Book Title: Gandharwad
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 159
________________ 136 गणधरवाद जिस संस्कार अथवा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसी को अपूर्व कहना चाहिए, अन्य कर्म-जन्य संस्कार अपूर्व नहीं हैं। मीमांसक यह भी मानते हैं कि, अपूर्व अथवा शक्ति का प्राश्रय आत्मा है और प्रात्मा के समान अपूर्व भी अमूर्त है । ___मीमांसकों के इस अपूर्व की तुलना जैनों के भाव-कर्म से इस दृष्टि से की जा सकती है कि दोनों को अमूर्त माना गया है। वस्तुतः अपूर्व जैनों के द्रव्य-कर्म के स्थान पर है । मीमांसक इस क्रम को मानते हैं :--कामना-जन्य कर्म---यागादि-प्रवृत्ति और यागादि-प्रवृत्तिजन्य अपूर्व । अत: काम या तृष्णा को भाव-कर्म, यागादि-प्रवृत्ति को जैन-सम्मत योग-व्याापर और अपूर्व को द्रव्य-कर्म कहा जा सकता है । पुनश्च, मीमांसकों के मतानुसार अपूर्व एक स्वतन्त्र पदार्थ है, अतः यही उचित प्रतीत होता है कि उसे द्रव्य-कर्म के स्थान पर माना जाए। यद्यपि द्रव्य कर्म अमूर्त नहीं है , तथापि अपूर्व के समान अतीन्द्रिय तो है ही। कुमारिल इस अपूर्व के विषय में भी एकान्त आग्रह नहीं करते । यज्ञ-फल को सिद्ध करने के लिए उन्होंने अपूर्व का समर्थन तो किया है, किन्तु इस कर्म-फल की उपपत्ति अपूर्व के बिना भी उन्होंने स्वयं की है। उनका कथन है कि, कर्म द्वारा फल ही सूक्ष्म शक्ति रूप से उत्पन्न हो जाता है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति हठात् नहीं होती, किन्तु वह शक्ति-रूप में सूक्ष्मतम, सूक्ष्मतर और सूक्ष्म होकर बाद में स्थूल-रूप से प्रकट होता है । जिस प्रकार दूध में खटाई मिलाते ही दही नहीं बन जाता, परन्तु अनेक प्रकार के सूक्ष्म-रूपों को पारकर वह अमुक समय में स्पष्ट रूप से दही के आकार में व्यक्त होता है, उसी प्रकार यज्ञ-कर्म का स्वर्गादि फल अपने सूक्ष्म-रूप में तत्काल उत्पन्न होकर, बाद में काल का परिपाक होने पर स्थूल-रूप से प्रकट होता है। शंकराचार्य ने मीमांसक-सम्मत इस अपूर्व की कल्पना अथवा सूक्ष्म शक्ति की कल्पना का खण्डन किया है और यह बात सिद्ध की है कि, ईश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करता है। उन्होंने इस पक्ष का समर्थन किया है कि, फल की प्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है। - कर्म के स्वरूप की इस विस्तृत विचारणा का सार यही है कि, भाव-कर्म के विषय में किसी भी दार्शनिक को आपत्ति नहीं है । सभी के मत में राग, द्वेष और मोह भाव-कर्म अथवा कर्म के कारण रूप हैं । जैन जिसे द्रव्य-कर्म कहते हैं, उसी को अन्य दार्शनिक कर्म कहते हैं। संस्कार, वासना, प्रविज्ञप्ति, माया, अपूर्व इसी के नाम हैं। हम यह देख चुके हैं कि, वह 1. तन्त्रवातिक पृ० 395-96 2. तन्त्रवा० पृ० 398; शास्त्रदीपिका पृ० 80 3. तन्त्रवा० पृ० 398 न्यायावतारवार्तिक में मैंने इस दृष्टि से तुलना की है। टिप्पणी पृ० 181 सूक्ष्मशक्त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते–तन्त्रवा० पृ० 395 6. ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य 3 2.38-41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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