Book Title: Ek Sadhe Sab Sadhe
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 144
________________ १३४ इक साधे सब सधे लिप्त रहती है, औरों के लिए जीती है। लेकिन जिस तरह साँझ ढले पंछी अपने नीड़ में लौटकर विश्राम पाता है, वैसे ही हमारी आत्मा निजस्वरूप में विश्राम चाहती है, स्व में स्थित– स्व + स्थ होना चाहती है। सम्यक् समझ का अभाव होने के कारण व्यक्ति मन-बहलाव के साधन अपनाता है, पर ये साधन शांति, मुक्ति और आनन्द देने के बजाय, महज मन को भ्रमित ही करते हैं। हम अपनी बेचैनी का कारण नहीं समझ रहे हैं। बेचैनी का कारण है दिन-भर पर-पदार्थों से लिप्त हुई आत्मा परिश्रान्त होकर अपनी निजता में, अपने मूल अस्तित्व में जीना चाहती है। रात के बाहरी अंधकार में अंतर के प्रकाशित होने की, आत्म-प्रकाश के प्रकट होने की संभावना अधिक होती है। क्योंकि साँझ से ही चेतना निजत्व की खोज की बेचैनी और छटपटाहट से भर जाती है । तब इस खोज को आगे बढ़ाने वाले प्रयास अधिक गहरे और सफल हो सकते हैं, क्योंकि उस प्रयास में आत्मा की सहमति भी जुड़ जाती है। 'संबोधि-ध्यान-विधि' ध्यान की बहुत ही गहरी विधि है। परिणाम हमारी अभीप्सा, लगन और प्रयासों की सघनता पर निर्भर करता है । अत: हम प्रमाद त्यागकर अपनी ही अथाह गहराइयों में डूबें । बस चार चरणों की ही तो बात है। पाँचवाँ चरण तो मंजिल की उपलब्धि का चरण होगा। डग भरा कि भोर हुई। प्रयोग-पद्धति ध्यान के लिए अपने अनुकूल आसन का चुनाव करें । उपयुक्त मुद्रा अपनाएँ और ध्यान का प्रयोग प्रारंभ करें । प्रथम चरण : एकाग्रता ५ मिनट प्रथम चरण में अर्धोन्मीलित नेत्रों से अर्थात् आधी खुली, आधी बन्द आँखों से चित्त को नासाग्र पर केन्द्रित करें। यह त्राटक है । नाक के शिरोबिंद को लगातार एकटक देखें और मन को हर विषय से हटाकर इसी बिंदु पर एकाग्र करने का प्रयास करें। यदि आँखें थक जाएँ, दृष्टि और विचार भटकें, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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