Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 171
________________ 148 गणधरवाद हो सकती है । इसी प्रकार सत्कार्य करके बाँधे गये सत्कर्म की स्थिति को भी असत्कार्य द्वारा कम किया जा सकता है। अर्थात् संसार की वृद्धि-हानि का प्राधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा विद्यमान अध्यवसाय पर विशेषत: निर्भर है। 5. संक्रमण-इस विषय में प्रस्तुत ग्रन्य में विस्तार-पूर्वक वर्णन है । कर्म-प्रकृति के पुद्गलों का परिणमन अन्य सजातीय प्रकृति में हो जाना संक्रमण कहलाता है। सामान्यतः उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण होता है, मूल प्रकृतियों में नहीं । इस नियम के अपवादों का उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में है। 6. उदय-कर्म का अपना फल प्रदान करना उदय कहलाता है। कुछ कर्म केवल प्रदेशोदय युक्त होते है । उदय में आने पर उनके पुद्गलों की निर्जरा हो जाती है, उनका कुछ भी फल नहीं होता। कुछ कर्मों का प्रदेशोदय के साथ-साथ विपाकोदय भी होता है। वे अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर नष्ट हो जाते हैं। 7. उदीरणा--नियत काल से पहले कर्म का उदय में प्राना उदीरणा कहलाता है। जिस प्रकार प्रयत्न-पूर्वक नियत काल से पहले ही फलों को पकाया जा सकता है, उसी प्रकार नियत काल से पूर्व ही बद्ध कर्मों का भोग किया जा सकता है : सामान्यत: जिस कर्म का उदय जारी हो, उसके सजातीय कर्म की ही उदीरणा सम्भव है । 8. उपशमन-कर्म की जिस अवस्था में उदय अथवा उदीरणा सम्भव न हो, परन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण की सम्भावना हो, उसे उपशमन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि कर्म को ढंकी हुई अग्नि के समान बना दिया जाय जिससे वह उस अग्नि की तरह फल न दे सके । किन्तु जिस प्रकार अग्नि से आवरण के दूर हो जाने पर वह पुनः प्रज्वलित होने में समर्थ है, उसी प्रकार कर्म की इस अवस्था के समाप्त होने पर वह पुनः उदय में आकर फल देता है। 9. निधत्ति-कर्म की उस अवस्था को निधत्ति कहते हैं जिसमें वह उदीरणा और संक्रमण में असमर्थ होता है, किन्तु इस अवस्था में उद्वर्तन और अपवर्तन सम्भव है। ___ 10. निकाचना-कर्म की वह अवस्था निकाचना कहलाती है जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण और उदीरणा सम्भव ही न हो । अर्थात् जिस रूप में इस कर्म का बन्धन हुप्रा हो, उसी रूप में उसे अनिवार्य रूप से भागना ही पड़ता है। अन्य दर्शन-ग्रन्थों में कर्म की इन अवस्थानों का वर्णन शब्दशः दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु इनमें से कुछ अवस्थात्रों से मिलते-जुलते विवरण अवश्य मिलते हैं। योगदर्शन-सम्मत नियत-विपाकी कर्म जैन-सम्मत निकाचित कर्म के सदृश समझना चाहिए । उसकी पावापगमन प्रक्रिया जैन-सम्मत संक्रमण है। योगदर्शन में अनियतविपाकी कुछ ऐसे भी कम हैं जो बिना फल दिये ही नष्ट हो जाते हैं । इनकी तुलना जैनों के प्रदेशोदय से हो सकती है। योग-दर्शन में क्लेश की चार अवस्थाएँ मान्य हैं-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न, उदार। 1. गाथा 1938 से 2. योगदर्शन-भाष्य 2.13 3. योगदर्शन 2.4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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