Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 18
________________ १६ ] [ वर्ष १७ NCNNNNNNNNNNNNY दैव बिना उद्योगके, करै न कारन सिद्ध । नीतिरत्न- माला। बिना चलाये बाणके, स्वतः करे नहिं विद्ध ॥ व्यसनोत्सव दुर्भिक्षमें, राजद्वार समशान । eepens ens ens ensenensensensenerg राज्य क्रांति में रहे निकट, बांधव सो पहचान ॥ मन्मथ होत प्रविष्ट ही, प्रथम कर धी नाश । जिम तस्कर घर में घुसत, नाशै द्वीप प्रकाश ॥ गुण पूजित सर्वत्र हैं, वंश न पूजित होय । बाहुबलीको सब नमें, मारीचिको नहिं दोय || मनस्वी घारें अंतरंग, रोष न रहें प्रसन्न ! जिम दरपण भस्मी मले, मुकुलित होय न खिन्न | परुषा पैशुन अनृता, और भसत परलाप । भूप न चितै नहिं कई, कहे घटे परताप ॥६७ पाप और ऋणको करत, मानें सुख मन लोग । पर बाटै जब जलधिसम, करें तबै चित सोग ॥ अदभुत द्रव तीरथ दरश, परिचय जनं सर्वत्र । नधी प्राप्ति प्रवास सुख, दुख नहीं मुग्धा तत्र वहिलपिक जिन संबोधनेको करें, मुग्वाकौन सुग्रीव । निधन किमच्छा घरें, कृत कि दुखी सदीव ॥ सो जीवै जिस यश प्रसर, कीरति है संचार । यश अकीर्ति सहित नर, जीवित मृत संसार ॥ वेश्या मुखमंडन तथा पर्वत नाटक हर्म्यं । युद्धवार ता दूर तें, लगें दूरर्ते रम्य ॥ ७२ ॥ इक ले तप दोमें पठन, तीन गान चत्र गाम । पांचसात खेती करो, मिलके बहु संग्राम॥ ७३ ॥ मात पिता पत्नी शिशु, अतिथि पोषण भार । है कर्तव गृहिको इतर, यथाशक्ति अनुसार ॥ वाद्य नाट्य पुस्तक पवन, द्यूत शक्तिता नार । तंद्रा निद्रा षष्ट ये, विद्या विघ्न विचार ॥ ७३ ॥ १ देव, २ तारा, ३ 'धनम् =४ देवताऽराधनम् । दिगम्बर जैन | # AARNAANNIVIVARO मर्म वाक्य मत उच्चरो, परघन कदा न हर्ण । स्मरण करो जिन वर्णको, सदाचरो भवतर्ण ५० रामा पुस्तक लेखनी, परके कर हैं नष्ट | कदाचित् आवें लौटि तौ, चुंबित भ्रष्ट रुपृष्ठ|| कविता युवती सोदरा, जानो जन घीधार । पार्के तिनको कवि पितृ, परजनके हितकार ॥९९ करको भूषण दान है, कंठा भूषण सत्य । • शास्त्र जु भूषण श्रोत्रको, भूषण साधु विरस्य ॥ उत्पादक उपकार कर, दायकं विद्यादान | त्रातामय अरु अन्नप्रद, पंच विधा पितु जान ॥ दूर हुवे भी निकट है, जो वर्ते जिस चित्त । जोचितमें नहिं वर्त है, निकट हुवे क्या हित्त॥ न तो देव है धातुमें, नहीं काष्ट पाषान । देव बिराने भाव में, यातें भाव प्रधान ॥ १६३ ॥ वाकवाद सम्बन्ध धन, दरशन दार परोक्ष | यदि चाहो तुम मित्रता, दूरहि करो विमोक्ष || अपने समतें मित्रता, करो सदा बुधिवान । प्रेम, अर्थ, मय, जन्य में, पूरब सुखकर जान ||१८ ज्ञात नहीं जिस शील कुल, विद्यानाम न धाम । तिसनरको विश्वास कर, देहु न घर विश्राम ॥१९ महा नदीकोपर तरण, महापुरुष संग युद्ध | भूपति संग विरोध कमि, करो न नरप्रतिबुद्ध ॥ देहु इस निकलत वचन, मानवके गुण पांच । विनरौ ह्री श्री धी वृति, कीरति रुइ जिम आंचे ॥ ११ ॥ १. भनि । ・

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