Book Title: Dvadasharam Naychakram Part 1 Tika Author(s): Mallavadi Kshamashraman, Sighsuri, Jambuvijay Publisher: Atmanand Jain Sabha View full book textPage 8
________________ प्रकाशकनुं निवेदन. महातार्किक, शासन प्रभावक, आचार्यप्रवरश्री मल्लवादिसूरीश्वरजी विरचित द्वादशारं नयचक्रम् नामे उच्चकोटिनो दार्शनिक आकर ग्रंथ अमारी श्रीजैन आत्मानंद सभा द्वारा प्रकट थाय छे, तेने अमे सभाना अत्यारसुधीना ग्रंथप्रकाशनना इतिहासमां अपूर्व अवसर लेखीए छीए. आ ग्रंथ, प्रकाशन ए जेम साहित्य-प्रकाशनना इतिहासमां एक ऐतिहासिक अने विरल घटना छे, तेम सभानी सातदायका जेटली सुदीर्घकालीन कार्यवाहीमा एक अनोखो सीमास्तंभ बनी रहे एवी घटना छ. दार्शनिक साहित्यनो आ ग्रंथमणि विद्वद्वर्योना करकमलमा भेट धरता जाणे कोई लुप्त लेखाता शास्त्रतीर्थनो पुनरुद्धार करवाना सद्भाग्यना सहभागी थया होईए एवी आनंद, गौरव अने कृतकृत्यतानी लागणी अमे अनुभवीए छीए. आवी सुख-सौभाग्यनी लागणी अनुभववा अमे भाग्यशाली थया तेनो पूरेपूरो यश ए लुप्तग्रंथरत्नना समर्थ पुनरुद्धारक स्व. परमपूज्य मुनिमहाराजश्री भुवनविजयजी महाराजना विद्वान् शिष्यरत्न परमपूज्य मुनिमहाराजश्री जंबूविजयजी महाराजने घटे छे. पूज्य मुनिश्री जंबूविजयजी महाराज जैन साहित्यना तेमज भारतीय समग्र दार्शनिक साहित्यना तलस्पर्शी अने सर्वस्पर्शी ज्ञाता छे. एमनी अति उच्चकोटिनी आ विद्वत्ताए देशविदेशना संख्याबंध विद्वानोने एमना प्रत्ये आकर्ष्या छे. जो तेओए आ ग्रंथना पुनरुद्धारनुं भगीरथ कार्य करवान खीकायुं न होत, अने पूरा बे दायका सुधी पोतानी समग्र बुद्धि अने शक्तिनो निचोड ए माटे अर्पण कर्यो न होत, तो लुप्त थई गयेल आ मूळ ग्रंथ जेवा रूपमा अत्यारे प्रकाशित थई रह्यो छे तेवा रूपमा प्रकाशित करवानो विचार पण केवल दरिद्रना मनोरथ जेवोज लेखात ! जैन साहित्यनो इतिहास तपासतां आचार्यश्री मल्लवादी विरचित आ द्वादशारं नयचक्रम् महाग्रंथ विक्रमनी तेरमी सदीना प्रारंभ काळ सुधी हयात होवाना पुरावा मळे छे. पण त्यार पछी ए ग्रंथ अमुक काले छात हतो एवा ग्रंथस्थ आनुषंगिक पुरावाओ तो मळे छे, पण ए ग्रंथ त्यार पछी एवी रीते लुप्त थई गयो के आज सुधी एनी एक पण हस्तप्रत कोई पण हस्तलिखित ज्ञानभंडारमाथी उपलब्ध थई शकी नथी. आवो उच्चकोटिनो दार्शनिक महाग्रंथ, अने एर्नु आवी रीते सदंतर लुप्त थई जवू, ए कोईपण तज्ज्ञने ऊंडो आघात आपे मेवी दुःखद घटना कही शकाय, पण पूज्य मुनिश्री जंबूविजयजीना खंतभर्या अविरत प्रयत्नोने अंते ए ग्रंथ, लगभग सांगोपांग रूपमा विद्वानोनी समक्ष रजू थई शकेछे ए माटे जेटलो संतोष अने आह्लाद मानी तेटलो ओछो छे, एम कहेवु अत्युक्ति न गणावं जोइए के आ ग्रंथना प्रकाशन समये अमे आह्वाद अने संतोषनी जे लागणी अनुभवीए छीए तेने शब्दो द्वारा व्यक्त करवानुं शक्य नथी. __ आ ग्रंथना प्रकाशन माटे अमे "पुनरुद्धार" शब्दनो प्रयोग कर्यो छे ते खूब समजपूर्वक कर्यो छे. काळना प्रवाहमां तद्दन लुप्त थयेल ग्रंथने अन्य संख्याबंध साधनोनी सहायथी सजीवन करवो ए काम केटलं मुश्केल छे, ए तो एबुं काम करनाराज जाणी शके. आवां साधनो नजीक, दूर अने सुदूरथी शोधी शोधीने अने एना ऊपर कलाकोना कलाको अने दिवसोना दिवसो ज नहि पण महिनाओ सुधी ऊडु चिंतन मनन करीने आ ग्रंथने सळंग सूत्रमा तैयार करवामां पूज्य मुनिश्री जंबूविजयजी महाराजे केटली चिंता, अप्रमत्तता अने धगश अनुभवी हशे एनी तो केवळ कल्पना ज करवानी रहे छे. अमे आ कार्यने शास्त्रतीर्थनो पुनरुद्धार कहेल छे, ते पण हेतुपूर्वकज कहेल छे. आ कार्य केटलं कपलं, अतिश्रमसाध्य अने लगभग अशक्य कही शकाय एवी कोटिनुं हतुं, एनो थोडोक ख्याल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 662