Book Title: Dhammapada 08
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 362
________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में और तृष्णा के समान नदी नहीं।' 'राग के समान आग नहीं।' क्योंकि राग मनुष्य को जलाती है। तीक्ष्ण अग्नि की लपटों की भांति जलाती है। तो इसमें से कोई तो राग में जल रहा है—कोई अपनी पत्नी की सोच रहा है, कोई अपने धन की सोच रहा है, कोई दुकान की सोच रहा है-इनमें से कुछ तो आग की लपटों में जल रहे हैं, राग की लपटों में जल रहे हैं। 'द्वेष के समान ग्रह (पिशाच, भूत-प्रेत) नहीं।' कुछ के पीछे द्वेष लगा है, जैसे किसी के पीछे भूत लग जाता है। तो द्वेष फिर सोने नहीं देता, बैठने नहीं देता। यहां कुछ हैं जो किसी की हानि की सोच रहे हैं। यहां मैं उनके कल्याण की बात कर रहा हूं, उसमें उनकी कोई उत्सुकता नहीं। कोई सोच रहा है कि दुश्मन को मार डालें। कोई सोच रहा, उसके खलिहान में आग लगवा दें। कोई कहता है, मुकदमे में ऐसी चाल चलें कि सदा के लिए सजा हो जाए। यहां कोई द्वेष के पिशाच से परेशान हो रहा है। 'मोह के समान जाल नहीं।' कोई मोह में पड़ा है। किसी को अपने बेटे की याद आ रही है, किसी को अपनी बेटी की याद आ रही है, किसी की आंख में आंसू झलक आए हैं किसी की याद में; किसी की पत्नी मर गयी, वह उसके खयाल में बैठा है। कोई किसी नयी स्त्री के प्रेम में पड़ गया है, वह उसका विचार कर रहा है। तो कोई मोह के जाल में उलझा है। _ 'और तृष्णा के समान नदी नहीं।' और कुछ हो जाऊं, कुछ पा लूं, कहीं पहुंच जाऊं, ऐसी जो वासना है, वह तो नदी की तरह बाढ़ है। कोई उसमें बहा जा रहा है। इनके कारण ये नहीं सुन पा रहे हैं। श्रवण बड़ी कला है, बुद्ध ने कहा। आते-आते ही आती है। तो इन पर नाराज मत हो जाना, आनंद। क्यों? क्योंकि दूसरों का दोष देखना आसान है, अपना दोष देखना कठिन है। तुझे इनका दोष दिखायी पड़ रहा है, तुझे अपने दोष दिखायी नहीं पड़ेंगे। इनको अपना दोष दिखायी नहीं पड़ रहा है। इनको दूसरों के, सारी दुनिया के दोष दिखायी पड़ते हैं। दूसरों का दोष देखना आसान है, अपना दोष देखना कठिन है। यह बड़ी अदभुत बात आनंद से कही। बुद्धपुरुष को मौका मिले कुछ खींच लेने का तुम्हारे पैर के नीचे से, तो वह चूकते नहीं। अब आनंद तो उनके लिए पूछ रहा था, फंस गया बीच में! वह तो शायद यह भी सोच रहा होगा कि देखो, कितनी बढ़िया बात कह रहा हूं कि इनमें कोई नहीं सुन रहा और आप नाहक सुना रहे हैं। मगर उसे यह खयाल नहीं था कि दूसरे का दोष मैं देख रहा हूं। अब यहां तुम खयाल करना, आनंद भी नहीं सुन रहा है, वह इनको देख रहा है। जिन सज्जन की मैंने परसों तुमसे बात कही, जो कलकत्ता मेरे साथ गए और 349

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