्थस्य, प्रायेणाऽऽडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्ताहग, यादृक् कांस्ये निरीक्ष्यते ॥ ७७४ ॥ कार्याणि बहुमित्राणि, दुर्बलानि बलानि च । वने बद्धो महानागो, मूषकैः परिमोचितः ॥ ७७५ ॥ बहुभिर्न विरोद्धव्यं, दुर्जयो हि महाजनः । स्फुरन्तमपि नागेन्द्र, भक्षयन्ति पिपीलिकाः ॥ ७७६ ॥ सक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो,-नागेन्द्रो निशिताकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ। व्याधिर्भेषजससन्हैश्च विविधैर्मअप्रयोगैर्विष, सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।। ७७७ ॥रे लोलोल्वणकल्लोल !, धिक् ते सागर ! गर्जितम् । यस तीरे तृषाकान्तः, पान्थः पृच्छति कूपिकाम् ॥ ७७८ ॥ वाचको लभते लक्षं, लेख: कोटिं विशेषयेत् । दृष्टे कोटिशतं मूल्यं, निर्मूल्यः स्वेष्टसङ्गमः ॥ ७७९ ।। सुअसायरो अपारो, आउं योवं जिया य दुम्मेहा । तं किंपि सिक्खियवं, जं कजकरं च थोवं च ॥ ७८० ॥ वासश्चर्मविभूषणं शवशिरो भस्माङ्गरागः सदा, गौरेकः स च सारेष्वकुशलः सम्पत्तिरेतादृशी । ईशं स्वं परिहत्य माति जलधि, रसाकर जालवी, कष्टं निर्धनकस्य जीवितमहो! दारैरपि त्वज्यते ॥ ७८१ ॥ धर्मो यत्र धनं तत्र, समराशिप्तया स्थिरम् । यत्राऽधर्मो न तत्रेदं, न च पश्चमयोगतः॥ ७८२ ॥ पुण्यादेव समीहितार्थघटना नो पौरुषात्प्राणिनां, यद्भानोभ्रंमतोऽपि नाऽम्बरतले स्यादष्टमः सैन्धवः । स्वस्थानात्पदमात्रमप्यचलतो विन्ध्यस्य चाऽनेकधा, जायन्ते मधुपालिपालितयशःश्रीलम्भिनः कुम्भिन: ॥ ७८३ ।। अस्माकं बदरी चके, युष्माकं बदरी गृहे। बादरायणसंयोगाद् , यूयं यूयं वयं वयम् ॥ ८४ ॥ पतिः १ श्वशुरता २ ज्येष्ठे, पतिर्देवरताऽनुजे । पाण्डवैः सह पाञ्चाल्या,-त्रितयं
"Aho Shrut Gyanam"
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री ।
त्रितयं त्रिषु ॥ ७८५ ।। पश्चानामपि नो भर्त्ता न सा प्रकृतिः मानवी । मा वृकोदरपादेव एकादशचमूपतिम् ॥ ७८६ ॥
४७
[ इति कृष्णस्य भीमं प्रत्युक्तिः ॥ 1 कृतं प्राज्यं राज्यं जलधिवलये भूमिनिलये, सुखं भुक्तं कैचिद्भुवि नृपतिभिर्जन्म विदितम् । चरं प्राणेन मरणमधुना वीरशयने, शिवा श्वा काको वा स्पृशतु यदि वा पाण्डुतनयः ॥ ७८७ ॥ [ इति दुर्योधनस्य भीमं प्रत्युक्तिः ॥ ] मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्रो विद्वांश्च वृषलीपतिः । उभौ तौ तिष्ठतो द्वारे, कस्य दानं प्रदीयते ॥ ७८८ ॥ [ इति युधिष्ठिरं प्रति भीमोकिः ॥ ] सुखासेव्यं तपो भीम, विद्या कष्टदुरासदा । विद्वांसं पूजयिष्यामि, तपसा किं प्रयोजनम् ? ॥७८९ ॥ [ भीमं प्रति युधिष्ठिरोक्तिः ॥ ] श्वानचगता गङ्गा, क्षीरं मद्यघटस्थितम् | [ कु] अपात्रे पतिता विद्या, किं करोति युधिष्ठिर ! ॥७९० ॥ [ युधिष्ठिरं प्रति अर्जुनोक्तिः ॥ ] न विद्यया केवलया, तपसाऽपि च पात्रता । यत्र स्यातामिमे चोभे, तद्धि पात्रं प्रचक्ष्यते ॥ ७९१ ॥ [ युधिष्ठिरादीन् प्रति द्वैपायनोक्तिर्महाभारते ॥ ] दारिद्र्यानलसन्तापः श्रान्तः सन्तोषवारिणा । याचकाशाविघातान्त - दहः केनोपशाम्यतु ॥ ७९२ ॥ यान्तु यान्तु वत प्राणा-अर्थिनि व्यर्थतां गते । पश्चादपि हि गन्तव्यं क सार्थः पुनरीदृशः ॥ ७९३ ॥ [ माधवाक्यम् ]
बाह्यारिभ्योऽपि तद्युक्त, -मन्तरङ्गारयोऽधिकाः । जीयन्ते शस्त्रतो बाह्या, - अन्तरङ्गाश्च शास्त्रतः || ७९४ ॥ भेरीजर्जर कर्णाश्च वयं प्रासादवासिनः । न चैते पक्षिणो राजन् ! ये यान्ति करताडनात् || ७९५ || दारिद्र्यं नृपतिः स नो निजपतिस्तस्य प्रसादादभूद, भैक्षं भोजनमंशुकं दशदिशः समानि देवालयाः । मद्विद्वेषिणि लब्धसंगतिरिति त्वय्याश्रिते कुप्यता, मद्वृत्त्या विनियोजितास्त्वरयस्तेनाऽत्र नः का गतिः ।। ७९६ ।। समाः षष्टिर्द्विना मनुजकरिणां पचकनिशा (१२० व दिन५ ), हयानां द्वात्रिंशत् ३२, खरकरभयोः पञ्चककृति: २५ । द्विरूपा सैवायुर्वृषमहिषयो १२ द्वादश शुनः, स्मृतं छागादीनां दश च परमं षद्भिरधिकम् ॥ ७९७ ॥ पश्य लक्ष्मण ! पम्पायां, बकः परमधार्मिकः । शनैः शनैः पदं धत्ते, जीवानां वधशङ्कया || ७९८ ।। वैर १ वैश्वानर २ व्याधि-वाद ४ व्यसन ५ लक्षणाः । महानर्थाय जायन्ते, वकाराः पञ्च वर्धिताः ॥ ७९९ ॥ शून्यसप्ताङ्कहस्ताश्च, - चन्द्रेन्दुवसुवह्नयः ( ३८११२९७० ) । एतत्साङ्कनिर्दिष्टो - वनभारः प्रकीर्त्तितः ॥ ८०० ॥ चत्वारः पुष्पिता भारा, अष्टौ च फलपुष्पिताः । वल्लयो भारषटुं च वासुदेवप्रकीर्त्तितम् ॥ ८०१ ॥
अष्टादश भाराः पुनरनेन प्रकारेणाऽपि ---
कल्पवृक्ष १ पारिजात २ मन्दार ३ हरिचन्दन ४ सन्तान ५ वट ६ पिप्पल ७ पिंपर ८ उदुंबर ९ निर्बीज १० वीजभोज्य ११ वृक्ष १२ फलभोज्य १३ मूलभोज्य १४ सर्वभोज्य १५-१६ काष्ठभोज्य १७ पत्रभोज्य १८ इति ॥ ८०२ ॥ ये लेखयन्ति जिनशासनपुस्तकानि
" Aho Shrut Gyanam";
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासही ।
