Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 172
________________ प्रस्तावना 149 उपाध्याय यशोविजयजी ने उनकी तुलना जैन-सम्मत मोहनीय-कर्म की सत्ता, उपशम (क्षयोपशम), विरोधी प्रकृति के उदय से व्यवधान और उदय से क्रमशः की है।। (15) कर्म-फल का संविभाग : अब इस विषय पर विचार करने का अवसर है कि एक व्यक्ति अपने किये हुए कर्म का फल दूसरे व्यक्ति को दे सकता है अथवा नहीं ? वैदिकों में श्राद्धादि क्रिया का जो प्रचार है, उसे देखते हुए यह निष्कर्ष निकलता है कि, स्मार्तधर्मानुसार एक के कर्म का फल दूसरे को मिल सकता है । बौद्ध भी इस मान्यता से सहमत हैं । हिन्दुओं के समान बौद्ध भी प्रेतयोनि को मानते हैं । अर्थात् प्रेत के निमित्त जो दान, पुण्यादि किया जाता है, प्रेत को उसका फल मिलता है। मनुष्य मर कर तिर्यञ्च नरक अथवा देवयोनि में उत्पन्न हुअा हो, तो उसके उद्देश्य से किये गये पुण्य-कर्म का फल उसे नहीं मिलता, किन्तु चार प्रकार के प्रेतों में केवल परदत्तोपजीवी प्रेतों को ही फल मिलता है। यदि जीव परदत्तोपजीवी प्रेतावस्था में न हो, तो पुण्य-कर्म के करने चाले को ही उसका फल मिलता है, अन्य किसी को भी नहीं मिलता। पुनश्च, कोई पाप-कर्म करके यदि यह अभिलाषा करे कि, उसका फल प्रेत को मिल जाए, तो ऐसा कभी नहीं होता। बौद्धों का सिद्धान्त है कि, कुशल-कर्म का ही संविभाग हो सकता है, अकुशल का नहीं। राजा मिलिन्द ने प्राचार्य नागसेन से पूछा कि, क्या कारण है कि कुशल का ही संविभाग हो सकता है, अकुशल का नहीं ? प्राचार्य ने पहले तो यह उत्तर दिया कि, आपको ऐसा प्रश्न नहीं पूछना चाहिए। फिर यह बताया कि पाप-कर्म में प्रेत की अनुमति नहीं, अतः उसे उसका फल नहीं मिलता । इस उत्तर से भी राजा सन्तुष्ट न हुआ। तब नागसेन ने कहा कि, अकुशल परिमित होता है अत: उसका संविभाग सम्भव नहीं है, किन्तु कुशल विपुल होता है अतः उसका संविभाग हो सकता है । महायान बौद्ध बोधिसत्त्व का यह आदर्श मानते हैं कि, वे सदा ऐसी कामना करते हैं कि उनके कुशल-कर्म का फल विश्व के समस्त जीवों को प्राप्त हो । अतः महायान मत के प्रचार के बाद भारत के समस्त धर्मों में इस भावना को समर्थन प्राप्त हुआ कि, कुशल कर्मों का फल समस्त जीवों को मिले । किन्तु जैनागम में इस विचार अथवा इस भावना को स्थान नहीं मिला। जैन-धर्म में प्रेतयोनि नहीं मानी गई है । सम्भव है कि कर्म-फल के असंविभाग की जन-मान्यता का यह भी एक प्राधार हो । जैन-शास्त्रीय दृष्टि तो यही है कि, जो जीव कर्म करे, उसे ही उसका फल भोगना पड़ता है। कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं बन सकता। किन्तु लौकिक दृष्टि का 1. योगदर्शन (पं० सुखलालजी) प्रस्तावना पृ० 54 2. मिलिन्दप्रश्न 4.8, 30-35, पृ० 288; कथावत्थु 7.6.3, पृ० 348; प्रेतों की कथानों के संग्रह के लिए पेतवत्थु तथा विमलाचरण लॉ कृत Buddhist conception of spirits देखे। संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्म । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले ण बंधवा बंधवयं उवेति ॥-उत्तरा० 4.4 माया पिया ण्हसा भाता भज्जा पुत्ता य पोरसा । नालं ते मम ताणाय लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ -उत्तरा० 6.3; उत्तरा० 14.12; 20.23-37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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