Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 136
________________ प्रस्तावना 113 विशुद्ध सत्व कहा गया है उसी को नागसेन ने विशुद्ध मनोविज्ञान कहा है। उपनिषदों में ब्रह्म-दशा का निरूपण 'नेति नेति' कह कर किया गया है और इसी बात को पूर्वोक्त प्रकार से नाग सेन ने कहा है । जो वस्तु अनुभव-ग्राह्य हो, उस का वर्णन सम्भव नहीं है और यदि किया भी जाए तो वह अधूरा रह जाता है, अतः क्षेष्ठ मार्ग यही है कि यदि निर्वाण के स्वरूप का ज्ञान करना ही हो, तो स्वयं उसका साक्षात्कार किया जाए । भगवान् महावीर ने भी विशुद्ध आत्मा के विषय में कहा है कि, वहाँ वाणी की पहुँच नहीं, तर्क की गति नहीं, बुद्धि अथवा मति भी वहाँ पहुँचने में असमर्थ है; यह दीर्घ नहीं, ह्रस्व नहीं, गोल नहीं, त्रिकोण नहीं, कृष्ण नहीं, नील नहीं, स्त्री नहीं और पुरुष भी नहीं है । यह उपमा रहित है और अनिर्वचनीय है । इस प्रकार भगवान् महावीर ने भी उपनिषदों और बुद्ध के समान 'नेति नेति' का ही प्राश्रय लेकर विशुद्ध अथवा मुक्त आत्मा का वर्णन किया है । इस मुक्तात्मा के स्वरूप का यथार्थ अनुभव उसी समय होता है जब वह देह-मुक्त होकर मुक्ति प्राप्त करे। ऐसी वस्तु-स्थिति होने पर भी दार्शनिकों ने अवर्णनीय का भी वर्णन करने का प्रयत्न किया है। प्राचार्य हरिभद्र ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि, यद्यपि उन वर्णनों में परिभाषायों का भेद है, तथापि तत्त्व में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने कहा है कि, संसारातीत तत्त्व जिसे निर्वाण भी कहते हैं, अनेक नामों से प्रसिद्ध है, किन्तु तत्त्वतः एक ही है। इसी एक तत्त्व के ही सदाशिव परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथता आदि नाम चाहे भिन्न-भिन्न हों, परन्तु वह तत्त्व एक ही है । इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है। उन्होंने कर्म-विमुक्त परमात्मा के पर्याय कहे हैं-ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध, परमात्मा । इससे भी ज्ञात होता है कि परम तत्त्व एक ही है, नामों में भेद हो सकता है । ___ इस प्रकार ध्येय की दृष्टि से भले ही निर्वाण में भेद नहीं है, किन्तु दार्शनिकों ने जब उसका वर्णन किया तब उसमें अन्तर पड़ गया और उस अन्तर का कारण दार्शनिकों की पृथक्पृथक् तत्त्व-व्यवस्था है। इस तत्त्व-व्यवस्था में जैसा भेद है, वैसा ही निर्वाण के वर्णन में दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है । उदाहरणतः न्याय-वैशेषिक आत्मा और उसके ज्ञान, सुखादि गणों को भिन्न-भिन्न मानते हैं और आत्मा में ज्ञानादि की उत्पत्ति को शरीर पर आश्रित मानते हैं। अतः यदि मुक्ति में शरीर का अभाव हो जाता हो, तो न्याय-वैशेषिकों को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि, मुक्तात्मा में ज्ञान, सुखादि गुणों का भी प्रभाव होता है । यही कारण है कि उन्होंने यह बात मानी कि, मुक्ति में आत्मा के ज्ञान, सुखादि गुणों की सत्ता नहीं रहती, केवल विशुद्ध चतन्य तत्त्व शेष रहता है । इसी का नाम मुक्ति है। जीवात्मा को मुक्ति में ज्ञान, सुखादि से 1. बृहदा० 4.5.15 प्राचारांग सू० 170 3. संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । तद्धयेकमेव नियमात् शब्दभेदेऽपि तत्त्वतः ।। योगदृष्टिसमुच्चय 129. 4. सदाशिवः परब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्दैस्तदुच्यतेऽन्वार्थादेक मेवैवमादिभिः ।। योगदृष्टि० 130; षोडशक 16.1-4 भावप्राभूत 149 6. न्यायभाष्य 1.1,21; न्यायमंजरी पृ, 508 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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