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देहादि णिमित्तपि हु जे. कायवहम्मि तह पयति जिणपूआ कायवहम्मि, तेसिमपवत्तणंमोहो।।4।।
__ शरीर, व्यापार, खेती आदि सांसारिक कार्यो में तथा संत-सतियों की जन्म जयन्तियाँ, श्मशान यात्रा, किताबें छपवाना, मर्यादा-महोत्सव, दीक्षा महोत्सव, चातुर्मास में वाहन द्वारा संत-सतियों के दर्शनार्थ जाना, बडे बडे स्थानक, सभा भवन, समता भवन बनवाना आदि धार्मिक कार्यों में हिंसा करते ही हैं। लेकिन जीव-हिंसा का बहाना बनाकर जो लोग समकित और मोक्ष देनेवाली जिनपूजा को नहीं करते हैं। यह उनका मिथ्यात्व है। मोह !! मूर्खता है।!!!
- श्रावक प्रज्ञप्ति श्लोक नं. 349 (श्री उमास्वातिजी महाराज) और एकावतारी, 1444 ग्रन्थों के प्रणेता, आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी म. सा. कृत चतुर्थ पंचाशक महाग्रन्थ
श्लोक नं. 45 से उद्धृत
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