Book Title: Ek Sadhe Sab Sadhe
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 114
________________ १०४ इक साधे सब सधे जग लड़वा दे। हाथी चलत है अपनी गति से कुतर भुंसत, वां को भुंसवा दे। तू तो राम सुमिर जग लड़वा दे। तुम्हें तो बस आनंदित रहना है, प्रसन्न रहना है, मस्त रहना है - जीवन की हर धूप में, हर छाँव में । परिवर्तन स्वत: होता जाएगा, आत्म-विजय स्वत: होती रहेगी। असत्य का प्रतिकार करने में, सच का स्वीकार और समर्थन करने में कोई तुम पर संदेह करे, परवाह नहीं। लोग समझते ही नहीं कि ध्यानी के किस व्यवहार में, किस शब्द में, क्या रहस्य छिपा हुआ है। लोग तुम पर भले ही संशय करे, तुम नि:संशय रहो । नि:संशय होकर आगे बढ़ो। धीरज धरो, ध्यान के फूल, ध्यान की समझ विकसित करने का यह व्यावहारिक मन्त्र है, कीमिया है। परम पुरुष प्रभु सद्गुरु .... हों वंदन अगणित । प्रभुश्री कोरा कागज भेजूं कि आँखों में पूछु, यह-वह क्या पूछु ? या मौन प्रतीक्षा करूँ? अहोभाव पूर्ण नमन ! – मीरा अतिसुंदर ! आपका प्रश्न, प्रश्न नहीं, हृदय की उत्कंठा है, मौन का मुखरित होना है, अहोभाव और आनंद से टपके आँसुओं की बूंद है । पूछने को तो सारे ही लोग प्रश्न पूछ रहे हैं, तुम तो प्रश्न के पार हो प्रभु ! प्रश्नोत्तर मनोमस्तिष्क की संतुष्टि के लिए हैं। आखिर तुम कुछ भी पूछोगे, सत्य के बारे में ही पूछोगे। मैं जो कुछ कहूँगा सत्य के संबंध में ही कहूँगा। सत्य को कहा नहीं जा सकता । सत्य तो बस, है । सत्य के बारे में कहना या सत्य के संबंध में कुछ कहना सत्य के सागर के ऊपर-ऊपर ही तैरना हुआ। तुम मुझे कोरा कागज भेजो, तब भी मैं तुम्हारे हृदय को पढूंगा। औरों से मैं कुछ कहूँ भी, पर तुम्हें मैं जो पढ़ने के लिए दूंगा, वह कोरा कागज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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