व्याख्यानयन्ति च पठन्ति च पाठयन्ति । शृण्वन्ति रक्षणविधौ च समाद्रियन्ते ते मर्यदेवशिवशर्म नरा लभन्ते || ८०३ || दीपो ज्ञानमयो यस्य, वर्त्तिर्यस्य तपोमयी । ज्वलते शीलतैलेन, न तमस्तस्य तिष्ठति ॥ ८०४ ॥ बालस्त्री मन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।। ८०५ ।। मायासीलह माणुसां, किमुसां किमु पत्तिज्ज ण जाइ । नीलकंठ महुर उलवई, सविस भुजंगम खाइ ॥ ८०६ ॥ शिरसा धार्यमाणोऽपि, सोमः सोमेन शम्भुना । तथापि कृशतां धत्ते, कष्टं खलु पराश्रयः || ८०७ || अलिअं जंपेइ जणो, पुत्तो जं होइ तायसारिच्छो | अत्थमिए रविबिंबे, खणमिकं किं तवउसणी ॥। ८०८ ॥ जम्मंतीए सोगो वडूंतीए च वड्डए चिंता | परिणीआए दंडो, जुवइपिया दुखिओ निचं ॥। ८०९ ॥ न विना मधुमासेन अन्तरं पिककाकयोः । वसन्ते च पुनः प्राप्ते, काकः काकः पिकः पिकः ॥ ८१० ॥ यवागूजरणे जाड्यं, मोदकानां तु का कथा । वचनेऽपि दरिद्रत्वं धनाशा तत्र कीदृशी ॥। ८११ ।। वायुना यत्र नीयन्ते, कुञ्जराः षष्टिहायनाः । गावस्तत्र न गण्यन्ते, मशक्रस्य च का कथा ।। ८१२ ।। अतिपरिचयादवज्ञा, भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । लोकः प्रयागवासी, कूपे स्नानं समाचरति ॥ ८१३ ॥ अपसरणमेव युक्तं, मौनं वा तत्र राजहंसस्य । कटु स्टति निकटवर्त्ती, वाचालटिट्टिभो यत्र ॥ ८१४ ॥ रे बालकोकिल करीरमरुस्थलीषु किं दुर्विदग्ध ! मधुरध्वनिमातनोषि । अन्यः स कोऽपि सहकार - तरुप्रदेशो, यस्मिन् जयन्ति तव विभ्रमभाषितानि ॥ ८१५ ॥ अस्मान् विचित्रवपुषश्चिर पृष्ठलग्नान्, कस्माद्विमुञ्चसि विभो ! यदि वा विमुश्चेः । हा हेति केकिवर ! हानिरियं तवैव, भूपालमूर्द्धनि पुनर्भविता स्थितिर्नः ॥ ८१६ ॥ शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता, किं ब्रूमः शुचितां व्रजन्ति सुधियः स्पर्शेन यस्याऽपरे । किं चाऽतः परमस्ति ते स्तुतिपदं यज्जीवितं देहिनां त्वं चेन्नीचपदेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोद्धुं क्षमः ॥ ८१७ ॥ सत्यं चेत्तपसा च किं ? शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थे न किं ?, सद्विद्या यदि किं धनैः ? सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः १ । लोभश्चेदगुणेन किं ? पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः ?, सौजन्यं यदि किं निजै ? रपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ? ।। ८१८ ॥ अभि १ रापः २ स्त्रियो ३ मूर्खों: ४, सर्पो ५ राजकुलानि ६ षट् । नित्यं यत्नेन सेव्यन्ते, सद्यः प्राणहराणि षट् ॥ ८१९ ।। आयुषो १ राजवित्तस्य २, पिशुनस्य ३ धनस्य च ४ । खलस्नेहस्य ५ देहस्य ६, नाऽस्ति कालो विकुर्वतः ॥ ८२० ॥ त्रयः स्थानं न मुञ्चन्ति काकाः १ कापुरुषा २ मृगाः ३ | अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः १ सत्पुरुषा २ गजाः ३ ।। ८२१ ॥ राजा १ कुलवधू २ विप्रा ३, नियोगि ४ मंत्रिण ५ स्तथा । स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते, दन्ताः ६ केशा ७ नखा ८ नराः ९ ।। ८२२ ।। उपाध्याय १ च वैद्यश्च २, प्रतिभू ३ र्भुक्तनायिका ४ । सूतिका ५ दूतिका ६ चैव, सिद्धे कार्ये तृणोपमाः || ८२३ || चित्रकृत् १ काव्यकर्त्ता च २, कुवैद्यः ३ कुनरेश्वरः ४ । चत्वारो नरकं यान्ति, पञ्चमो ग्रामकूटकः ।। ८२४ ॥ आयुः १ कर्म्म च २ वित्तं च ३, विद्या ४ निधनमेव च ५ । पश्चैतानि हि सृज्यन्ते, गर्भस्थस्यैव देहिनः ।। ८२५ ।। षष्टिर्वामनके दोषा, अशीतिर्मधुपिङ्गले । शतं च टुंटमुटेषु, काणे संख्या न विद्यत || ८२६ ॥ हस्ते नरकपालं ते, मदिरामांसभक्षिणि । भानुः पृच्छति मातङ्गि !, किं तोयं दक्षिणे करे ? ॥ ८२७ ॥
[ इति भानुवाक्यम् ॥ ]
चण्डाली प्राह
मित्रद्रोही १ कृतनच २, स्तेयी ३ विश्वासघातकः ४ । कदाचिश्ञ्चलितो मार्गे, तेनेयं क्षिप्यते
छटा ।। ८२८ ॥
४८
"Aho Shrut Gyanam"
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथासहस्त्री।
कूटसाक्षी १ मृषावादी २, पक्षपाती ३ झघट्टके । कदाचिच्चलितो मार्गे, तेनेयं क्षिप्यते छटा ॥ ८२९ ॥ कण्ठे घोरं गरलमनलज्वालमाला ललाटे, चूडापीडे कुपितफणभृद्भूषणान्यस्थिसंघाः । सख्यं प्रेतैस्तदपि यदसून धारयेदेष शूली, हेतुस्तस्मिन् जयति भगवान् मूर्ध्नि पीयूषभानुः ॥ ८३० ॥ कालिन्ना न गता स्वनामगलितं जाता कलङ्काभिधा, गत्वेन्दु धवलीकृतत्रिभुवनं किं लब्धमुच्चैर्मृगैः । अस्माकं वसतां वने युवतयो वाञ्छन्ति नेत्रोपमां, कस्तूरीहरिणाभिधाऽजनि जने भूमीगतानामपि ॥ ८३१ ॥ युवभिरवलोक्यमानं, स्तनयुगलं तन्वि किं तिरस्कुरुषे । कतिपय दिनव्यपाये, कः पश्येसम्बमानं तत् ॥ ८३२॥ सच्छंदा य सरूवा, सालङ्कारा य सरसउल्लावा। वरकामिणिव गाहा, गाहिज्जती रसं देई ॥ ८३३ ।। सायर ! तुज्झ न दोसो, दोसो अम्हाण पुषकम्माणं । रयणायरंमि भरिए, सालूरो हत्थ मे लग्गो ॥ ८३४ ॥ जाओ कलिंगदेसे, आगमणं विंझदेसमझंमि । मरणं समुद्दतीरे, अजवि किं भविस्सइ तस्स ॥ ८३५ ॥ भिक्षा मे पथिकाय देहि सुभगे! हा! हा! गिरो निष्फलाः, कस्माद् ब्रूहि सखे ! ऽत्र सूतकमभूत्कालः कियान् वर्तते ? । मासः शुद्धिरभून् ? नहि नहि प्रोद्भूतमृत्यु विना, को जातो ? मम दिव्यवित्तहरणे दारिद्र्यनामा सुतः ॥ ८३६ ॥ आग्नेय्या गणभृद्विमानवनिता साध्व्यः स्थिता नैत्रते, ज्योतिर्व्यन्तरभावनेशदयिता वायव्यगास्तत्प्रियाः। ऐशान्यां च विमानवासिनरनार्यः संस्थिता यत्र ता, जैनस्थानमिदं चतुस्त्रिपरिषत्संशोभितं पातु वः ॥ ८३७ ॥ गतं तद्गाम्भीर्य तटमनुगतं जालिकशतैः, सखे! हंसोत्तिष्ठ त्वरितममुतो ग्रामसरसः । न यावत्पकाम्भःकलुषितवपुभूरिविलसद्, बकोटो बाचालश्चरणयुगलं मूर्ध्नि तनुते ॥ ८३८ ॥ दो पंथेहि न गम्मइ, दोमुह सूइई न सीवई कंथा। दोवि कयावि न हुज्जा, इंदिअसुक्खं च मुक्खं च ॥ ८३९॥ ये पुरा वीतरागेण, जिता रागादयो हठात् । मुद्गलीभूय लग्नास्ते, तत्सन्तानस्य पृष्ठतः ॥ ८४०॥ आत्मानदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटादयोमिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र, न वारिणा शुद्धयति चाऽन्तरात्मा ॥ ८४१ ।। सरोषता १ बन्धुजनेषु वैरं २, दरिद्रता ३ बन्धुजनेष्वसङ्गः ४ । अत्यन्तकोपः ५ कटुका च वाणी ६, नरस्य चिह्न नरकागतस्य ॥ ८४२ ॥ क्षुधालुता १ मानविहीनता च २, भयातिरेकः ३ प्रभविष्णुता च ४। मानापमाने समचित्तता च ५, तिर्यग्गतेरागतचिह्नमेतत् ॥ ८४३ ॥ सन्तुष्टता १ मध्यमवर्तिता च २, स्वल्पश्च कोपो ३ निकषायता च । भोगाभिलाषे समचित्तता च ५, भवन्ति मानुष्यसमागतानाम् ॥ ८४४ ॥ ता खलु पूएअवा, रयणत्तयधारिणो सया मुणिणो । तेसिं दाणं देयं, सुद्धं, सुद्धेण भावेणं ।। ८४५ ॥ तित्थस्स मुणी मूलं, मुणीण मूल हवंति असणाई । जो देइ ताणि तेसिं, तु तेण तित्थुन्नईविहिआ ॥ ८४६ ॥ तिथंतरेसु वि जओ, केवलिरहिएसु अञखित्तेसु । उवयारपरा मुणिणो, जिणधम्मधुरंधरा भणिआ ।। ८४७ ।।
१-भवनपतिज्योतिय॑न्तरदेव्य इत्यर्थः । २-इंदिए थावरकाय १ बंभथावरकाय २ सिप्पी थावरकाय ३ समुई थावरकाय ४ आवसी थावरकाय ५ जंगम काय ६ तथा गाथा-इंदी बंभ सिप्पी, सुमई आवसी पंचकायाए । जररत्तसेयहरिया, बहुवत्ता [ना हुँति पंचमीया ॥१॥ तत्र इंद्रियथावरकायर्नु पृथ्वीगोत्र पीतवर्ण पुढवीना जीव एकेद्रिय देवता ११ बंभथावरकायनुं अपगोत्र रक्तवर्ण ब्रह्मदेवता अपकायना जीव । सिप्पिथावरकायर्नु गोत्र तेउकाय वर्ण श्वेत देवता शिल्प तेउकायनो ३। सुमतिथावरकायर्नु गोत्र बाउकाय हरितवर्ण सुमति देवता वायुकायना जीव ४। आवसीथावरकायनुं गोत्र वनस्पतिकाय वर्ण नानाप्रकारनो पातालदेवता वनस्पतिना जीव ५१ तथा जंगम प्रसकाय कहिये। ए छ कायना गोत्र जाणवा । चक्षु इंद्रियनो आकार मसूरनी दाल जेवडो ११ श्रोत्रइंद्रियनो आकार अगत्थियाना फूल जेवडो २१ नासिकानो आकार तिलना फूल सरिखो ३। रसना इंद्रियनो आकार कमलपत्र सरिखो ४। स्पर्श इन्द्रियनो आकार अनेक प्रकारनो छे, इम साधुने आकार मात्र रूप नथी ते माटे पांचे इन्द्रियना विषयविकार दमे ते मुनि वीतराग कहिजे ॥ १॥ ३-तिगरण इति पाठांतरम् ।
