Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 163
________________ 140 गणधरवाद (11) कर्मफल का क्षेत्र : __ कर्म के नियम की मर्यादा क्या है ? अर्थात् यहाँ इस बात पर विचार करना भी अावश्यक है कि, जीव और जड़-रूप दोनों प्रकार की सृष्टि में कर्म का नियम सम्पूर्णतः लागू होता है अथवा उसकी कोई मर्यादा है ? एक-माम काल, ईश्वर, स्वभाव आदि को कारण मानने वाले जिस प्रकार समस्त कार्यों में काल या ईश्वरादि को कारण मानते हैं, उसी प्रकार क्या कर्म भी सभी कार्यों की उत्पत्ति में कारण-रूप है अथवा उसकी कोई सीमा है ? जो वादी केवल एक चेतन तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, उनके मत में कर्म, अदृष्ट अथवा माया समस्त कार्यों में साधारण निमित्त कारण है । विश्व की विचित्रता का अाधार भी यही है। नयायिक. वैशेषिक केवल एक तत्त्व से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति नहीं मानते, फिर भी वे समस्त कार्यों में कर्म या अदृष्ट को साधारण कारण मानते हैं । अर्थात् जड़ एवं चेतन के समस्त कार्यों में अदृष्ट एक साधारण कारण है। चाहे सृष्टि जड़-चेतन की हो, परन्तु वे यह बात स्वीकार करते हैं कि वह वेतन के प्रयोजन की सिद्धि में सहायक है, अतः इसमें चेतन का अदृष्ट निमित्त कारण है। बौद्ध-दर्शन की मान्यता है कि, कर्म का नियम जड़-सृष्टि में काम नहीं करता । यही नहीं, उनके मतानुसार जीवों की सभी प्रकार की वेदना का भी कारण कर्म नहीं है। मिलिन्दप्रश्न में जीवो की वेदना के पाठ कारण बताए गये हैं :-वात, पित्त, कफ, इन तीनों का सन्निपात, ऋतु, विषमाहार, औपक्रमिक और कर्म । जीव इन पाठ कारणों में से किसी भी एक कारण के फल-स्वरूप वेदना का अनुभव करता है। प्राचार्य नागसेन ने कहा है कि, वेदना के उपर्युक्त पाठ कारणों के होने पर भी जीवों की सम्पूर्ण वेदना का कारण कर्म को ही मानना मिथ्या है । वस्तुतः जीवों की वेदना का अत्यन्त अल्प भाग पूर्वकृत कर्म के फल का परिणाम है, अधिकतर भाग का प्राधार अन्य कारण हैं । कौन-सी वेदना किस कारण का परिणाम है, इस बात का अन्तिम निर्णय भगवान बुद्ध ही कर सकते हैं । जैन मतानुसार भी कर्म का नियम आध्यात्मिकसष्टि में लागू होता है । भौतिक-सृष्टि में यह नियम अकि चित्कर है। जड़-सृष्टि का निर्माण उसके अपने ही नियमानुसार होता है । जीव-सृष्टि में विविधता का कारण कर्म का नियम है। जीवों के मनुष्य, देव, तिर्यञ्च, नारकादि विविध रूप, शरीरों की विविधता, जीवों के सुख, दुःख, ज्ञान, प्रज्ञान, चारित्र, प्रचारित्र प्रादि भाव-कर्म के नियमानुसार हैं । किन्तु भूकम्प जैसे भौतिक कार्यों में कर्म के नियम का लेश-मात्र भी हस्तक्षेप नहीं है। जब हम जैन-गास्त्रों में प्रतिपादित कर्म की मूल और उत्तर-प्रकृतियों तथा उनके विपाक पर विचार करते हैं, तो यह बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है। (12) कर्मबन्ध और कर्मफल की प्रक्रिया : जैन-शास्त्रों में इस बात का सुव्यवस्थित वर्णन है कि, प्रात्मा में कर्म-बन्ध किस प्रकार होता है और बद्ध कर्मों की फल-क्रिया कैसी है । वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में उपनिषद् तक के 1. मिलिन्दप्रश्न 4.1.62, पृ० 137 2. छठे कर्मग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद में पं० फूलचन्द जी की प्रस्तावना देखें- पृ० 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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