Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 14
________________ mammmm RA दिगम्बर जैन । [ वर्ष १७ FESTYLEEEEEEEEEEEEEEET अफसोस और तो क्या उसकी विद्यमान विद्या __दरिद्रताके दुःख । पर भी शोभित नहीं होती है। प्रिय बन्धुवर DANEEEEEEEEEEEEEEEEEET विशेष तो क्या वह दरिद्रतासे ठगाया हुआ दरिद्रताके सदृश इस दुःखमयी क्षण कुछ भी नहीं कर सकता है । वह दरिद्र पुरुष स्थायी परिवर्तनशील जगतमें अन्य G सामिप्राय धनिक मनुष्यों के मुखकी तरफ देखता दुःख अवनतिके क्षेत्र में पदार्पण करानेवाले नहीं है तिके क्षेत्र में पदार्पण सोही रहता है। हैं। शारीरिक मानसिक वाचनिक दःखों में वाचद दरिद्रसे सताया हुआ यह मनुष्य यही दुःख मनुष्यका परम शत्रु है। और यह घनके लिए तरसता रहता है। एक विचारशत्रु ऐसा बलिष्ठ है कि किसी भी गौरव शील विद्वान् मनुजका कथन है कि-दारिद्रयत् शाली मनुष्यको मात्म-गौरवसे पतित कर देता हियमेतिपरिगतः सत्वान् परिभृष्यते । निःसत्वहै। इस बलिष्ठ कष्टने हिन्दुस्थानियों को भी परिभूयते परिभवान् निर्वेदमापद्यते । निर्दण्णाः बुरी तरहसे सताया है । इस कलिकालके निक शुचिमेति शोकनिरतो बुद्ध्या परित्यज्यते । ष्ट समयमें प्रायः ऐसे मनुष्य मिलते हैं, जिनके निर्बुद्धि क्षयमेत्यहो निधनता सर्वापदामास्पदम् । पास शरीरकों भाच्छादित करनेके लिए वस्त्र दरिद्र मर्त्य विनश्वर पंचपरावर्तन नहीं है, उदर पूर्तिके लिए भोजन नहीं है। शोकमयी संसारमें स्वाख्यातिको प्र. जिनको देखकर प्रत्येकका हृदय द्रवीभत हो काशित नहीं कर सकता। दारिद्रया. जाता है। विचारशील नीतिवेत्ता मनुष्योंने वस्थामें यह मनुष्य अध्यात्मिक शक्तिसे कहा है कि । भी गिर जाता है। शारीरिक बल होनेपर दारिद्रयानमरणाहवि दारिद्रयमवरं स्मृतम् । भी मगर दरिद्रता उसके शिरपर सवार है तो अस्पषलेशेन मरणं दारिद्रयमतिदुःसहम् ॥ निश्चयतः शारिरिक व आत्म बसे पतित हो अर्थात् मृत्यु और दरिद्रतामें मृत्युकी अपेक्षा जाता है। शारीरिक व मात्मबलसे पवित मानदरिद्रता खराब है। क्योंकि मृत्यु तो अल्प व अपनेको मनुष्य श्रेणीमें न समझकर शोकसे क्लेशसे होती है किंतु दरिद्रता अति दुःख देती मातुर होकर नीचावस्थाको प्राप्त हो जाता है। है। और भी कहा है कि दरिद्र मनुष्यके हृदय-पटलसे पूज्यापूज्य हितारिक्तस्य हि न जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः। हितका परिज्ञान भी कूचकर जाता है । " विष हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥१॥ सभा दरिद्रस्य " इस कहावतको भी चरितार्थ स्यादकिंचित्करः सोऽयमाकिंचन्येन वञ्चितः । करदेता है । बंधुवर्य दरिद्र मनुष्य धर्मके कार. मलमन्यैः ससाकूत धन्यक्कं च पश्यति ॥२॥ णोंका परित्याग करके धनार्थ कुत्सित कार्यो मर्थात निश्चयतः दरिद्रपुरुषके भगत-प्रश- प्रवृत्त हो जाता है। समीय संपूर्ण सदगुण प्रकाशित नहीं होते हैं। चांदमल जैन विशारद, पचार।

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