Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ 146 गणधरवाद हो जाएगा। नहुष देव था, अर्थात् उसकी देव-रूप में जन्म सौर देवायु दोनों बातें जारी थीं। फिर भी कुछ समय के लिए सर्प बन कर उसने दुःख का भोग किया और तदनन्तर वह पुनः देव बन गया। यह दृष्टजन्म-वेदनीय भोग का उदाहरण है। नन्दीश्वर ने मनुष्य होते हुए भी देवायु और देव-भोग प्राप्त किए, किन्तु उसका मनुष्य जन्म जारी रहा। वासना का विपाक असंख्य जन्म, आयु और भोग माने गये हैं। कारण यह है कि, वासना की परम्परा अनादि है। जिस प्रकार योग-दर्शन में कृष्ण-कर्म की अपेक्षा शुक्ल-कर्म को अधिक बलवान् माना गया है और कहा गया है कि, शुक्ल-कर्म का उदय होने पर कृष्ण-कर्म फल दिये बिना ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार बौद्धों ने भी अकुशल-कर्म की अपेक्षा कुशल-कर्म को अधिक बलवान् माना है, किन्तु वे कुशल-कर्म को अकुशल-कर्म का नाशक नहीं मानते । इस लोक में पापी को अनेक प्रकार के दण्ड एवं दुःख भोगने पड़ते हैं और पुण्यशाली को अपने पुण्य कार्यों का फल प्रायः इसी लोक में नहीं मिलता । बौद्धों ने इसका कारण यह बताया है कि, पाप परिमित हैं अत: उसके विपाक का अन्त शीघ्र ही हो जाता है, किन्तु कुशल-कर्म विपुल हैं, अतः उसका दीर्घकाल में होता है । यद्यपि कुशल और अकुशल दोनों का फल परलोक में मिलता है, तथापि अकुशल के अधिक सावध होने के कारण उसका फल यहाँ भी मिल जाता है । पाप की अपेक्षा पुण्य विपुलतर क्यों हैं ? इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि, पाप करने के पश्चात् मनुष्य को पश्चात्ताप होता है और वह कहता है कि, अरे ! मैंने पाप किया। इससे पाप की वृद्धि नहीं होती, किन्तु शुभ काम करने के बाद मनुष्य को पश्चात्ताप नहीं होता, बल्कि प्रमोद-प्रानन्द होता है, अतः उसका पुण्य उतरोतर वृद्धि को प्राप्त करता है। बौद्धों के मत में कृत्य के आधार पर कर्म के जो चार भेद किये गये हैं उनमें एक जनक-कर्म है और दूसरा उसका उत्थम्भक है। जनक-कर्म नए जन्म को उत्पन्न कर विपाक प्रदान करता है, किन्तु उत्थम्भक अपना विपाक प्रदान न कर दूसरों के विपाक में अनुकूल (सहायक) बन जाता है । तीसरा कर्म उपपीड़क है जो दूसरे कर्मों के विपाक में बाधक बन जाता है । चौरा कर्म उपघातक है जो अन्य कर्मों के विपाक का घात कर अपना ही विपाक प्रकट करता है। पाकदान के क्रम को लक्ष्य में रखकर बौद्धों में कर्म के ये चार प्रकार माने गए हैं-- गरुक, बहुल अथवा प्राचिण्ण, आसन्न तथा अभ्यस्त । इनमें गरुक तथा बहुल दूसरों के विपाक को रोककर पहले अपना फल प्रदान करते हैं। आसन्न का अर्थ है मृत्यु के समय किया गया, वह भी पूर्वकर्म की अपेक्षा अपना फल पहले दे देता है। पहले के कर्म कैसे भी हों, परन्तु --- - --- 1. योग-दर्शन 2.13, पृ० 171 2. मिलिन्दप्रश्न 4.8.24-29, पृ० 284 1. मिलिन्दप्रश्न 3.36 4. अभिधम्मत्थसंग्रह 5.19; विसुद्धिमग्ग 19.16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188