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दृष्टि है, चाह है, तो जड़ के माध्यम से भी लक्ष्य पर पहुँच सकते है । चाहे जड़ हो या चेतन, महत्व सभी का है । चेतन के अभाव में तो मानव शरीर भी जड़ है, और मानव देह बिना तो चेतन भी परमात्म पद ग्रहण नहीं कर सकता । ज्ञान भंडारों में रखे बड़े-बड़े ग्रंथ भी तो जड़ ही है। जो हमें ज्ञान का सुगम मार्ग उपलब्ध कराते हैं । इस तरह अंतर्भावों के द्वारा परमात्मा की प्रतिमा को दर्पण बनाकर उपासक स्वयं से साक्षात्कार करता है और आत्मा से परमात्मा बनने का सीधा और सरल उपाय प्राप्त करता है ।
उपासना में मूर्तिपूजा का प्रतीकात्मक महत्व तो है ही, दर्शनात्मक महत्व भी है। जो देखकर जाना जा सकता है, उसको समग्र रूप से शास्त्र बताने में समर्थ नहीं है। दूसरे लिखने वालों के विचारों से प्रभावित होने के कारण शास्त्र विकृत रूप ले लेते है । विकृति को आगे से रोकने के लिए तथा सभी को भेद-भाव रहित समझ देने के लिए मूर्तियां विवादरहित होती है । दृश्य वह संदेश दे देता है जो हजार शब्द भी नहीं दे सकते । स्वयं की इन्द्रियों द्वारा किया गया अनुभव (देखकर, सुनकर, सूंघकर, छूकर, चखकर) 100 वर्षों के अध्ययन से बढ़कर है । अगर आप पूर्ण श्रद्धा से अपने श्रद्धेय की मूर्ति या चित्र का दर्शन करते हैं तो उसमें असीम सुख व शान्ति की प्राप्ति होती है जो किसी भी आनन्द से कम नहीं । उस श्रद्धेय की मूर्ति या चित्र, प्रारम्भिक अवस्था में साधक को आसानी से ध्यानावस्था में ले जाकर साधना की उस ऊंचाई पर ले जाता है जिसके बाद साधक को साध्य पाने के लिए साधन के सहारे की आवश्यकता नहीं होती ।
चित्र को देखने मात्र से ही क्षण के एक छोटे से हिस्से में ही मन में विचार / भाव परिवर्तन होता है । उदाहरणार्थ अपने श्रद्धेय / आराध्य का चित्र देख मन में अथाह श्रद्धा उत्पन्न होती है, अपने पूर्वजों का चित्र देख मन में गौरव के भाव आते हैं, किसी योद्धा या वीर पुरुष का चित्र देखकर मन में वीरता के भाव उमड़ते हैं, किसी
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