Book Title: Dravya Puja Evam Bhav Puja Ka Samanvay
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 12
________________ अब पढ़ीये आचार्य श्री के संबोध की समीक्षा... आगमिक एवं मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में द्रव्यपूजा एवं भावपूजा का समन्वयः विज्ञप्ति नामक तेरापंथी साप्ताहिक मुख्य पत्र के वर्ष 18, अंक 46 (17-23 फरवरी 2013 ) में आचार्य श्री महाश्रमणजी का भावपूजा पर पावन संबोध दिया गया था। तेरापंथी आचार्य द्वारा जाहिर में मूर्तिपूजा के विषय में अपने विचार विस्तार से प्रगट किये गये हो ऐसा पहली बार देखने में आया। अपने संबोध में उन्होंने परम्परागत और अपनी व्यक्तिगत अमूर्तिपूजा की मान्यता का दृढ़ता से प्रतिपादन किया और साथ में मूर्तिपूजा के तर्को एवं आचारों को जानने का प्रयास करने पर भार भी दिया है। उनकी उदारता को ध्यान में लेकर के कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनसे मूर्तिपूजा को सहीरूप में समझा जा सकेगा। • जैन धर्म ने इस दुनियाँ को स्याद्वाद दृष्टि की एक अद्भुत भेंट दी है। स्याद्वाद हर वस्तु को अपेक्षा दृष्टि से देखना सीखाता है। जैसे कि एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र और भाई भी हो सकता है पर अलग-अलग अपेक्षा से। जिनशासन का हार्द उस अपेक्षा को समझने में है कि वस्तु किस अपेक्षा से बताई गई है। इसी संदर्भ में श्री आचारांग सूत्र का सूत्र याद आता है। "जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा" अर्थात् एक ही क्रिया से कर्मबंध या निर्जरा भी हो सकती है पर अपेक्षा से। इसके हार्द में पहुँचेंगे तो पता चलेगा कि बाह्य क्रिया भी मन के परिणाम के अनुसार वह आश्रव या संवर रूप बनेगी।अतः

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