Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 12
________________ XI दृष्टि का विषय सम्यग्दर्शनरूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये अनित्य पर्याय अथवा भेदभावों को गौण करते ही शुद्धद्रव्यार्थिकनय अथवा परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत परमपारिणामिक भावस्वरूप वस्तु में मैंपना होकर सम्यग्दर्शन की उपलब्धि हो जाती है। अतः द्रव्य-गुण- पर्यायस्वरूप वस्तुस्वभाव की समीचीन समझपूर्वक प्रयोजन की सिद्धि ही निरापद मार्ग है। इन्हीं उपर्युक्त कारणों से व्यथित होकर मुम्बई निवासी भाईश्री जयेशभाई ने 'दृष्टि का विषय ' नामक पुस्तक आगम के आलोक में प्रस्तुत कर प्रशंसनीय कार्य किया है। यहाँ इस प्रस्तावना में 'दृष्टि के विषय' के सन्दर्भ में विचारणीय बिन्दुओं पर चर्चा की जा रही है। यद्यपि दृष्टि शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है, तथापि यहाँ दृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन एवं उसका विषय अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय / सम्यग्दर्शन का अर्थ 'मैंपना' अथवा 'अहं' होता है। अतः किसमें अहं या मैंपने को सम्यग्दर्शन कहते हैं-यही दृष्टि का विषय है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने तो एक ही गाथा में सम्यग्दर्शन के विषय का सारभूत स्पष्टीकरण करते हुए कहा है. सम्यक् सदुर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण । सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही है शरण ।।३।। (अष्टपाहुड़, मोक्षपाहुड़, गाथा १०५ का हिन्दी पद्यानुवाद) जिसके आश्रय / इस गाथा में वर्णित ‘आत्मा ही शरण' यह है दृष्टि का विषयभूत त्रैकालिक ध्रुवतत्त्व, मैं पना से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। - अब यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में वर्णित विभिन्न बिन्दुओं पर संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है जो निम्नानुसार हैसम्यग्दर्शन के लिये आवश्यक क्या ? सम्यग्दर्शन एवं उसकी महिमा के परिज्ञान के पश्चात् यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होनेयोग्य है कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये क्या आवश्यक है ? इसका समाधान करते हुए लेखक ने कहा है कि सम्यग्दर्शन के लिये अनिवार्य है भेदज्ञान। आत्मा और पुद्गल तथा पुद्गल के लक्ष्य से उत्पन्न विकारी भावों से भेदज्ञान सम्यग्दर्शन के लिये जितना अनिवार्य है; उतनी द्रव्य-गुण-पर्याय की समझ नहीं। हाँ, इतना अवश्य है कि यदि द्रव्य-गुण- पर्याय के सम्बन्ध में विपरीत अवधारणा है तो निश्चित् ही वह सम्यग्दर्शन के लिए अवरोधक कारण है। वरना स्व-पर की भिन्नतारूप भेदज्ञान से भी सम्यग्दर्शनरूपी कार्य हो सकता है। इसी बात को आचार्यदेव ने समयसार में इस प्रकार कहा है - 'भेदविज्ञान जिसका मूल है - ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी, तब आत्मा प्रतिबुद्ध होगा । ' ( समयसार, गाथा १९ टीका)

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