খ০ ও
"Aho Shrut Gyanam"
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
गाथासहस्री।
होही जो तित्थयरो, अपच्छिमो इह य भारहे खित्ते । मुणिदाणाओ तेण वि, पाविआ दुल्लहा वोही ॥ ८४८ ॥ के वि हु वीरासणिआ, पउमासणिया निसिज्जआसणिआ। गोदोहिअउक्कडिआ, दंडासणिआ मुणी के वि ॥ ८४९ ॥ के वि हु एगपयहिआ, उद्धभुआ केवि के वि रविदंसी । के वि हु उत्ताणसया, केवि ठिआ उद्धचरणेहिं ॥ ८५०॥ इच्चाइआसणेहिं, चउरासीइहिं विहिअउस्सग्गा । आयावणभूमीए, आयावंता समणसीहा ।। ८५१ ॥ एगे चउत्थछट्टटुमदसमदुवालसद्धमासेहिं । खमणेहि खवंति तणुं, सुदुट्ठकम्मट्टगंठिं च ॥ ८५२ ॥ अवरे आयंबिलिआ, संखादत्ती अ विगयवजी अ । अप्पगसित्थाभोई, उज्झियधम्माइआ अन्ने ॥ ८५३ ॥ केवि सुअं वायंता, संसयठाणाइ के वि पुच्छंता । के वि हु परियटुंता, अणुपेहंता पुणो के वि ।। ८५४ ॥ जिअकोहा जिअमाणा, जिअलोहा जिअपरीसहा धीरा । जिअनिहा जिअमाया, जिइंदिया विजिअमोहबला ॥ ८५५॥
[इति सुदर्शनकथायां चित्रावालगच्छीयश्रीदेवेन्द्रसरिकृतगाथैकादशकम्
गा० ९५.९६०,१०९ पत्रे तथा गो०५७-६३, ७६ पत्रे ॥] नाम्ना गाथासहस्रीति, अन्थोऽयं प्रथितो मया । पण्डितानां च ताम्बूलमिवाऽयं मुखमण्डनम् ॥ १ ॥ गाथाः कियत्यः प्रकृताः कियन्तः, श्लोकाश्च काव्यानि कियन्ति सन्ति । नानाविधग्रन्थ विलोकनश्रमा, देकीकृता अत्र मया प्रयत्नात् ॥ २ ॥ व्याख्याचातुर्यवाञ्छा यदि भवति तदा शास्त्रमेतत्समग्रं, कण्ठे कृत्वा विशेषाऽवगमपरमार्थ गृहीत्वा गुरूक्तेः । व्याख्याकाले विचाले प्रवरमवसरं प्राप्य वाच्यं प्रसक्तं, सभ्येभ्यानां पुरस्ताच्चतुरनरचमत्कारकारं च भाचि ॥ ३ ॥ राज्ये श्रीजिनराजस्य, प्रतापाक्रान्तविष्टपे । आचार्यपदवी प्राप्ते, सूरिश्रीजिनसागरे ।॥ ४ ॥ श्रीजिनचन्द्रगणाधिप-शिष्यादिमसकलचन्द्रगणिशिष्यैः । श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायैः संदर्भितो ग्रन्थः ।। ५ ।। ऋतु-बसु-रस-शशि (१६८६) वर्षे, विनिर्मितो विजयतां चिर ग्रन्थः । व्याख्यानपुस्तकेषु, व्याख्याने वाच्यमानोऽसौ ॥ ६ ॥ इति श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायकृतश्रीगाथासहस्री समाप्तिमगात् ।। दीवे नंदीसरंमी, चउदिसि चउरो अंजणाभा नगिंदा, तेहिं तो वाविमझे दहिमुहागिरिणो सेयवन्ना तहेव । दण्डं दण्हपि तेसिं. रुइररइकरा अंतराले य दो दो. बावन्ना तत्थ तित्थे सुरवरभवणा तेसु वंदे जिणिंदे ॥ १ ॥
