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जैसे वाहन द्वारा चातुर्मास आदि में गुरू भगवंतो को वंदन के लिए जाना, पुस्तकें छपवाना, साधर्मिक भक्ति करना, शिविरों का आयोजन करना, जीवदया के लिए गाय को घास देना, कबूतर को चुग्गा देना, गौशाला चलाना, आराधना के लिए स्थानक, भवन आदि का निर्माण करना इत्यादि । इन सभी में अध्यवसाय शुभ होते हैं परन्तु साथ में आनुषंगिक रूप से त्रस - स्थावर जीवों की हिंसा भी होती है, फिर भी इन प्रवृत्तियों का निषेध नहीं किया जाता है, क्योंकि किसी प्रवृत्ति में हिंसा का आनुषंगिक रूप होने मात्र से उस प्रवृत्ति का निषेध नहीं किया जाता, व्यक्ति की भूमिका के अनुसार प्रवृत्ति हेय अथवा उपादेय बनती है ।
श्रावक की भूमिका में ये प्रवृत्तियाँ बाधक नहीं होती है। उसी तरह से द्रव्यों की मूर्च्छा का त्याग एवं भक्ति के भावों की विशेष वृद्धि का कारण होने से अविरति की भूमिका में श्रावक के लिए द्रव्य पूजा का निषेध नहीं है। अगर श्रावक सामायिक - पौषध में है तो उसके लिए वाहन द्वारा गुरूवंदन के लिए जाना, घास डालना आदि की तरह द्रव्यपूजा का भी निषेध है, क्योंकि उसकी भूमिका बदल गई है । इसलिए एकांत नहीं परन्तु द्रव्य पूजा भूमिकानुसार की जाने वाली भक्ति रूप है । यह समझने पर ही हम आगमों में आते जन्माभिषेक आदि अनेक प्रसंगों पर सम्यग्दृष्टि देवों आदि की भक्ति को समझ सकेंगे और उस भक्ति में स्थूल हिंसा की अबाधकता भी जान सकेंगे। यह समझने पर ही जैन दर्शन के अनेकांतवाद को सही रूप से समझ सकेंगे। सार रूप इतना ही समझना है कि मन के आधार पर कर्मबंध आदि है और उसको लक्ष्य में लेकर अगर जिनशासन के हर अनुष्ठानों को समझने की कोशिश करेंगे तो उन्हें सही न्याय दे सकेंगे । ध्यान रहे कि द्रव्य पूजा अपने पूज्य के प्रति बहुमान दिखाने का एक तरीका है। जैसे घर में जमाई आता है तो उसके प्रति बहुमान को बताने के लिए उसकी उत्कृष्ट द्रव्यों से भक्ति, शक्ति अनुसार की
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