Book Title: Ek Sadhe Sab Sadhe
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 123
________________ ध्यानयोग-विधि-१ ११३ चाहिए । सामान्य रूप से साँस लेते हुए अपने सामर्थ्य के अनुसार आसन की स्थिति में रहें, फिर धीरे-धीरे साँस भरते हुए सीधे हों, दायाँ हाथ नीचे ले आएँ । अब यही क्रिया बायीं ओर से दायीं ओर झुककर करें। पूरे आसन के दौरान रक्त-प्रवाह में आते परिवर्तन पर ध्यान रखें। यह आसन रीढ़ को स्वस्थ और लचीला बनाता है, पाचन-क्रिया को सुधारता है, स्नायुओं को सक्रिय करता है। (ख) त्रिकोणासन : सीधे खड़े हो जाएँ। दोनों पैरों के बीच लगभग एक मीटर की दूरी रखें। दोनों हाथों को कंधों के समानान्तर दायें-बायें फैलाएँ । साँस भरें । साँस छोड़ते हए धीरे-धीरे सामने झुकते हए दायें हाथ से बायें पाँव के अंगूठे को स्पर्श करें। बायां हाथ ऊपर आसमान की ओर उठेगा। गर्दन को ऊपर की ओर घुमाते हुए दृष्टि को बायें हाथ की हथेली पर स्थिर करें। सामान्य साँस लेते हए सामर्थ्य भर आसन की स्थिति में रुकें। घुटने नहीं मुड़ने चाहिए। धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में आ जाएँ। फिर इसे बायीं तरफ से दोहराएँ। यह आसन जाँघ, पीठ, पेट और पैर के तलुओं की मांस-पेशियों के लिए उत्तम व्यायाम है । मधुमेह, किडनी, लीवर और आमाशय के रोगों पर इससे नियन्त्रण होता है । सम्पूर्ण देह में ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार होता है। ४. योग-चक्र योग-चक्र सर्वांग व्यायाम है। यह बारह आसनों और योग-मुद्राओं की एक क्रमबद्ध श्रृंखला है। इसे पारम्परिक शब्दावली में 'सूर्य-नमस्कार' कहते हैं। इसके दैनिक अभ्यास से शारीरिक जड़ता मिटती है। शरीर स्वस्थ, बलिष्ठ और कांतिमय होता है, पाचनशक्ति का विकास होता है, रक्त एवं प्राण का संचार सुचारु होता है ; साथ ही मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों का विकास होता है और आंतरिक पवित्रता बढ़ती है। आवेश और विकल्पों में शिथिलता आती है। आत्मिक तेजस्विता से पूर्ण आभामंडल का विकास होता है। साहस, निडरता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है। यह प्रक्रिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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