Book Title: Dharmna Darwajane Jovani Disha Athva Tattvatattva Vichar
Author(s): Amarmuni
Publisher: Amarvijay Jain Pathshala

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Page 216
________________ २१२ निक्षेपाना अर्थमां करीने खोटो ममत्व ॥ ४ ॥ तारी ध्रुव आज्ञातनो, तेमां दया समाय ॥ मन कल्पित तारा थकी, धर्मधी भ्रष्ट थवाय ॥ ५ ॥ जैन तत्वरूप नगर छे, द्वार छे तेनां चार । मुक्यां गृढ गंथन करी, तेने ए अनुयोग द्वार ।। ६ ।। तेना अनुभव सारथी, ग्रंथ ते जानो उदार । परंपराना गुरु विना, न लहे तेनो सार ॥ ७ ॥ तेथी जगमां विस्तर्यो, गुरु महिमा विस्तार | गुरु दीवो गुरु देवता, गुरु विन घोर अंधार ॥ ८ ॥ अनुभवनाहि प्रमाणथी, कहे तेजानो सार ॥ अनुभव त्रिन जे उचरे, तेतो जानो गमार ९ ॥ गूढ घणा जैन तत्व छे, दीठा प्रत्यक्ष जोय ॥ परंपराना गुरु विना, मारग न रहे कोय ॥ १० ॥ नमु गुरु ज्ञानी सदा, सूरी श्री विजयानंद || तवामृतना पानी, पाम्या परमानंद ॥। ११ ॥ तत्त्व नथी हुं जानतो, जानु न कोइ विचार । गुरु वचन अवलंबीने, लख्या बोल बे चार ॥ १२ ॥ अमर जैनना तत्र छे, दोष रहित साक्षात | तत्त्वग्रही अमर ज्यो, छोडी पक्षनी वात ॥ १३ ॥ औगणीशोने चोसठी, विक्रम शाल रसाल । पुरण करी हर्षित थयो, विजयानंदनो बाल ॥ १४ ॥ आमलनेरा गामथी, उद्यम किधी एह । धूलीयामां पुरो कियो, ग्रंथ ए आनी नेह ॥ १५ ॥ ॥ इति संपूर्ण ॥ ● समाप्त. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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