Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 141
________________ 118 उपनिषदों के व्याख्याकारों का जीवन्मुक्ति के विषय में एक मत नहीं है । प्राचार्य शंकर, विज्ञानभिक्षु और वल्लभ इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, किन्तु भक्ति मार्ग के अनुयायी अन्य वेदान्ती रामानुज, निम्बार्क और मध्व इसे नहीं मानते ' । बौद्धों के मत में 'सोपादिसेस निर्वाण' और 'अनुपादिसेस निर्वाण' क्रमशः जीवन्मुक्ति विदेह मुक्ति के नाम हैं । उपादि का अर्थ है पाँच स्कंध । जब तक ये शेष हों तब तक 'सोपादिसेस निर्वाण' और जब इन स्कंधों का निरोध हो जाय तब 'अनुपादिसेस निर्वाण 2 होता है । न्याय-वैशेषिक 3 और सांख्य योग 4 मत में भी जीवन्मुक्ति सम्भव मानी गई है। जो विचारकगण जीवन्मुक्ति को स्वीकार नहीं करते, उनके मत में आत्म-साक्षात्कार होते ही समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं और आत्मा विदेह होकर मुक्त बन जाती है । इसके विपरीत जो जीवन्मुक्ति मानते हैं, उनकी मान्यतानुसार प्रात्म-साक्षात्कार हो जाने पर भी कर्म अपने समय पर ही फल देकर क्षीण होते हैं, तत्काल नहीं । इस प्रकार ग्रात्मा पहले जीवन्मुक्त बनती है और फिर कालान्तर में शेष संस्कार क्षीण होने पर विदेह मुक्त | ( श्रा) कर्मविचार समस्त गणधरवाद में कर्म का विचार कई स्थानों पर किया गया है । दूसरे गणधर प्रग्निभूति ने तो उसके अस्तित्व के विषय में ही प्रश्न उपस्थित किया है और भगवान् महावीर कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है । साथ ही कर्म प्रदृष्ट है, मूर्त है, परिणामी है, विचित्र है, अनादिकाल से सम्बद्ध है, इत्यादि विविध विषयों की चर्चा की गई है । पाँचवे गणधर सुधर्मा के साथ इस लोक और परलोक के सादृश्य- वैसादृश्य की चर्चा हुई । उस अवसर पर भी यह बताया गया है कि, यही लोक हो अथवा परलोक, किन्तु उसके मूल में कर्म की सत्ता है। और संसार कर्म - मूलक ही । छठे गणधर की चर्चा का विषय बन्ध श्रौर मोक्ष है, अतः उसमें भी जीव का कर्म के साथ बन्ध और उसकी कर्म से मुक्ति की ही चर्चा है । उस समय भी कर्म की सामान्य चर्चा के उपरान्त यह विचार किया गया है कि, जीव पहले है अथवा कर्म, और दोनों को ही अनादि माना गया है। नौवें गणधर की चर्चा का मुख्य विषय पुण्य पाप है, अतः उसमें शुभ कर्म और अशुभ कर्म के अस्तित्व की चर्चा ही प्रधान है । इस प्रसंग पर दूसरे गणधर से हुई चर्चा के कई विषयों की पुनरावृत्ति करने के पश्चात् कर्म-सम्बन्धी अनेक नई बातों की भी चर्चा हुई है, जैसे कि कर्म के संक्रम का नियम, कर्म ग्रहण की प्रक्रिया, कर्म का शुभाशुभ रूप में परिणमन, कर्म के भेद इत्यादि । दसवें गणधर ने परलोक विषयक चर्चा की है, उसमें भी यह तथ्य स्वीकृत है कि परलोक कर्माधीन है। अंतिम गणधर के साथ हुई 1. 2. 3. 4. प्रो० भट्ट की पूर्वोक्त प्रस्तावना देखें । विद्धिमग्ग 16.73 गणधरवाद न्याय - भाष्य 4.2.2 सांख्यका० 67; योग- भाष्य 4.30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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