Book Title: Dhammapada 08
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 295
________________ एस धम्मो सनंतनो गया है, किताब को समाधि तो नहीं लग गयी है ! किताब में जो लिखा है, उसे तुम भीतर की किताब में लिख लो, इससे क्या होगा? उसकी फोटो कापी कर ली, ठीक-ठीक कंठस्थ कर लिया, वेद दोहराने लगे, शब्दशः दोहराने लगे, तो इससे तुम्हारी स्मृति अच्छी है इसका तो सबूत मिलेगा, लेकिन इससे बोध का कोई जन्म नहीं होगा। स्वाध्याय का अर्थ होता है, जो सुना, जो पढ़ा, अब उसको परखो भी । उसको कभी जीवन में उतारो, उस किरण के साथ थोड़ा चलो भी। मैंने तुमसे कहा कि दो मील दूर चलकर बाएं अगर तुम चलते रहे, तो सागर पर पहुंच जाओगे। तुम यहीं बैठे इसी का अध्ययन करते रहे। ऐसा समझो कि मील पत्थर के पास बैठ गए, उस पर तीर लगा है, लिखा है कि सागर दो मील दूर है। उसी पत्थर की पूजा कर रहे हैं, यह अध्ययन । उस पत्थर की मान ली और चल पड़े. जिस तरफ तीर था। पत्थर तो सागर नहीं है, पत्थर को पीकर प्यास थोड़े ही बुझेगी। पत्थर तो सागर की तरफ ले जाने वाला है। अगर चल पड़े, तो स्वाध्याय । अगर बैठकर गुनगुनाते रहे शब्दों को तो अध्ययन, अगर अध्ययन तुम्हारा जीवन बन गया तो स्वाध्याय । तो बुद्ध ने कहा, इसने स्वाध्याय नहीं किया और पचाया नहीं । देखो, भोजन कर लेने से पुष्टि नहीं मिलती। भोजन कर लेने मात्र से थोड़े ही कोई पुष्ट होता है। भोजन जब तक पचे न, तब तक पुष्टि नहीं मिलती है। तुमने भोजन कर लिया और अगर पचे न, तो तुम और कमजोर हो जाओगे । अगर अपच हो जाए, अगर उल्टी हो जाए, वमन हो जाए, तो तुम जितने शक्तिशाली थे भोजन करने के पहले, उससे कम शक्तिशाली रह जाओगे। तुम और कमजोर हो जाओगे। असली बात तो पचना है। थोड़ा भोजन भी हो, लेकिन पचे तो ऊर्जा देगा, शक्ति देगा, पुष्टि देगा, बल देगा। थोड़ा जानो, लेकिन पचाओ। अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम बहुत जान लेते हो, पचता ही नहीं। पांडित्य एक तरह का अपच है। पांडित्य एक तरह का अपने भीतर बहुत भोजन ले लेना है, जिसको शरीर पचा नहीं सकता। प्रज्ञा पचाने का नाम है। तो बुद्ध ने कहा, यह लालूदाई कुछ ज्यादा जानता नहीं, जो थोड़ा-बहुत जानता है, वह भी इसे पचा नहीं। भिक्षुओ, इससे सीख लो। आलोचना सरल। कोई दूसरा क्या कह रहा है, इसे गलत सिद्ध करना बहुत सरल। सत्य क्या है, उसे सिद्ध करना बहुत कठिन है। सच तो यह है, निंदक और आलोचक वे ही लोग बन जाते हैं, जो पाते हैं कि सत्य के सृजन करने की उनकी क्षमता नहीं। जो कवि कविता करने में असफल हो जाता है वह आलोचक बन जाता है। तुम जब कुछ नहीं कर पाते, तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हो कि दूसरे जो कर रहे हैं, गलत कर रहे हैं। यह तो बड़ा आसान है। तुम ध्यान करने आओ, अगर ध्यान न कर पाओ, तो इतना तो तुम कर ही सकते 282

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