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अंक 1
दिगम्बर जैन । मनोविनोदार्थ सर्व सामग्री एकत्रित होती है। मनता भी अधिक संख्या उपस्थित हो सकी मनुष्य सुंदरसे सुंदर वस्त्राभूषण धारणकर है, और आनन्द भी विशेष रह सक्ता है। सैरको मिलते हैं । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक निस बातका मुझे सबसे अधिक रोना है वह व्यक्ति अपनी शक्यनुसार फैशन बनानेमें धनका व्यय है । मापके सामने बहुतसे उपयोगी न्यूनता नहीं करता।
विषय-शिक्षा, समान सुधार, धर्म-प्रचार आदि भाइयो ! मैं पूना प्रतिष्ठाओं का विरोधी नहीं विद्यमान हैं। रुपया तो उतना ही है। यदि इं किंतु इस रीतिका विरोधी हं निस रीतिसे और विभागोंसे बचेगा तो भाप इन उपयोगी वर्तमान में पूना प्रतिष्ठायें होती हैं । पुना कार्यो में खर्च कर सकेंगे । आशा है कि माप पना प्रतिष्ठानों में संयत भोजन सामग्रीके अतिरिक्त प्रतिष्ठाओं की बढ़तीको रोकने, उनमें उचित अन्य दुकानों की क्या आवश्यकता है ? इस सुधार करने और उनमें सादगी पैदा करनेके भांत्रिकी सजधजसे क्या लाभ है ? वस्त्राभूषण लिए प्रयत्न करेंगे। दिखानेके लिये अन्य बहुत बडा क्षेत्र १५-समाजके सामने अपना धन, समय विद्यमान है। यहांफर मे केवक साधारण और शक्तिको व्यय करनेके लिये एक और रुपये आमा चाहिये और बाजारोंमें न घूमकर मार्ग खुला हुमा है और वह तीयोंकी कड़ाई पुमा, शाखा, संका समाधान में ध्यान लगामा है। तीर्थक्षेत्र ओ पृमा बन्दनाके क्षेत्र थे, खेद वाहिके, स्थाव १ पर पार्मिक ब्याख्यान होने है मब समयके प्रभावसे लड़ाई के अखाड़े बने चाहिये। हमको मनला, वाचा, कर्मणा भगवानकी हुवे हैं । दिगम्बर समानको तो अपने स्वत्वकी श्रद्धा, भक्ति में लीन रहना चाहिये और अन्य रक्षाके लिये इसमें पार्ट लेना पड़ रहा है। वह बर्मावलम्बियोंके हृदयपर जैन धर्म की सचाई का यह नहीं चाहते कि श्वेतांवरियोंको तीर्थोसे प्रभाव डालने का प्रयत्न करना चाहिए ? तभी निकाल दें। हमारे विचारके अनुपार तो जैन धर्मकी प्रभावना और धर्म लाभ होसकता श्वेतांबरी क्या और भी कोई माकर तीर्थ वंदना है। जिन महानुभावोंको कभी मुरुकुल कांगड़ी. करें तो हम उनका स्वागत करते हैं। किंतु के कमेटीके नरसेपर जाने का अवसर मिला कुछ श्वेतांबरी सज्जनों का ऐसा विचार होगया होमा उनको भली भांति ज्ञात होगा कि है कि हम दिगम्बरियोंको तीर्थोसे निकालकर धर्म मभावना किस भांति होती है। छोड़ेंगे। तीर्थ सनातन हैं, किसी की मिलकियत
कुछ ही समय पूर्व इतनी अधिक पूजा पति- नहीं हो सकते। श्वेतांबरी अपनी मनोकामनामें ष्ठायें नहीं होती थी। देखते २ दिन प्रतिदिन सफल नहीं हो सकेंगे। व्यर्थकी लड़ाई है। बढ़ती जाती हैं।
दोनों आम्नायोंके भाषसके विरोधसे जैन यदि इतनी पूना प्रतिष्ठा न होकर कम हों समानका गौरव घट रहा है। इधर शिया तो उसमें धर्म लाभ भी अधिक हो सक्ता है, सुभी एक होरहे हैं उधर सनातन धर्म और