Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 158
________________ प्रस्तावना अर्थात् यहाँ कर्म का अभिप्राय मात्र प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं अपितु प्रत्यक्ष कर्म-जन्य संस्कार है । बौद्ध परिभाषा में उसे वासना और अविज्ञप्ति कहते हैं। मानसिक क्रिया जन्य-संस्कार (कर्म) को वासना और वचन एवं काय जन्य-संस्कार (कर्म) को अविज्ञप्ति' कहते हैं । यदि तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि, बौद्ध सम्मत कर्म के कारणभूत राग, द्वेष एवं मोह जैन- सम्मत भाव-कर्म हैं, मन, वचन, काय का प्रत्यक्ष- कर्म जैन-मत में योग है और इस प्रत्यक्ष कर्म से उत्पन्न वासना तथा अविज्ञप्ति द्रव्य-कर्म हैं । विज्ञानवादी बौद्ध कर्म को वासना शब्द से प्रतिपादित करते हैं । प्रज्ञाकर का कथन है कि, जितने भी कार्य हैं, वे सब वासना - जन्य हैं । ईश्वर हो अथवा कर्म (क्रिया), प्रधान (प्रकृति) हो या अन्य कुछ, इन सबका मूल वासना ही है । न्यायी ईश्वर को मानकर यदि विश्व की विचित्रता की उपपत्ति की जाये तो भी वासना को स्वीकार किये बिना काम नहीं चलता । अर्थात् ईश्वर, प्रधान, कर्म इन सब नदियों का प्रवाह वासना समुद्र में मिलकर एक हो जाता है । 135 शून्यवादी मत में माया अथवा अनादि अविद्या का ही दूसरा नाम बासना है । वेदान्त मत में भी विश्व वैचित्य का कारण अनादि अविद्या अथवा माया है । मीमांसकों ने यागादि कर्म-जन्य अपूर्व नाम के एक पदार्थ की सत्ता स्वीकार की है । उनकी वे यह युक्ति देते हैं :- मनुष्य जो कुछ अनुष्ठान करता है वह क्रिया रूप होने के कारण क्षणिक होता है, अत: उस अनुष्ठान से अपूर्व नामक पदार्थ का जन्म होता है; जो यागादि-कर्म अनुष्ठान का फल प्रदान करता है । कुमारिल ने इस अपूर्व पदार्थ की व्याख्या करते हुए कहा है कि, पूर्व का अर्थ है योग्यता । जब तक यागादि-कर्म का अनुष्ठान नहीं किया जाता, तब तक वे यागादि-कर्म और पुरुष दोनों ही स्वर्ग-रूप फल उत्पन्न करने में असमर्थ (योग्य) होते हैं, परन्तु अनुष्ठान के पश्चात् एक ऐसी योग्यता उत्पन्न होती है जिस से कर्ता को स्वर्ग का फल मिलता है । इस विषय में श्राग्रह नहीं करना चाहिए कि यह योग्यता पुरुष की है अथवा यज्ञ की । इतना जानना पर्याप्त है कि वह उत्पन्न होती है । अन्य दार्शनिक जिसे संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य, शक्ति कहते हैं, उसे मीमांसक अपूर्व शब्द के प्रयोग से व्यक्त करते हैं परन्तु वे यह अवश्य मानते हैं कि, वेद-विहित कर्म से I. अभिधर्मको चतुर्थ परिच्छेद, Keith : Buddhist philosophy p. 203. प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० 75, न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की टिप्पणी पृ० 177-78 में 2. 3. 4. 5. ब्रह्मसूत्र - शांकर भाष्य 2.1.14 शाबर भाष्य 2.1.5; तन्त्रवार्तिक 2.1.5; शास्त्रदीपिका पृ० 80 कर्मभ्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा । योग्यता शास्त्रगम्या या परा साऽपूर्वमिष्यते ।। तन्त्रवा० 2.1.5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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