Book Title: Dharmna Darwajane Jovani Disha Athva Tattvatattva Vichar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Amarvijay Jain Pathshala
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१९९
॥ गुरुजी - अरे भाइ शिष्य, द्रव्य मात्रना स्वरूपथी हिंसा थती जणाय छे, पण, भगवाननी आज्ञाथी वर्त्तन करतां भावहिंसाना पापना अधिकारी थता नथी । केमके विहार करवामां लाभनो समावेश वधारे रहेलो छे, अने भगवाने पण ते आज्ञा फरमावेली छे । इत्यादिक अनेक युक्तिथी समजूति करवा छतां पण, दया नामना ध्रुवताराना मूसलने पकडीने चालवावाला चेलाए, एकपण वात अंगीकार करी नही, अने छेवटे आ भवना हितथी, तेमज परभवना हितथी पण, भ्रष्टज थयो. ||
॥ इति द्वितीयदृष्टांत ॥
|| ३ एक जगोपर वे शिष्यनी साधे, चतुर्मास रहेला वृद्ध साधुए, वर्षाता मेघमां, प्यालामां, लघुनीति करी एक शिष्यने, परठवानुं युं, तो ते दया नामना ध्रुवताराने वलगेला शिष्ये, जवाब दीधो के, हिंसा थाय तेनुं काम अमो करता नथी, छेवटमां बीजा शिव्ये परठव्युं । आ बे शिष्योमां, धर्मी ? कयो ! अने अधर्मी ? कयो ! तेनो विचार करवानुं, वाचकवर्गनेज सोंपीदइये छी. ॥
॥ इति तृतीयदृष्टांत ॥
॥ ४ एक साधु गोचरी गया छे, श्रावके गरम भात, दाल, दूध, farai aisai ऊघाडी आपना मांडयं, तो ते वाउकायनी हिंसाना भयथी मुखपर पाटा चढाववावालाए, लें के नहि लें. । केमके, मुखनी वराळ करतां, ते गरम भात आदिनी वराळ, घणीज आकरी होय छे, अने घणी दूर तक फेलाइजवाथी, वाक्कायनी
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