॥ इति श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थ चैत्यनमस्कारः ।। यावल्लोकेऽत्र वर्तेते, दिवाकरनिशाकरौ । यावन्महीधरो मेरु-स्तावनन्दतु पुस्तकम् ॥ १ ॥
Patrtaintst.tatut.tuteknirtan ई समाप्तोऽयं ग्रंथः।
- - - --
"Aho Shrut Gyanam"
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________ શ્રી જિનશાસના જય હો !!! II શ્રી ગૌતમસ્વામીન નમઃ | | શ્રી સુધમસ્વિામીને નમ: || જિનશાસનના અણગાર, કલિકાલના શણગારા પૂજ્ય ભગવંતો અને જ્ઞાની પંડિતોએ શ્રુતભક્તિથી પ્રેરાઈને વિવિધ હરતલિખિત ગ્રંથો પરથી સંશોધન-સંપાદન કરીને અપૂર્વજહેમતથી ઘણા ગ્રંથોનું વર્ષો પૂર્વેસર્જનકરેલછે અને પોતાની શક્તિ, સમય અને દ્રવ્યનો સવ્યય કરીને પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય ઉપાર્જન કરેલ છે. કાળના પ્રભાવે જીણ અને લુપ્ત થઈ રહેલા અને અલભ્ય બની જતા મુદ્રિત ગ્રંથો પૈકી પૂજ્ય ગુરુદેવોની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી સ.૨૦૦૫માં 54 ગ્રંથોનો સેટ નં-૧ તથા .૨૦૦૬માં 36 ગ્રંથોનો સેટ ની 2 સ્કેન કરાવીને મર્યાદિત નકલ પ્રીન્ટ કરાવી હતી. જેથી આપણો શ્રુતવારસો બીજા અનેક વર્ષો સુધી ટકી રહે અને અભ્યાસુ મહાત્માઓને ઉપયોગી ગ્રંથો સરળતાથી ઉપલબ્ધ થાય, પૂજ્યા સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણાથી જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી તૈયાર કરવામાં આવેલ પુસ્તકોનો સેટ ભિન્ન-ભિન્ન શહેરોમાં આવેલા વિશિષ્ટ ઉત્તમ જ્ઞાનભંડારોની ભેટ મોકલવામાં આવ્યા હતા. આ બધાજપુસ્તકો પૂજ્ય ગુરુભગવંતોને વિશિષ્ટ અભ્યાસ-સંશોધના માટે ખુબજરુરી છે અને પ્રાયઃ અપ્રાપ્ય છે. અભ્યાસ-સંશોધના જરૂરી પુસ્તકો સહેલાઈથી ઉપલળળની તીમજ પ્રાચીન મુદ્રિત પુસ્તકોનો શ્રુત વારસો જળવાઈ રહે તો શુભ આશયથી આ થોનો જીર્ણોદ્ધાર કરેલ છે. જુદા જુદા વિષયોના વિશિષ્ટ કક્ષાના પુસ્તકોનો જીર્ણોદ્ધાર પૂજ્ય ગુરૂભગવતીની પ્રેરણા અને આશીર્વાદિથી અમો કરી રહ્યા છીએ. લો અભાઈ તથા સંશોધના માટે વધુમાં વઘુઉપયોગ કરીને શ્રુતભક્તિના કાર્યની પ્રોત્સાહન આપશી. લી.શાહ બાબુલાલ સરેમા જોડાવાળાની વંદના મંદિરો જીર્ણ થતાં આજકાલના સોમપુરા દ્વારા પણ ઊભા કરી શકાશે...! = પણ એકાદ ગ્રંથ નષ્ટ થતા બીજા કલિકાલસર્વજ્ઞ કે મહોપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી ક્યાંથી લાવીશું...???