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११]
विचार कर कहा मृगसे ।
था मैं | व्याकुल बहुत दिनोंसे ॥१॥
मेरा मित्र नहीं है कोई |
इससे करें मित्रता दोई ॥
अत मित्रता मैं नहिं करता ।
इससे भला अकेला रहता ॥३॥
मिलने में मित्र कहाते ।
वे सब झूठी प्रीत लगाते. ॥
सच्चा प्रेम नहीं दर्शाते ।
स्वारथके बस प्रीत उपाते ॥४॥
तत्र यों बोला चतुर लिया ।
शंका करो नहीं तुम भैया ॥
मैं तुमसे अति प्रीत उपाऊँ ।
कभी न तुमसे नेह हटाऊँ ॥९॥
किरिया रामचन्द्र मुझको ।
दिगम्बर जैन ।
जो मैं धोका देंऊँ तुझको ॥
प्राणोंसे बढकर अपनाऊँ ।
तुझको सच्चा मित्र बनाऊं ॥ ६ ॥
तब मृग हृदय बहुत हर्षाया ।
स्यारके ऊपर प्रेम उपाया ॥
दोनों रहन लगे मिल सोई ।
प्रेम भेद जाने नहि कोई ॥७॥
लिड़ई कपट युत प्रेम वढावे |
मृग नहिं ये बातें मनालाचे ॥
इ दिन किया लिईने कैसा |
सो सब तुम्हें बतावें वैसा ॥८॥
जहां वहिलिया जाल बिछाया ।
वहां लिड़इ मृग लेकर घाया ||
फंसा दिया मृगको फंदे में ।
आपन जाय छिपा खंदे में ||९||
इतनेमें इक वायस आया ।
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मृगको यों उपदेश सुनाया ॥
अब दम साधी मित्र हमारे ।
जिससे बचना प्राण तुम्हारे ॥१०॥ वायस वात सुनत मृगस्याना ।
दम, साध रह गया चिमाना ॥
दिल में सोचे यही लिड़ैया |
कब आवेग मार वहिलिया ॥ ११॥ कांधे घरे कुठार बहिलिया ।
भाया जाल निकट तल बलिया ॥
मृगको फंसा देखकर उसने ।
[ वर्ष १७
दिलमें यही विचारा उसने ॥१२
इस मृगने तन दीने प्राण |
फंदा बाहर करूं निदान ॥
फंदा बाहर मृगको डाला |
रोटी बैठा कौआ काला ॥१३॥
तहि महिलिया कोप उपायत ।
काग उड़ाने तुरतहि घाया ||
यहां मृम उठ दौड़ लगाई |
देख बहिलिया गुहा आई ॥ १४ ॥ फेंक कुल्हाड़ी ऐसी मारी |
कटी लिड़की मुंडि विचारी ॥
यह विश्वासघात फळवंका ।'
इसमें करो न कोई शंका ॥ १३॥ इससे सुनो सकल नरनारी ।
तनो कपटकी खोटी यारी ॥
कहत 'प्रेम' खुन चित्त लगाई |
तज बिस्वासघाति दुखदाई ॥ १६ ॥ प्रेमचंद जैन पंचरत्न,
जैन विद्यालय-भिन्ड ।