Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 19
________________ मंक दिगम्बर जैन । व्याख्यान-- श्रीमान साहु जुगमंदरदासजी नजीबाबाद, सभापति, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् प्रथम अधिवेशना-मुजफ्फरनगर। नमः श्रीर्द्धमानाय 'निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ॥१॥ स्वागतकारिणी समितिके सभापति महोदय, करनेपर ता० ८ अप्रैलको इस पदके स्वीकार परिषद्के प्रतिनिधि बन्धु. पूज्य ब्रह्म वारियों, करनेके लिये मुझे वाध्य होना पड़ा, और उसी दैवियो और अन्य सज्जनो! दिनसे अपने गृहकार्यवश मैं सफरमे रहा । १-इस भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषदके ऐसी दशामें इस कार्यभारका निर्वाह भाम ही उत्तरदायित्व पूर्ण सभापति पदको प्रदान कर सब महानुभावोंके हाथ में है । भाशा है पाप भाप सज्जनोंने जो मेरा गौरव बढ़ाया है इसके सब प्रकारसे मुझे मुविधा और सहायता प्रदान लिये मैं आपका भाभार मानता है। आपने तो करेंगे। अपनी श्रडासे मुझे यहां लाबिठाया, किन्तु मैं २-इससे पहिले कि मैं कुछ भागे कहूं, अपनी असमर्थता और जिम्मेदारीका अनुभव स्थानके विषय में दो शब्द कहना अनुचित न कर रहा हूं। आपने एक ऐसे व्यक्तिको सभा- होगा । मुजफ्फरनगर इस प्रान्तमें नैनियों का पति चुना है कि जिप्समें न योग्यता है, न निसके एक मुख्य स्थान है । हमारा परम पवित्र तीर्थपास समय है, न स्वास्थ्य अच्छा है और नो क्षेत्र भी हस्तिनापुर नी यहांसे केवल ३० मील समानके कार्योंसे हताश होचुका है। अच्छा है। इसी स्थानपर प्रतिष्ठोत्सबके अवसरपर होता यदि किसी कार्यकुशल और सुयोग्य सन् १९११ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वान्से यह कार्य लिया जाता। मैं केवल महासभाका अधिवेशन होचुका है । भान वैसे नम्रता प्रदर्शित करने के लिये ही नहीं कहता तो इस स्थानपर स्थानीय मेरे बहुत से सम्बन्धी किन्तु यह मेरा हृद्त भाव है । इस गुरुतर तथा मित्रगण उपस्थित हैं किन्तु जैन जातिके - भारको संभालने के लिये गत मातमें जब मुझसे सुपरिचित मेरे परम मित्र स्वर्गीय रायबह दुर कहा गया था तो मैंने अपनी अप्तमर्थता प्रकट लाला घमड़ीलालजीको न देखकर मैं बड़ी भारी करते हुये उसे अस्वीकार कर दिया था। त्रुटिका अनुभव कररहा हूं , निती पूर्ति होना - पुनः मंत्री महोदय तथा मंडळके आग्रह निकट भविष्यमें असम्भव नहीं तो कष्ट साध्य

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