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मूर्तिपूजा का महत्व आ. तुलसी की दृष्टि में
आचार्य श्री अमूर्तिपूजक होते हुए भी सैकड़ों बार मन्दिरों में गए, वहाँ ठहरे, ध्यान, स्वाध्याय और भगवान की स्तवना भी की। उनका मानना था कि “मन्दिर जाने मात्र से मेरा धर्म खत्म हो जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास नहीं है।" निम्न घटना प्रसंग उनके व्यक्तित्व को प्रकट करता है - "जयपुर प्रवास में एक भाई ने आचार्य श्री को मन्दिर पधारने के लिए निवेदन किया। आचार्य श्री तुरन्त मन्दिर पधारें"
आइये अब आचार्य श्री की दृष्टि में सोचते है....
....हाँ यह कहने में कोई कठिनाई नहीं कि मन्दिर में जैन धर्म का बहुत बड़ा इतिहास सुरक्षित है। वे हमारी परम्परागत निधि
___ (धर्मक्रांति के सूत्रधार - समणी डॉ. कुसुमप्रभा)
"...निंदा को मैं हिंसा मानता हूँ। जो कोई भी निन्दा करता है, उसे हिंसक कहने में मुझे कोई संकोच नहीं। मन्दिर के प्रति मूर्तिपूजकों का जितना आदरभाव है, किसी अपेक्षा से मेरा उनसे कम नहीं है।"
__ (धम्मो सुद्धस्स पृ. - 1051 ध. क्रां.सु.) कोई व्यक्ति द्रव्य पूजा करता है तो उसमें मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं होता, मैं मूर्ति का विरोधी नहीं हूँ क्योंकि अन्यान्य निमित्तों की भांति मूर्ति भी धर्माराधना में निमित्त और प्रेरक बन सकती है।
(2 जुलाई 1968 के प्रवचन से - ध. क्रां. सु.)
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