Book Title: Dharmna Darwajane Jovani Disha Athva Tattvatattva Vichar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Amarvijay Jain Pathshala
View full book text
________________
१९६
11 eft: ||
॥ ढूंढकना दया नामना ध्रुवतारानुं स्वरूप ||
|| हवे छेवटमां लखवानुं ए छे के, सभ्यवत्व, अथवा धर्मनो दरवाजो, लखवाबाला लेखके, आपणा ग्रंथनी समाप्ति करतां । पृष्ट. २२३ मां पण, एक एवं वाक्य लख्युं छे के, जाणे, आपणी मुढता रूपना पहाडथी, एक अनघड पथ्थरज फेके लोन होय, एम लागे छे। अने बारिक दृष्टिथी विचारतां वधा ग्रंथना वाक्यों पण प्रायें, अनघड पथ्थर रूपनांज छे । परंतु बधा ग्रंथनां वाक्योंनो विचार, लखी शकाय नही, तेथी आ समाप्तिना एकज वाक्या बिचार रूप दिशानुं अवलोकन करावी, अमो पण अमारा लेखनी समातिनी साथ, आ ग्रंथनी पण समाप्तिज करीये छीए. ॥ ते वाक्य नीचे प्रमाणे. पृष्ट. २२३ थी, ।
|| मोक्ष नगरीए लइ जती, सम्यक्त्वनी सडके जतां नय - निक्षेपनी, भूल भूलामणिमां, जो कोइ माणस घुंचाइ जाय तो, तेणे मात्र 'दया' नामना ध्रुवतारा तरफ दृष्टि टेकवावी, अने ए दीशा तरफज चाल्यां करवुं । एथी वेहलो मोडो पण, ते, इछित स्थले पहोंचशे. पण जो तेटली दृष्टि पण न राखे तो धृताराओ तेने आडा रस्ते दोरी, तेनुं सर्वस्व लूटी लइ, गत प्राण करी, तेने जंगलना गीध अने कागडानो, भक्ष बनावशे ।
,
॥ संपुर्णः ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218