Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ वर्ष १७ ] दिगम्बर जैन । जायगी। इनके विवाह आदि संस्कारोंमें बहुत सा स्थिर नहीं रह सकता हम आजकलके जैनोंका जैन धन लगाना पड़ेगा। समानके दुर्भाग्यसे अभीतक धर्म जन्म सिद्ध अधिकार नहीं है । प्रातः स्मव्यर्थव्यय आदिने हमाग पीछा नहीं छोडा है रणीय श्री तीर्थङ्कर भगवानने पशु पक्षियों जिसपर मैं आगे स्वतंत्र रूपसे प्रकाश डालूंगा तकको धर्मोपदेश दिया है । इस धर्मकी फिलाअतएव कन्याओंकी अवहेलना की जाती है। सफीने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि संसा. ऐसी उच्च और पवित्र धर्मको धारण करने वाली में कुछ सुख शान्ति मिल सकती है तो इपी जाति में ऐसे कुविचारोंका अंश मात्र भी पाया धर्मसे । पाश्चात्य देशोंमें जैनधर्मका थोड़ासा जाना कितना लज्जास्पद और घृणा ननक प्रकाश पड़ा है इसीसे डाक्टर हर्मन जैकोबी, विषय है। मिस्टर हर्ट वास्न सरीखे विद्वानोंने जैनधर्मकी यह जाति हासका विषय बहुत ही गम्भीर मुक्त कंठसे प्रशंसा की है तथा कई पुस्तकें और विचारणीय है। शीघ्रतासे हम इसका अंग्रेजी में जैनधर्म के विषयमें लिखी हैं । डाक्टर निर्णय नहीं कर सकते । भावश्यक्ता है कि थामस्ने जैनधर्मके विषयमें बड़े महत्व के विचार परिषद की ओरसे एक कमेटी नियत की जावे, प्रगट किये हैं, डाक्टर साहबने स्वामी कुन्दजो हर प्रान्तमें जाकर अनुसन्धान करे कि कुन्दाचार्य विरचित श्री प्रवचनसार ग्रन्थका हमारी समाजका हास इतने वेगसे क्यों हो रहा इङ्गलिश अनुवाद किया है। भारतवर्षका तो है। और बह किस भांति रोका जा सकता है। कहना ही क्या है इस देशका तो यह राष्ट्रीय कमेटी अपनी रिपोर्ट छइमाप्तके भीतर समाजके धर्म रह चुका है । निन धर्मो में कुछ भी सार विचारार्थ प्रकाशित करे और परिषदके आगामी नहीं वह लोग तो अपने धर्मकी देशविदेशमें अधिवेशन पर उस कमेटीकी रिपोर्टको प्रयोगमें प्रभावना कर रहे हैं और आपके धर्ममें तो लानेका बीड़ा उठाया जावे । अहिंसावाद, कर्म सिद्धान्त और स्याहाद मादि यह प्राकृतिक नियम है कि प्रत्येक वस्तु में सैकड़ों विषय ऐसे हैं कि यदि उनपर प्रकाश वृद्धि हास हुवा करता है। यदि वृद्धि न होकर डाला जाय तो संसार मुग्ध हो । जाय मापके केवल हाप्त ही हाप्त होता रहे तो एक दिन मूल सिद्धान्त "अहिंसा" का सिक्का आजकल उसकी सत्ता अवश्य नष्ट हो जायगी । ठीक जनताके हृदय पर बहुत कुछ बैठता जारहा है यही दशा वर्तमानमें जैन धर्मानुयायियों की है। ऐसे समयमें आपको इस अहिंसा धर्मके प्रचारमें इनका इस बराबर होरहा है और वृद्धि के मार्ग विशेष रूपसे कटिबद्ध होनेकी जरूरत है। सब बंद हैं। आप जैनियोंके हासके कारणों को इसको कार्यरूपमें परिणत करने के लिये निम्न दूर करने का प्रयत्न तो अवश्य करेंगे ही, परन्तु लिखित उपाय वर्तमानमें उपयोगी सिद्ध होंगे। जब तक उनकी वृद्धि के उपायका अवलंबन न (क) एक प्रकाशन विभाग खोला जाय निसकिया जायेगा तबतक भाषप्रणीत जैनधर्म संसारमें के द्वारा बहुत सरलता और सुगमताके साथ

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